प्राच्यवाद क्या है | prachyavad kya hai

     प्राच्यवाद को अंग्रेजी में ओरियेंटलिज्म कहा जाता है ।  ‘प्राच्यवाद’ का अभिप्राय है पूरब के बारे में पश्चिम का दृष्टिकोण। जो पश्चिम है वह पूरब नहीं है, वह इतर है, दी ‘अदर’ है। सामान्यतः यूरोप को पश्चिम और एशिया को पूरब मान लिया गया है। आज हम prachyavad kya hai इसे विस्तार से जानने और समझने का प्रयास करेंगे । यदि आप इस लेख को पूरा पढ़ते हैं तो prachyavad की अवधारणा को पूरी तरह से समझ पाएंगे ऐसा मेरा विश्वास है।

प्राच्यवादी दृष्टिकोण क्या है ?

      प्राच्यवाद पूरब को हीन सिद्ध करता है। उसे अंधविश्वासी, अध्यात्म, सपेरों और संन्यासियों का देश कहा गया है। वह स्थिर है, मूक है, स्वयं अपना आख्यान नहीं गढ़ सकता । साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी ताकतों ने अपनी ओर से उसका आख्यान (कहानी, परिचय, वर्णन) गढ़ने की कोशिश की। तारीफ तो यह है कि एक सीमा तक पूरब इसे ओढ़ लेता है। इसे स्वीकार कर लेता है ।

     इसके मूल में पूरब को अधीनस्थ बनाए रखने की आकांक्षा भी थी। सईद अपने ‘प्राच्यवाद’ में, अपनी त्रुटियों, संकीर्णताओं के बावजूद ‘प्राच्यवाद’ की अवधारणा को स्थापित करते हैं। पुस्तक का महत्व इसी से सिद्ध है कि दुनिया की अनेकानेक भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है और इस पर काफी बहसें हो चुकी हैं और उसका सिलसिला अब भी जारी है।

प्राच्यवाद (ओरियेंटलिज्म) 1978 में लिखी गयी। वास्तव में यह एक विस्थापित बुद्धिधर्मी का आख्यान है। सईद न्यू जेरूसलम (1935) में पैदा हुए थे। इजराइल (1948) यहूदियों के एक अलग देश के रूप में उभरा। जेरूसलम इजराइल का पवित्र शहर है। सईद को वहाँ से निर्वासित होना पड़ा। वे जार्डन और मिस्र में भी रहे। अंततः अमेरिका में जा बसे। लेकिन फिलीस्तीन (जेरूसलम उसी में स्थित था) का दर्द उससे नहीं गया ।

प्रायः पश्चिम का श्रेष्ठ साहित्य विस्थापितों का साहित्य है-एडोर्नो, बेकेट, बोर्खोज, नोवाकोव इत्यादि का साहित्य। प्राच्यवाद पर बहुत से लोगों का प्रभाव है-नीत्शे, ग्राम्शी, फुको, एडोर्नो, दांते, कोशांबी, रोमिला थापर आदि का। फिर भी ‘प्राच्यवाद’ उनका अपना है।

    ‘प्राच्यवाद’ के विरोधियों की संख्या भी कम नहीं है। उसमें संकीर्णता है, अरब-पक्षधरता है। अपने विरोध में पड़ने वाले प्राच्यवादियों को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। यह ठीक है कि उन्होंने केवल ब्रिटेन और फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों को ही अपने प्राच्यवाद के अंतर्गत रखा है क्योंकि वे लोग पूरब को अधीनस्थ बनाए रखने के लिए उसे हीन सिद्ध करते रहे हैं।

पर सर विलियम जोन्स तो ब्रिटिश था। उसे क्यों हटाया गया है। इसीलिए न कि वह भारत के वैशिष्ट्य को बहुत गहराई से जानता था। संस्कृत का अच्छा जानकार था। भारत से वह प्रेम करता था। उसी ने ‘बंगाल एशियारिक सोसाइटी’ की स्थापना की थी।

