कबीर का काव्यशिल्प |kabir ka kavyashilp| kabir ki kavyakala

कबीर भक्तिकाल की निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के अन्तर्गत संत-काव्य धारा के प्रमुख और प्रतिनिधि कवि हैं। आज हम Kabir ka kavyashilp अथवा Kabir ki kavyakala इस लेख के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे । लेकिन इससे पहले हमें भक्तिकाल की विभिन्न काव्यधाराओं का परिचय प्राप्त करना अवश्य होगा । तो चलिए पहले इस पर एक सूक्ष्म दृष्टि डालकर आगे बढ़ते हैं।

    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार भक्तिकाल (पूर्व-मध्यकाल) का समय संवत् 1375 से 1700 (अर्थात् सन् 1318 ई. से 1643 ई.) तक है ।

    उन्होंने भक्तिकाल का विभाजन निम्नानुसार किया है, जो आज सर्वमान्य है :

भक्तिकाल का काल विभाजन

हिंदी साहित्य के भक्तिकाल का काल विभाजन निम्नानुसार किया गया है :

1. निर्गुण धारा

(क) ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्यधारा) – इसके प्रतिनिधि कवि कबीर हैं ।

(ख) प्रेममार्गी शाखा ( सूफ़ी काव्यधारा) – इसके प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं ।

2.सगुण धारा

(क) रामभक्ति शाखा – इसके प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसीदास हैं ।

(ख) कृष्णभक्ति शाखा –  इसके प्रतिनिधि कवि सूरदास हैं।

हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में बहुत से महाकवियों का आविर्भाव हुआ था, संभवत: इसी को ध्यान में रखकर हिंदी साहित्य के इतिहास लेखक जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने ग्रंथ ‘द मॉडर्न वर्नाक्यूलयर लिटरेचर ऑफ नॉर्दर्न हिंदुस्तान’ (1888 ई.) में पहली बार भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा ।

कबीर का जीवन परिचय  

    कबीर के शिष्य धर्मदास के अनुसार कबीर का जन्म संवत् 1455 (अर्थात् 1398 ई.) में काशी में हुआ । 120 वर्ष की दीर्घ आयु पूरी करके उनकी मृत्यु संवत् 1575 में (अर्थात् 1518 ई.) हुई।

     किंवदन्ती है, कि नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने नवजात शिशु को कहीं पड़ा हुआ पाया । उसे अपना पुत्र मानकर उसका पालन-पोषण किया। वही बालक आगे चलकर कबीर हुए। इनकी पत्नी के रूप में लोई का नाम लिया जाता है। इनके पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था ।

कपड़ा बुनने का पैतृक व्यवसाय वे आजीवन करते रहे। साधु-सन्तों की संगति उन्हें बचपन से ही प्रिय थी। हिन्दू-मुसलमान का भेद-भाव उनके मन में नहीं था।

कबीर रामानंद के शिष्य थे। परंतु कबीर के राम रामानंद के राम से भिन्न थे।  हालांकि इनके कुछ अनुयायी प्रसिद्ध सूफी मुसलमान फकीर शेख तकी को भी इनका गुरु मानते हैं। कबीर सिकंदर लोदी के समकालीन थे ।

कबीर ने किसी ग्रंथ की रचना नहीं की। अपने को कवि घोषित करना उनका उद्देश्य भी नहीं था। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्य धर्मदास ने कबीर वाणी का संकलन       (उनके उपदेशों का संकलन)  ‘बीजक’  (1464 ई.) के नाम किया । इस ग्रंथ के तीन भाग है- साखी, सबद और रमैनी। ये रचनाएँ कबीर ग्रंथावली में संगृहीत हैं।

कबीर के विषय में यह कहा जाता है कि वे पढ़े-लिखे न थे- “मसि कागद छूयो नहीं कलम गह्यो नहिं हाथ”, किन्तु उनमें विलक्षण काव्य प्रतिभा विद्यमान थी।

    यद्यपि कविता करना उनका उद्देश्य नहीं था तथापि वे एक उच्च कोटि के कवि थे, इसे सब लोग स्वीकार करते हैं। उनकी कविता प्रयत्न साध्य नहीं है किन्तु उसमें काव्य तत्वों का अनायास आगमन हो गया है।

कबीर का काव्यशिल्प या कबीर की काव्यकला

आइये अब हम कबीर के काव्यशिल्प को विस्तार से समझने का प्रयास करें । कबीर के काव्यशिल्प अथवा काव्यकला की विशेषताओं को हम निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से भली-भांति समझ सकते हैं :

कबीर की अभिव्यंजना शैली

उनकी अभिव्यंजना शैली अत्यन्त सशक्त एवं प्रभावशाली है। अभिव्यंजना के अनेक कलात्मक तत्व उनकी कविता में सहज भाव से आ गए हैं।

