आलोचना के प्रकार |alochana ke prakar |आलोचना के भेद | alochana ke bhed

किसी साहित्यिक रचना की सम्यक् परीक्षा करना, उसके गुण-दोषों का उद्घाटन करना आलोचना है । आज हम alochana ke prakar या alochana ke bhed को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।

  • 1.आलोचना किसी रचना के गुण-दोषों का उद्घाटन करती है ।
  • 2. आलोचना द्वारा रचना का मूल्यांकन किया जाता है ।
  • 3. आलोचना के द्वारा रचना की व्याख्या की जाती है  और मन पर पड़े प्रभावों को व्यक्त किया जाता है ।
  • 4. आलोचना रचना को भली-भांति समझने में पाठकों की सहायता करती और कृतिकार (रचनाकार या साहित्यकार) के उद्देश्य को स्पष्ट करती है ।

साहित्यिक आलोचना किसी भी रचना की मूल्यांकनात्मक व्याख्या है, जो उसके गुण-दोषों को समझने, साहित्यिक गुणवत्ता को आंकने और पाठक को एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्रदान करने में सहायक होती है।

यह साहित्य के विविध आयामों की पड़ताल करती है जैसे कि—लेखन शैली, विषयवस्तु, सामाजिक प्रभाव, भाषा की सुंदरता और रचनाकार की दृष्टि आदि। आलोचना मात्र दोष खोजने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह साहित्यिक विकास का आधार है जो रचना को नई दृष्टि से देखने की प्रेरणा देती है।

आलोचना के भी अनेक प्रकार होते हैं, जिनकी सहायता से साहित्यिक कृतियों की विविध दृष्टिकोणों से विवेचना की जाती है। जैसे—प्रभाववादी आलोचना, वस्तुनिष्ठ आलोचना, सामाजिक आलोचना, मनोवैज्ञानिक आलोचना, स्त्रीवादी आलोचना, मार्क्सवादी आलोचना आदि। प्रत्येक भेद अपने-अपने ढंग से रचना को विश्लेषित करता है और उसमें छिपे विचारों, संकेतों तथा भावनाओं को उजागर करता है।

समकालीन युग में आलोचना का स्वरूप और भी व्यापक हुआ है, जहाँ केवल पाठ या लेखक ही नहीं, बल्कि पाठक की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

आलोचना आज न केवल साहित्य तक सीमित है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिवेश से भी गहरे रूप में जुड़ी हुई है। अतः आलोचना के भेदों की समझ साहित्य के अध्ययन को समृद्ध बनाती है और पाठक के सोचने-समझने की क्षमता को विस्तृत करती है।

आलोचना की विभिन्न पद्धतियों के आधार पर उसके अनेक भेद या प्रकार बताए गए हैं। यहाँ हम कुछ प्रमुख भेदों (प्रकारों) की चर्चा कर रहे हैं। alochana ke bhed या alochana ke prakar को हम निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर समझ सकते हैं :

शास्त्रीय आलोचना (Classical Criticism)

इस आलोचना के अन्तर्गत आलोचक काव्यशास्त्र के नियमों को आधार बनाकर मूल्यांकन करता है। आलोचना की इस प्रणाली में आलोचक न तो व्याख्या करता है और न ही अपने मन पर पड़े प्रभावों को प्रस्तुत करता है।

वह व्यक्तिगत रुचि को भी कृति के मूल्यांकन का आधार नहीं बनाता अपितु काव्यशास्त्र के सिद्धान्त की कसौटी पर किसी कृति की जांच परख करता है।

निर्णयात्मक आलोचना (Judgmental Criticism)

इस आलोचना पद्धति में आलोचक एक न्यायाधीश की भांति आलोच्य कृति के विषय में अपना निर्णय देता है। निर्णय के विषय में वह कभी तो शास्त्रीय सिद्धान्तों को आधार बनाता है तो कभी व्यक्तिगत रुचि को। कभी लोकहित की दृष्टि से वह कृति का मूल्यांकन कर वह उसे मूल्यवान या मूल्यहीन घोषित करता है और कभी कृति की परीक्षा नवीन सिद्धान्तों के आधार पर करके अपना निर्णय देता है।

वह कृतियों को सुन्दर, असुन्दर, उत्तम-मध्यम, अधम, आदि श्रेणियों में वर्गीकृत कर साहित्य में उसका स्थान निर्धारित करता है।