जोसेफ नीदम ब्रिटिश थे। उन्होंने अपनी पुस्तक में अरब-इस्लामी सभ्यता और भारतीय सस्कृति की उपलब्धियों का विस्तृत वर्णन किया है। इसमें पश्चिम की श्रेष्ठता और पूरब की हीनता का कहीं संकेत भी नहीं है। वह सईदीय प्राच्यवाद के बाहर है।

कार्ल मार्क्स उसकी दृष्टि में प्राच्यवादी है। हबीब के अनुसार इसे सिद्ध करने के लिए मार्क्स की शब्दावली के अर्थ का अनर्थ किया गया है, संदर्भ भी तोड़े-मरोड़े गये हैं। इसे हबीब अनैतिक और लापरवाही भरा बताते हैं।

भारत के सम्बन्ध में यूरोपीय प्राच्यवाद को सामने रखने के लिए वे दो उपन्यासों-किपलिंग के ‘किम’ (1901) और फारेस्टर के ‘ए पैसेज टू इण्डिया’ (1924) का विस्तार से उल्लेख करते हैं।

 ‘किम’ में पश्चिमी प्राच्यवाद द्वारा निर्मित आख्यान पूरब है। यहाँ के निवासी आदिकाल से ही कमीशनखोर हैं। हिन्दू स्वभावतः झूठा होता है, इत्यादि-इत्यादि।

एजाज़ अहमद का कहना है कि ‘किम’ के बारे में वह कुछ नया नहीं कहता। सब कुछ पहले ही कहा जा चुका है। आश्चर्य तो यह है कि इस सामान्य उपन्यास की तुलना उसने हार्डी, जार्ज इलियट, बेकेट, प्रूस्त आदि के उपन्यासों से क्यों की है?

‘ए पैसेज टू इण्डिया’ में कहा गया है कि भारतीय किस तरह अनुशासनविहीन है। गंगातट पर सिर्फ गंदगी दिखती है, वह अंग्रेज के अधीन ही रहने लायक है। फारेस्टर को देश में कोई राष्ट्रीय प्रतिरोधी आंदोलन नहीं दिखता।

‘प्राच्यवाद’ स्वयं एक अंतर्विरोधी पुस्तक है। प्राच्यवाद बाहर से आने वाली ताजी हवा भीतर नहीं आने देता। अपने अनुकूल विचार को गुम कर देता है, स्वयं पूर्णतः धर्म निरपेक्ष नहीं हो पाता। लेकिन इस पुस्तक का महत्त्व इसमें है कि पूरब अपनी अस्मिता के बारे में सचेत होने लगा। यों आज के समय में प्राच्यवाद (ओरियेंटलिज्म) का क्रेज समाप्त हो गया है।

प्राच्यवाद का प्रारम्भ

 1978 में एडवर्ड सईद की पुस्तक : ‘ओरिएंटलिज्म द वेस्टर्न कन्सेप्शन्स ऑफ द ईस्ट’ के प्रकाशन के पहले ‘प्राच्यवाद’ शब्द सामान्यतः एक अकादमिक पद के रूप में ही स्वीकृत था। लेकिन इस पुस्तक के प्रकाशन के उपरान्त प्राच्यवाद और इसके उद्देश्यों के संदर्भ में न सिर्फ वैचारिक जगत में ही काफी विवाद पैदा हुआ है बल्कि इस विवाद ने राजनीतिक-सामाजिक हलकों को भी व्यापक स्तर पर प्रभावित किया।

प्राच्यवाद के बारे में सईद द्वारा इस पुस्तक में प्रस्तुत अवधारणा के बाद से प्राच्यवाद का पूर्व प्रचलित अर्थ बहुत तीव्रता से गौण होता जा रहा है। जहाँ  पहले प्राच्यवाद से सामान्यतः ‘पूरब की भाषाओं एवं संस्कृतियों का अध्ययन’ अर्थ लिया जाता था अब वह ‘प्राच्य के विषय में पाश्चात्य : धारणाएं’ के रूप में स्वीकृत होने लगा है।