    अभिव्यंजना = विचारों व भावों को प्रकट करना, अभिव्यक्ति।

    उन्होंने जो अनुभव किया उसे बिना किसी लाग-लपेट के सहज शब्दावली में अभिव्यक्त कर दिया। अब इसमें यदि रसगत, अलंकारगत या उक्तिगत रमणीयता आ गई हो तो वह प्रयत्न साध्य न होकर सहज रूप में ही अभिव्यक्त हुई है।

कबीर के काव्य में रस योजना

 कबीर के काव्य में शृंगार एवं शान्त रसों की प्रधानता है। आत्मा एवं परमात्मा के मिलन प्रसंगों में संयोग श्रृंगार की व्यंजना हुई है जबकि विरह प्रसंगों में वियोग श्रृंगार व्यंजित हुआ है।

कबीर के काव्य में अलंकार योजना

 कबीर के काव्य में अलंकारिक रमणीयता भी विद्यमान है। यह रमणीयता हिमालय के शिखरों की भांति प्रकृत रूप में सुन्दर है, न कि ताजमहल के नक्काशीदार पत्थरों की भांति प्रयत्न से निर्मित।

 कबीर के काव्य में रूपक, अन्योक्ति, विरोधाभास, उपमा, विभावना, दृष्टान्त आदि अनेक अलंकार उपलब्ध हो जाते हैं।

कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं-

रूपक

 कबीर घोड़ा प्रेम का चेतनि चढ़ि असवार।

 ग्यान खड्ग गहि काल सिरि भली मचाई मार।।

उपमा

पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात।

अन्योक्ति

 काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी।

दृष्टान्त

सन्त न छाड़े संतई जे कोटिक मिलें असंत।

 चन्दन भुवंगम बैठिया, सीतलता न तजंत।।

विभावना

पुहुप बिना एक तरवर फलिया बिन कर तूर बजाया।

कबीर के काव्य में प्रतीक योजना

 कबीर ने प्रतीकों का प्रयोग प्रचुरता से किया है। प्रतीक शैली उन्हें विशेष प्रिय है। उनके प्रतीक आध्यात्मिक हैं जिनके अर्थ को जाने बिना कबीर की कविता को नहीं समझा जा सकता।

यहाँ एक उदाहरण उल्लेखनीय है-

आकासे मुखि औंधा कुआं पाताले पनिहारि।

ताका पांणि को हंसा पीवै विरला आदि विचारि ॥

   यहाँ आकाश सहस्रार चक्र का, औंधा कुआं ब्रह्मरन्ध्र का, पाताल मूलाधार चक्र का, पानी अमृत का तथा हंस जीवन्मुक्त आत्मा का प्रतीक है।

कबीर के काव्य में छंदों का प्रयोग

 कबीर ने अपनी ‘साखियां’ दोहा छन्द में, ‘रमैनी’ चौपाई-दोहा में तथा ‘सबद’ पदों में रचे हैं।

     दोहे जैसे छंद में भी मात्राओं का सही विधान नहीं है। उधाहरण के लिए-

हँसै न बोलै उनमनी चंचल मेल्ह्या मारि।

कहै कबीर भीतरि भिद्या सतगुरु के हथियारि।।

कबीर की भाषा 

 कबीर की भाषा के विषय में अधिकांश विद्वानों का मत है वह सधुक्कड़ी भाषा है क्योंकि उसमें अनेक भाषाओं के शब्दों का मेल है।

    उसमें पूर्वी हिंदी, खड़ी बोली, राजस्थानी, ब्रजभाषा, पंजाबी के शब्दों का मिश्रण उपलब्ध होता है। कबीर ने नाथपंथियों की परम्परागत भाषा में काव्य रचना की है जिसमें पश्चिमी बोलियों का प्रभाव अधिक है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘बीजक’ की साखियों की भाषा को सधुक्कड़ी अर्थात् राजस्थानी, पंजाबी मिश्रित खड़ी बोली कहा है तथा रमैनियों एवं पदों की भाषा में ब्रजभाषा एवं पूरबी बोली का भी उपयोग माना है ।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर की भाषा पर टिप्पणी करते हुए कहा है –“भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है । प्रतिभा उनमें बढ़ी प्रखर थी इसमें संदेह नहीं है ।”

    भले ही वे ‘भोजपुरी’ क्षेत्र के निवासी थे किन्तु उन्होंने बनारस की बोली में काव्य रचना नहीं की। कबीर की भाषा अनुभूति को व्यक्त करने में सक्षम है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा पर टिप्पणी करते हुए कहा है- “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया है— बन गया है तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर।”

    वास्तव में कबीर की भाषा को उस काल की एक ऐसी काव्य भाषा मानना ही उचित है जो नाथपंथी परम्परा से साधु-संतों के बीच चली आ रही थी और जिसमें संतों के व्यापक पर्यटन के फलस्वरूप अनेक क्षेत्रीय बोलियों का सम्मिश्रण था।