कुछ विद्वानों ने इस आलोचना पद्धति का खण्डन किया है। उनका तर्क है कि आलोचक का कार्य कृति की व्याख्या कर उसके सौन्दर्य का उद्घाटन करना है जिससे सामान्य पाठकों को उस कृति का अध्ययन करने में सहायता मिल सके, न्यायाधीश की भांति निर्णय करना आलोचक का धर्म नहीं है।

हिंदी में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की आलोचना निर्णयात्मक आलोचना कही जाती है।

बाबू गुलाबराय जी ने कहा है कि यदि निर्णय शास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर किया गया हो तब तो उचित है अन्यथा व्यक्तिगत रुचि-अरुचि के आधार पर किया गया निर्णय युक्ति-संगत नहीं हो सकता।

व्याख्यात्मक आलोचना (Interpretive Criticism)

शास्त्रीय नियमों से मुक्त होकर कृति की व्याख्या करने का प्रयास ही व्याख्यात्मक आलोचना है। रूढ़िवादी आलोचकों के द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर जो आलोचना होती है उसमें कृति के सौन्दर्य का उद्घाटन नहीं हो पाता अतः कृति का वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो सकता।

व्याख्यात्मक आलोचना में आलोचक व्यक्तिगत रुचि-अरुचि को एक ओर रखकर निरपेक्ष दृष्टि से किसी कृति की व्याख्या करता है, जिसमें वह इतिहास, तत्कालीन परिस्थितियों, प्रतिपाद्य विषय और प्रतिपाद्य शैली, आदि का विश्लेषण करता है।

 एक युग के नियम दूसरे युग में खरे नहीं उतर सकते इसलिए इस प्रणाली से आलोचना करने वाले आलोचक को अपने मानदण्ड लचीले बनाने पड़ते हैं। व्याख्यात्मक आलोचना प्रारम्भ करने का श्रेय डॉ. मुल्टन को है।

कार्लायल और मैथ्यू आर्नोल्ड ने भी व्याख्यात्मक आलोचना को लोकप्रिय बनाया।

 हिंदी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने व्याख्यात्मक आलोचना का सूत्रपात किया उन्होंने तुलसी, सूर और जायसी की आलोचना में व्याख्यात्मक आलोचना पद्धति का आश्रय लिया है।

सैद्धान्तिक आलोचना (Theoretical Criticism)

साहित्यिक रचना से सम्बन्धित आधारभूत सिद्धान्तों का निर्माण इस आलोचना पद्धति के द्वारा किया जाता है। रीति ग्रन्थ या लक्षण ग्रन्थ सैद्धान्तिक आलोचना के ग्रन्थ हैं।

आलोचक अपनी प्रतिभा के आधार पर तथा प्राचीन पद्धति ग्रन्थों के आधार पर काव्य रचना सम्बन्धी मूलभूत सिद्धान्तों का निर्माण करता है और उसी के आधार पर किसी कृति की आलोचना करता है।

 सैद्धान्तिक आलोचना एक प्रकार से शास्त्रीय पक्ष है। सिद्धान्त निर्माण करने वाले आलोचक को केवल परम्परा से प्राप्त सिद्धान्तों के चक्कर में ही नहीं पड़ना चाहिए अपितु उसे नवीन सिद्धान्तों का निर्माण नए साहित्य के आधार पर करना चाहिए।

 संस्कृत में सैद्धान्तिक आलोचना पर्याप्त विकसित थी। भरत मुनि का ‘नाट्यशास्त्र’, मम्मट का ‘काव्यप्रकाश’, विश्वनाथ का ‘साहित्य-दर्पण’, आनन्दवर्द्धन का ‘ध्वन्यालोक’ आदि ऐसे ग्रन्य हैं।

 हिंदी में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का ‘रस मीमांसा’, डॉ. नगेन्द्र का ‘रस सिद्धान्त’, बाबू गुलाबराय का ‘काव्य के रूप’, भगीरथ मिश्र का ‘भारतीय काव्यशास्त्र’ सैद्धान्तिक आलोचना के के प्रमुख ग्रन्थ माने जा सकते हैं।

ऐतिहासिक आलोचना (Historical Criticism)