 इस पुस्तक के व्यापक प्रभाव के बाद यह आवश्यक हो गया है कि साहित्यिक-सांस्कृतिक आलोचना के लिए परिभाषिक शब्द के रूप में इस पद को गम्भीरता से समझा जाए और व्याख्यायित किया जाए क्योंकि तटस्थ अर्थों में इसे सम्प्रेषित किया जाना अब संभव नहीं दिखाई देता।

 सईद ने स्वयं ही इस पद से निःसृत होनेवाले विभिन्न अर्थों का जिक्र किया है। अपनी पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि प्राच्यवाद के लिए जो अर्थ तुरंत ही स्वीकार कर लिया जाता है वह अकादमिक है और आज भी विभिन्न संस्थानों में इसका प्रयोग होता है।

कोई भी, जो पूरब के बारे में पढ़ता है, लिखता है या शोध करता है-वह चाहे नृतत्वशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार या फिर शब्दकोशकार ही क्यों न हो, प्राच्यविद् है और उसका कार्य प्राच्यवाद है।

हालांकि प्राच्य अध्ययन और क्षेत्र अध्ययन की तुलना में आजकल इस ‘प्राच्यवाद’ का प्रयोग विशेषज्ञों द्वारा कम होता है। कारण कि एक तो यह बहुत ही ढीला और अस्पष्ट है और दूसरा यह कि इससे उन्नीसवीं सदी और आरंभिक

बीसवीं सदी के यूरोपीय उपनिवेशवाद के दमन का अर्थ निकलता है।

सईद प्राच्यवाद का एक दूसरा अर्थ भी बताते हैं जिसके अनुसार प्राच्यवाद एक चिंतन शैली है जो पूरब और पश्चिम के बीच अस्तित्व और ज्ञानमीमांसीय आधार पर किए गए विभाजन पर अवस्थित है। उनका कहना है कि बहुत सारे लेखकों ने, जिनमें कवि, उपन्यासकार, दार्शनिक, राजनीतिक सिद्धांतकार, अर्थशास्त्री और साम्राज्य से जुड़े प्रशासक इत्यादि शामिल हैं, पूरब और पश्चिम के बीच बुनियादी भेद को ही पूरब, इसके निवासी, रीति-रिवाज, बुद्धि, भाग्य इत्यादि से संबंधित सिद्धांतों, महाकाव्यों, उपन्यासों, सामाजिक विवरणों और राजनीतिक घटनाक्रमों की व्याख्या का प्रस्थान बिंदु मान लिया है।

लेकिन जिस अर्थ को सईद स्थापित करना चाहते थे वह इस प्रकार है- “मैं प्राच्यवाद के एक तीसरे अर्थ की बात करूंगा जो उपरोक्त दोनों अर्थों की तुलना में कहीं अधिक ऐतिहासिक और भौतिक रूप से पहचाना जा सकता है। अगर हम अठारहवीं सदी के अन्तिम पच्चीस वर्षों से प्रारंभ करें तो यह साफ हो जाएगा कि प्राच्यवाद का विवेचन और विश्लेषण एक ऐसी कॉरपोरेट संस्था के रूप में किया जा सकता है जिसका विषय है पूरब, जिसके बारे में वक्तव्य दिए जाते हैं, जिसके बारे में व्यक्त किए गए विचारों को प्राधिकृत किया जाता है, जिसका वर्णन किया जाता है, जिसे पढ़ाया जाता है जिसका रूप निर्धारित किया जाता है, जिस पर शासन किया जाता है : थोड़े में कहें तो प्राच्यवाद पूरब के ऊपर शासन करने, उसे संरचित करने और उसके ऊपर अधिकार जमाने की पश्चिमी शैली है।”

इस तरह सईद ने प्राच्यवाद की अकादमिक विमर्श की छवि को पश्चिम के अधिनायकत्व की छवि से संलग्न किया। सईद ने इस सिद्धान्त की स्थापना के लिए फूको के सत्ता विमर्श और ग्राम्शी के हेजेमनी के सिद्धांतों से काफी सहयोग लिया है।