कबीर के काव्यशिल्प संबंधी स्मरणीय तथ्य

  1. साखी, सबद और रमैनी — कबीर की रचनाएँ मुख्यतः इन तीन रूपों में मिलती हैं।
  2. सटीक एवं संक्षिप्त शैली — उनकी भाषा में अनावश्यक विस्तार नहीं है, बल्कि सटीकता है।
  3. सांकेतिकता का प्रयोग — कबीर ने प्रतीकों के माध्यम से गूढ़ अर्थ व्यक्त किए, जैसे ‘जल में कुंभ’, ‘जोगीरा’, ‘बीन’ आदि।
  4. लोकभाषा का प्रयोग — कबीर ने ब्रज, अवधी, खड़ीबोली, पंजाबी और अरबी-फारसी शब्दों को मिलाकर सहज बोली का प्रयोग किया।
  5. खड़ी बोली के विकास में योगदान — उनकी भाषा हिंदी की खड़ी बोली के प्रारंभिक रूप की झलक देती है।
  6. तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी शब्दों का समावेश — कबीर ने विभिन्न भाषिक स्तरों को एक साथ मिलाया।
  7. प्रकृति चित्रण का अभाव — उनके काव्य में प्रकृति का चित्रण बहुत कम है, ध्यान आत्मज्ञान पर है।
  8. लाक्षणिकता और रूपकों का सुंदर प्रयोग — जैसे ‘गगन मंडल में झीनी चदरिया’।
  9. दोहे की शैली — कबीर की अधिकांश रचनाएँ दोहे में हैं, जो सहज स्मरणीय और गेय होती हैं।
  10. जनमानस की भाषा — उनकी भाषा जटिल नहीं, सामान्य जन की समझ में आने वाली है।
  11. प्रचंड आत्मबल — उनके शब्दों में निर्भीकता, विद्रोह और आत्मबल स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
  12. धार्मिक पाखंड का विरोध — काव्य में सामाजिक और धार्मिक पाखंडों की तीव्र आलोचना की गई है।
  13. निराकार ब्रह्म की भक्ति — कबीर का काव्य निर्गुण भक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण है।
  14. गंभीर दार्शनिकता — कबीर का काव्य सहज दिखता है, पर उसमें गहन दर्शन निहित है।
  15. प्रश्नोत्तर शैली — वे शिष्य और गुरु के बीच संवाद जैसी शैली अपनाते हैं।
  16. भावप्रधानता — उनके काव्य में भावों की प्रधानता है, अलंकारों की नहीं।
  17. अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग — जहाँ अलंकार हैं भी, वहाँ वे स्वाभाविक ढंग से प्रयुक्त हैं।
  18. सामाजिक चेतना — उनका काव्य सामाजिक विषमताओं पर गहरी चोट करता है।
  19. गुरु महिमा का वर्णन — उन्होंने गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ माना।
  20. गीतात्मकता — उनके दोहे गेय हैं, जो जनमानस में भक्ति गीतों के रूप में स्थान पा चुके हैं।

निष्कर्ष

कबीर के काव्य में प्रयुक्त प्रतीक नाथपंथी योगियों, वस्त्रकला उद्योग, प्रकृति तथा जीवन से लिए गए हैं। दाम्पत्य प्रतीकों का प्रयोग भी वे बड़ी कुशलता से करते हैं। उलटबांसियों में तो प्रतीक भरे पड़े हैं। 

काव्य सौन्दर्य के प्रति मोह कबीर में कहीं दिखाई नहीं पड़ता। वस्तुतः कविता में चमत्कार सृष्टि करना उनका उद्देश्य नहीं था इसीलिए उन्होंने ‘कलापक्ष’ को ‘अनुभूति पक्ष’ पर हावी नहीं होने दिया। छंद, अलंकार, प्रतीक उनके लिए साधन ही थे, साध्य नहीं।

    समग्रतः यह कहना उपयुक्त होगा कि कबीर के काव्य में कलात्मक उपकरण उपलब्ध होते हैं, यद्यपि वे उनके प्रति सजग एवं सचेत नहीं थे। वे प्रतिभा सम्पन्न कवि थे तथा शिक्षित न होने पर भी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा के बल पर उच्चकोटि की कविता कर सकने में समर्थ हो सके हैं।

    कविता करना कबीर का उद्देश्य न था। वे तो अपनी बात कहने के लिए कविता का सहारा भर लेते थे। इसीलिए उनकी काव्यकला सहज और अनगढ़ है। उसमें कला का चमत्कार भले ही न हो, किन्तु अनुभूति की सचाई एवं अभिव्यक्ति का खरापन उसमें विद्यमान है, इसीलिए वे जन कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए।

    भारतीय जनता में तुलसी और कबीर ही दो ऐसे कवि हैं जिनकी उक्तियां लोगों की जबान पर चढ़ी हुई हैं। किसी भी प्रसंग में तुलसी की चौपाई अथवा कबीर की साखी का उदाहरण लोग प्रस्तुत कर देते हैं- यह कबीर की लोकप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण है।

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