साहित्यकार की रचना अपने युग से प्रभावित होती है। अतः ऐतिहासिक आलोचना समीक्षा वह पद्धति है जिसमें कोई आलोचक तत्कालीन परिस्थितियों का विश्लेषण कर उनकी पृष्ठभूमि में किसी लेखक की रचनाओं की परीक्षा करता है।

उदाहरण के लिए, राम काव्य की रचना वाल्मीकि, तुलसी और मैथिलीशरण गुप्त ने की है, किन्तु उनकी कृतियों में आधारभूत मौलिक अन्तर है जो तद्‌युगीन परिस्थितियों को उपज है। जब तक युगीन इतिहास को समझा नहीं जाता तब तक उसे स्पष्ट नहीं किया जा सकता।

आधुनिक युग में ऐतिहासिक आलोचना का पर्याप्त विकास हुआ है। समालोचना की इस पद्धति ने समीक्षा को एक नई दिशा दी है।

 अन्य प्रणालियों के आलोचक भी किसी-न-किसी रूप में ऐतिहासिक आलोचना का आधार ग्रहण करने लगे हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों की रचना इसी प्रणाली पर की गई है।

 इस आलोचना पद्धति में केवल एक ही त्रुटि है और वह यह कि इसमें युगीन परिस्थितियों के विश्लेषण को इतना अधिक विस्तार मिल जाता है कि कवि और उसकी कृतियों की उपेक्षा हो जाती है।

मनोवैज्ञानिक आलोचना (Psychological Criticism)

मनोवैज्ञानिक आलोचना का अभिप्राय है मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में किसी कृति की समीक्षा करना। फ्रायड के अनुसार, कला का जन्म वासना से होता है। हमारी कुण्ठाएं और अतृप्त वासनाएं जो अवचेतन पड़ी रहती हैं; जाने-अनजाने कला या स्वप्न के माध्यम से व्यक्त हो जाती हैं।  अतः हमें किसी साहित्यिक कृतिकार के अन्तरमन और स्वभाव का मनोविश्लेषण करना चाहिए।

 यह आलोचना पद्धति साहित्य को सामाजिक कर्म न मानकर वैयक्तिक कर्म मानती है और कवि के आन्तरिक व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कृति का विश्लेषण और भावन करती है।

मनोवैज्ञानिक आलोचना में मनोविश्लेषण के आधार पर रचना की केवल परीक्षा नहीं होती अपितु रचनाकार की मानसिक स्थितियों का विश्लेषण और उसके व्यक्तित्व का अध्ययन भी होता है। वस्तुतः इस प्रणाली में काव्य रचना की प्रक्रिया का विश्लेषण किया जाता है।

इस आलोचना पद्धति में सबसे बड़ा दोष यह है कि वह साहित्य को कुण्ठाजनित मानती है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है।

सच्चा कवि तो अपने हृदय को लोक हृदय में लीन कर देता है अतः यह कहना तर्कसंगत होगा कि इस आलोचना पद्धति से निकाले गए निष्कर्ष भ्रामक हैं।

इस आलोचना में लेखक के मानसिक भाव, अवचेतन, इच्छाएं या पात्रों की मनोदशा का विश्लेषण किया जाता है। यह सिगमंड फ्रायड और कार्ल युंग जैसे मनोविश्लेषकों के सिद्धांतों पर आधारित होती है।

प्रभाववादी आलोचना (Impressionistic Criticism)

इस आलोचना पद्धति में आलोचक कृति का विश्लेषण या विवेचन नहीं करता, केवल अपने मन पर पड़ी प्रभाव तरंगों को व्यक्त करता है।

आलोचक अपने हृदय पर पड़े हुए प्रभावों से बच ही नहीं सकता अतः तटस्थ होकर आलोचना करना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है।

 हडसन प्रभाववादी आलोचना को विशेष महत्व देता हुआ कहता है :

“वास्तव में हम किसी कृति के सम्बन्ध में अपने विचार ही व्यक्त करते हैं अर्थात् अपने मन पर पड़े प्रभावों को ही सामने रखते हैं।”

प्रभाववादी आलोचना में सबसे बड़ा दोष यह है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि-भिन्नता के कारण एक ही रचना के बारे में अलग-अलग राय व्यक्त करता है इसलिए आलोचना में प्रामाणिकता नहीं रहती। ऐसा लगता है कि आलोचक अपनी रुचि को पाठकों पर थोपने का प्रयास कर रहा है।