सामान्य अवबोध से पश्चिम की सांस्कृतिक-सामाजिक श्रेष्ठता की सहज स्वीकृति बनाने में इस हेजेमनी की महती भूमिका है। सईद की दृष्टि यह थी कि पश्चिम ने पश्चिम को श्रेष्ठ साबित करने हेतु अपने ‘अन्य’ के रूप में पूरब का ‘प्राच्यीकरण’ किया और ज्ञान के संस्थानों, साम्राज्य के उपकरणों, नौकरशाही, सरकारी नीतियों, अध्येताओं और सचेत अचेत रूप में कलाकारों-रचनाकारों इत्यादि का इसमें योगदान रहा। यह प्रक्रिया इतनी व्यापक रही कि पूरब का कोई अध्ययन इस दृष्टि से मुक्त नहीं हो पाता।

पी.एन. सिंह ने ‘साखी’ पत्रिका के एडवर्ड सईद विशेषांक (अंक 13-14) में सईद के द्वारा प्रतिपादित प्राच्यवाद की इन विशेषताओं की सहज व्याख्या की है। पी. एन. सिंह लिखते हैं कि ‘प्राच्यवाद’ (पुस्तक) प्रमुखतः पश्चिमी अरबविदों द्वारा अरबी समाज एवं संस्कृति संबंधी समझ एवं निष्कर्षों का विखंडन एवं स्पष्टीकरण है। यह इस बात का रेखांकन है कि किस प्रकार एक विजेता संस्कृति अपने अधीनस्थ समाजों एवं संस्कृतियों को देखती और समझती है और कैसे इसी की समझ, इसी के आख्यान, इनकी निर्णायक एवं सर्वस्वीकृत पहचान बन जाते हैं जिसे अधीनस्थ निरापद मान लेते हैं। अर्थात पूरब की प्रचलित छवि पूरब के यथार्थ की अभिव्यक्ति न होकर पश्चिम द्वारा निर्मित छवि है, उसी का आख्यान है। नरेटिव है।

लेकिन यह प्राच्यवादी आख्यान यूं ही निरापद नहीं बना। यह ब्रितानी एवं फ्रांसीसी सांस्कृतिक उद्यम का परिणाम था, जिसमें औपनिवेशिक सेनाओं, प्रशासकों, बाईबल एवं व्यवसाय के साथ-साथ उनके ज्ञान और कल्पना का भी अवदान रहा।

प्राच्यवादीकरण के संबंध में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे साम्राज्य की सत्ता संरचना से काटकर नहीं समझा जा सकता। दरअसल पश्चिम में यह मान्यता थी कि पूरब अपनी प्रस्तुति नहीं कर सकता था, अपना आख्यान नहीं गढ़ सकता था। अर्थात् पश्चिमी ज्ञान, साम्राज्यवादी ताकत और इरादों के बिना यह आविष्कृत एवं निर्मित नहीं हो सकता था।

 पी. एन. सिंह का मानना है कि इस प्राच्यवाद की एक तीसरी विशेषता यह भी है कि यह मिथ्या कथनों एवं मिथकों पर आधारित है। अगर वास्तविक प्राच्यवाद का उद्घाटन किया जा सका, अगर प्राच्य अपना आख्यान गढ़ सका तो यह प्राच्यवाद नहीं टिकेगा।

तात्पर्य यह है कि विश्व परिदृश्य में पश्चिम के प्रभुत्व के कायम होने में प्राच्यवाद की भूमिका महत्वपूर्ण थी। प्राच्यवाद के कारण ही पश्चिम पूरब की वह छवि निर्मित कर सका जिसे सिर्फ पश्चिम ने ही नहीं अपनाया बल्कि पूरब के विद्वान भी स्वयं को उसी आइने में देखने लगे।