प्रभाववादी आलोचना तभी उपादेय (उपयोगी) बन सकती है जब उस पर कुछ नियन्त्रण लगा दिए जाएं। व्यक्तिगत रुचि के आधार पर किसी कृति की निन्दा अथवा प्रशंसा से बचते हुए रचना के मार्मिक और प्रभावशाली पक्ष का उद्घाटन करना ही सच्ची प्रभाववादी आलोचना है।

यह आलोचना पाठक या आलोचक के व्यक्तिगत अनुभवों, भावनाओं और प्रभावों पर आधारित होती है। इसमें आलोचक रचना को पढ़ने के बाद जो अनुभव करता है, वही उसकी समीक्षा का आधार बनता है। यह आलोचना वस्तुनिष्ठता की अपेक्षा आत्मानुभूति को प्राथमिकता देती है।

हिंदी में श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी इसी कोटि के आलोचक हैं।

प्रगतिवादी आलोचना (Progressive Criticism) या मार्क्सवादी आलोचना (Marxist Criticism)

इस आलोचना पद्धति के जनक मैक्सिम गोर्की हैं। इस आलोचना का आधार समाजवादी यथार्थ है। वर्ग संघर्ष की पृष्ठभूमि में किसी कृति की परीक्षा या आलोचना करना प्रगतिवादी आलोचना है।

इसके अनुसार जो कृति शोषण का विरोध करती है जन सामान्य के लिए हितकर है और मार्क्सवादी सिद्धान्तों का प्रचार करती है वह उतनी ही श्रेष्ठ कृति है।

 इस प्रकार प्रगतिवादी आलोचना में साहित्य की सामाजिक उपयोगिता को ही एकमात्र मापदण्ड बनाया गया है।

 निश्चय ही यह दृष्टि एकांगी है और काव्य के मान्य सिद्धान्तों की उपेक्षा करने वाली है।

शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह, डॉ. रामविलास शर्मा, प्रकाश चन्द गुप्त आदि प्रगतिवादी आलोचक हैं।

यह आलोचना कार्ल मार्क्स के विचारों पर आधारित है, जिसमें साहित्य को आर्थिक संघर्ष, वर्गभेद, श्रमिक और पूंजीपति वर्ग के संघर्ष के रूप में देखा जाता है। इसमें यह विश्लेषण होता है कि रचना किस सामाजिक वर्ग की पक्षधरता करती है।

नारीवादी आलोचना (Feminist Criticism)

यह आलोचना स्त्री दृष्टिकोण से साहित्य को देखने का प्रयास करती है। इसमें यह देखा जाता है कि स्त्री पात्रों को किस दृष्टि से चित्रित किया गया है—क्या वे स्वतंत्र हैं या केवल पुरुष पात्रों की छाया?

उत्तर-औपनिवेशिक आलोचना (Post-Colonial Criticism)

यह आलोचना उपनिवेशवाद और उपनिवेशोत्तर परिस्थितियों पर केंद्रित होती है। इसमें यह विश्लेषण किया जाता है कि कैसे उपनिवेशित समाजों के साहित्य में शोषण, पहचान, आत्मसम्मान और स्वतंत्रता की आकांक्षा उभरती है।

आधुनिकतावादी एवं उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना (Modernist and Postmodernist criticism)

आधुनिकतावादी आलोचना में पारंपरिक मूल्यों को तोड़ने और नए विचारों, शैलियों तथा तकनीकों की खोज पर बल दिया जाता है।
उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना में बहुलता, विखंडन, पाठक की भूमिका और सत्य की अस्थिरता जैसे पहलुओं पर ध्यान दिया जाता है।

सांस्कृतिक आलोचना (Cultural Criticism)

यह आलोचना साहित्य को एक सांस्कृतिक उत्पाद मानकर उसका अध्ययन करती है। इसमें जनसंस्कृति, परंपराएं, लोकमान्यताएं और सांस्कृतिक संघर्ष साहित्य में कैसे उभरते हैं, यह देखा जाता है।

अंतर्वस्तु आलोचना (Content Criticism)

इसमें रचना की विषयवस्तु पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया जाता है। आलोचक यह देखता है कि रचना किस विषय पर आधारित है, उसकी गहराई क्या है और वह विषय कितना प्रभावशाली है।