प्राच्यवाद के संदर्भ में सईद के विचार से और उनकी विश्लेषण पद्धति से कई महत्वपूर्ण विद्वान असहमत दिखाई देते हैं। टिमोथी ब्रेनन, बर्नार्ड लुइस ने सईद की विस्तृत आलोचना की है। सईद ने इनमें से कई आलोचनाओं का 1995 में लिखे अपने’ आफ्टरवर्ड’ में जवाब देने का प्रयास किया है।

प्राच्यवाद के संबंध में भारतीय विद्वानों के विचार

प्रख्यात मार्क्सवादी विचारक इरफान हबीब और एजाज अहमद सईद की प्राच्यवाद की परिभाषा में अतिसामान्यीकरण और संकीर्णता पाते हैं। दोनों ही विचारक इससे सहमत दिखाई देते हैं कि सईद तयशुदा नतीजों के आधार पर तथ्यों का चुनाव करते हैं और अपने पूर्व निर्धारित निष्कर्षों को प्रतिपादित करने के लिए चुने गए तथ्यों का बहुत लापरवाही से विश्लेषण करते हैं।

एजाज अहमद ने अपनी पुस्तक ‘इन थियोरी’ में ‘प्राच्यवाद’ को एक ‘डीप्ली फ्लॉड बुक’ कहने में भी संकोच नहीं किया है क्योंकि वह पश्चिम को एक गुनहगार की तरह और पूरब को मासूम की तरह प्रस्तुत करती है।

दोनों ही मार्क्सवादी विचारकों ने मार्क्स के संदर्भ में सईद की व्याख्या में बरती गई ऐसी असावधानियों को उभारा है जिन्हें अनदेखा कर पाना कठिन है।

इरफान हबीब लिखते हैं कि प्राच्यवादी परंपरा में सईद के द्वारा चयन किए गए लेखन के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा मौजूद है जिनमें पूरब के बरक्स पश्चिम के श्रेष्ठ होने के दावे का संकेत नहीं मिलता, जिसकी उपस्थिति को सईद प्राच्यवाद का मूल तत्व मानते हैं।

हबीब का तर्क है कि सईद के सिद्धांत में गड़बड़ियां इसलिए आई क्योंकि ‘सईदी प्राच्यवाद के अनुसार प्राच्यवाद को पढ़ानेवाले या इस पर शोध अध्ययन करनेवाले पूरब (प्राच्य) के नहीं हो सकते।… वस्तुतः वे मानकर चलते हैं कि प्राच्यवादी केवल पाश्चात्य पाठकों को हो ध्यान में रखकर लिखते हैं और इसीलिए सईद उन्हीं प्राच्यवादियों को चुनते हैं जो उनकी मान्यता के अनुकूल हों।’

भारत के संदर्भ में प्राच्यवाद को समझने के लिए अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध से आरंभ करना आवश्यक है। 1784 में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना के बाद अनेक अध्येता प्राच्य अध्ययन के क्षेत्र में आए जो प्राच्यविद् के रूप में ही जाने जाते थे।

अगली सदी में ब्रिटिश अध्येताओं के अतिरिक्त भी बहुत सारे यूरोपीय प्राच्यविद् भारत के बारे में गंभीर अध्ययन कर रहे थे। भारतीय उपनिवेश से इनका संबंध ब्रिटिश अध्येताओं जैसा नहीं था इसलिए इनके अध्ययन को भी बहुत सतर्कता से देखा जाना चाहिए। अध्ययन की यह परंपरा इतनी व्यापक थी कि इस क्षेत्र में कार्य कर रहे परवर्ती विद्वान स्वयं को प्राच्यवाद की इस परंपरा में ही अंकित करवाना चाहते थे।

 एशियाटिक सोसाइटी ने अनेक विषयों पर शोध कराए थे। विलियम जोन्स और उनके साथी प्राच्यविदों ने विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद किए, भारतीय धर्म-ग्रंथों का अध्ययन किया, प्राचीन पांडुलिपियों का पता लगाया, व्याकरणों की रचना की, भारतीय कानून, जाति-प्रथा और सामाजिक संरचना का विश्लेषण किया और भारतीय परिवेश से प्रेरणा लेकर काव्य-सृजन भी किया।

 वेद, महाभारत, मनुस्मृति, हितोपदेश, कालिदास, जयदेव, प्राचीन भारतीय संगीत, दर्शन, पुराण, ज्योतिष, बीजगणित, नाट्यशास्त्र, खुसरो, निजामी के संदर्भ में उन्हें विस्तृत जानकारी थी और इस जानकारी को उन्होंने अंग्रेजी में उपलब्ध कराया।

 एडवर्ड सईद और उनके विरोध में दिए गए तर्कों के बाद जरूरी हो गया है कि ज्ञान की इस समृद्ध परंपरा का और भी गहराई से विवेचन विश्लेषण किया जाए। यह समझा जाए कि पिछले ढाई सौ सालों में इस ज्ञान की परंपरा में कुछ भी ‘प्राच्यीकरण’ से मुक्त नहीं था या फिर जैसा कि इरफान हबीब कहते हैं कि “गौरतलब है कि कोई भी गंभीर लेखक (चिंतक) इस तथ्य को नहीं नकार सकता कि उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ने पूरब के विषय में खास किस्म के लेखन के लिए, अनुकूल माहौल तैयार नहीं किया। गड़बड़ी तो तब उत्पन्न होती है जब सईद इस प्रकार के लेखनों के साथ-साथ पूरब पर हुए समस्त चिन्तन-लेखन को ‘प्राच्यवाद’ की टोकरी में डाल देते हैं जो भाषाई सभ्यता या समसामयिकता की वजह से ‘प्राच्यवाद’ के ही उत्पाद प्रतीत होते हैं।”

भारत में अंग्रेजी साहित्य के विद्वान हरीश त्रिवेदी, एडवर्ड सईद पर बहुत कुपित दिखाई देते हैं और यह मानते हैं कि एडवर्ड सईद ने एक अलग ही प्राच्यवाद गढ़ दिया है।

 हरीश त्रिवेदी का सबसे पहला तर्क यह है कि सईद की सोच में दरार पड़ने का कारण है कि वे इस्लाम के साथ हुए अन्याय और फिलिस्तीन को ध्यान में रखकर प्राच्यवाद पुस्तक लिखने बैठते हैं। इसीलिए पूरी पुस्तक का केन्द्र सिर्फ मध्य-पूर्व और अरब देशों तक सीमित हो जाता है। हरीश त्रिवेदी कहते हैं कि सईद की इस पुस्तक में भारत नहीं है, चीन नहीं है, जापान नहीं है तो फिर ओरिएंट कहां है।

पी.एन. सिंह ने भी ओरिएंटलिज्म के आख्यान की कुछ सीमाएं बताई हैं, जैसे कि प्रथम तो यह पुस्तक अरब विश्व पर ही केंद्रित है, जबकि ब्रितानी एवं फ्रांसीसी साम्राज्य अन्य अनेक देशों में फैला था। अरब विश्व में इसे इस्लाम और अरबी राष्ट्रवाद के कट्टर समर्थक और पश्चिमी साम्राज्यवाद की ओर आलोचना के रूप में पढ़ा गया।

दूसरा यह कि इसमें पूरब में साम्राज्य विस्तार के दौरान उभरे सांस्कृतिक प्रतिरोधों की चर्चा नहीं है, मानो आधुनिक साम्राज्य निरापद एवं स्वाभाविक राजनीतिक परिघटना थी। ओरिएंटलिज्म में सईद का ध्यान राष्ट्रीय प्रतिरोध की ओर नहीं गया है।

तीसरा यह कि भारत में ही अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना निरापद नहीं थी। यह लगभग 150 वर्षों के खूनी संघर्ष का नतीजा थी जिसमें प्राच्यवाद की उतनी भूमिका नहीं थी जितनी अंग्रेजों के रणनीतिक कौशल, तकनीकी बेहतरी, कंपनी की धोखाधड़ी और भारत में आंतरिक फूट इत्यादि की।