तुलनात्मक आलोचना (Comparative Criticism)

तुलनात्मक आलोचना का प्रारम्भ उन्नीसवीं शताब्दी से हुआ। इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है और यह कई प्रकार की हो सकती है जैसे:

  • 1. दो काव्य प्रवृत्तियों की तुलना।
  • 2. एक ही युग के दो कवियों की तुलना।
  • 3. विभिन्न युगों के कवियों की तुलना।
  • 4. अलग-अलग भाषाओं के दो कवियों की तुलना।
  • 5. एक ही कवि की दो कृतियों की तुलना।

तुलनात्मक आलोचना में बहुत सावधान रहना चाहिए, तुलना करने के लिए समान आधारों की खोज करनी चाहिए। तभी तुलना सार्थक होगी। तुलना में भी विवेचन और विश्लेषण ही करना चाहिए निर्णय देना उचित नहीं है।

हिंदी में इस वर्ग के आलोचक हैं लाला भगवानदीन और पद्मसिंह शर्मा।

वस्तुनिष्ठ आलोचना (Objective Criticism)

इस आलोचना में रचना को लेखक, पाठक या समाज से अलग करके विश्लेषित किया जाता है। इसका उद्देश्य रचना की आंतरिक संरचना, भाषा, शिल्प और रूपात्मक सौंदर्य को समझना होता है।

सामाजिक आलोचना (Social Criticism)

यह आलोचना साहित्यिक रचना को समाज के संदर्भ में देखती है। इसमें यह जांचा जाता है कि रचना सामाजिक समस्याओं, अन्याय, विषमता, जातिवाद, स्त्रीविमर्श आदि को कैसे प्रस्तुत करती है।

निष्कर्ष

आलोचना के विविध भेद साहित्यिक रचनाओं को अनेक कोणों से समझने की सुविधा प्रदान करते हैं। प्रत्येक प्रकार की आलोचना एक विशिष्ट दृष्टिकोण से रचना का मूल्यांकन करती है, जिससे पाठक या शोधार्थी को गहराई से विश्लेषण करने का अवसर मिलता है।

 प्रभाववादी आलोचना जहाँ व्यक्तिगत अनुभवों और प्रभावों पर बल देती है, वहीं वस्तुनिष्ठ आलोचना रचना को स्वतंत्र रूप में आंकने का प्रयास करती है।

 सामाजिक और मार्क्सवादी आलोचना साहित्य को समाज और वर्ग-संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में देखती है, तो मनोवैज्ञानिक आलोचना लेखक या पात्रों के मनोभावों की पड़ताल करती है।

इन आलोचनात्मक दृष्टिकोणों का महत्व इस बात में भी निहित है कि ये न केवल साहित्य की परख करते हैं, बल्कि समाज और संस्कृति के गहरे ताने-बाने को भी उजागर करते हैं। एक ही रचना अलग-अलग आलोचनात्मक भेदों के आधार पर विभिन्न रूपों में सामने आ सकती है, जिससे साहित्य की बहुआयामी प्रकृति स्पष्ट होती है।

आज के वैश्विक और डिजिटल युग में आलोचना के क्षेत्र में निरंतर परिवर्तन हो रहे हैं। समकालीन मुद्दे जैसे—जाति, लिंग, पर्यावरण, उपनिवेशवाद आदि भी आलोचना के केंद्र में आ चुके हैं। इस परिवर्तनशील परिप्रेक्ष्य में आलोचना के भेद न केवल शैक्षिक दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि वे साहित्यिक चेतना को जाग्रत करने का भी कार्य करते हैं।

अतः आलोचना के प्रकारों की समझ साहित्यिक विमर्श को समृद्ध बनाती है और पाठकों को अधिक संवेदनशील और विवेकशील बनाती है। किसी साहित्यिक रचना की सम्यक् परीक्षा करना, उसके गुण-दोषों का उद्घाटन करना आलोचना है । इस प्रकार आज हम लोगों ने alochana ke prakar या alochana ke bhed को विस्तार से समझने का प्रयास किया है । मेरा पूरा विश्वास है आप लोगों ने आलोचना के भेद या आलोचना के प्रकार को भली-भाँति समझ लिया होगा । इस लेख को पूरा पढ़ने के लिए हृदय से आभार ।

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