निष्कर्ष

प्राच्यवाद (Orientalism) एक ऐसी वैचारिक अवधारणा है जिसमें पश्चिमी विद्वानों ने पूर्वी देशों—विशेषकर भारत, चीन, जापान और इस्लामी सभ्यताओं—की संस्कृति, धर्म, भाषा और इतिहास का अध्ययन किया। यह अध्ययन अक्सर एक पश्चिम-केंद्रित दृष्टिकोण से किया गया, जिसमें पूर्व को रहस्यमयी, परंपरागत, और कभी-कभी पिछड़ा या अविकसित बताया गया। 18वीं और 19वीं शताब्दी में यूरोपीय औपनिवेशिक शक्तियों ने पूर्व को जानने और समझने के बहाने उसे नियंत्रित करने की कोशिश की।

इस विचारधारा की आलोचना प्रसिद्ध लेखक एडवर्ड सईद ने अपनी 1978 की पुस्तक Orientalism में की। उन्होंने कहा कि प्राच्यवाद केवल अकादमिक अध्ययन नहीं है, बल्कि यह एक औपनिवेशिक हथियार है, जिससे पश्चिम ने पूर्व की नकारात्मक छवि बनाई ताकि वह अपने वर्चस्व को उचित ठहरा सके। सईद के अनुसार, प्राच्यवाद में पूर्व को ‘अन्य’ (The Other) के रूप में देखा जाता है—एक ऐसा क्षेत्र जो पश्चिम के विपरीत और हीन होता है।

इस प्रकार, प्राच्यवाद केवल एक शैक्षणिक अध्ययन नहीं, बल्कि शक्ति, राजनीति और सांस्कृतिक दमन का माध्यम भी है। यह विचार आज भी उपनिवेशवाद के प्रभावों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण माना जाता है।

इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में इसे निम्नलिखित रूप में समझा जा सकता है :

  • प्राच्यवाद का अर्थ है “पूर्व का अध्ययन” — जैसे भारत, चीन, जापान, अरब आदि।
  • यह शब्द अंग्रेज़ी “Orientalism” का हिंदी रूप है।
  • यह मुख्यतः पश्चिमी विद्वानों द्वारा पूर्वी सभ्यताओं के अध्ययन की प्रवृत्ति है।
  • इसमें भाषाएं, धर्म, संस्कृति, कला, साहित्य और इतिहास शामिल होते हैं।
  • प्राच्यवाद 18वीं और 19वीं शताब्दी में यूरोप में उभरा।
  • यह उपनिवेशवाद के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है।
  • इसमें पूर्व को रहस्यमयी, पारंपरिक और अति धार्मिक बताया गया।
  • पश्चिम को आधुनिक, तर्कसंगत और श्रेष्ठ दिखाया गया।
  • इस दृष्टिकोण में पूर्व को “अलग” और “हीन” समझा गया।
  • यह दृष्टिकोण अक्सर पक्षपातपूर्ण और नस्लीय था।
  • एडवर्ड सईद ने 1978 में अपनी पुस्तक Orientalism में इसकी आलोचना की।
  • सईद के अनुसार, प्राच्यवाद पश्चिमी सत्ता और नियंत्रण का औजार था।
  • प्राच्यवाद एक सांस्कृतिक कल्पना है, वास्तविकता नहीं।
  • इसमें पश्चिम ने पूर्व की पहचान अपने नजरिए से गढ़ी।
  • यह उपनिवेशों पर वर्चस्व स्थापित करने का माध्यम बना।
  • इससे पूर्वी समाजों की छवि विकृत हुई।
  • भारत में भी अंग्रेज़ों ने इसी नजरिए से संस्कृति और इतिहास का अध्ययन किया।
  • प्राच्यवाद आज भी फिल्मों, किताबों और मीडिया में देखा जा सकता है।
  • यह पश्चिमी श्रेष्ठता और पूर्व की “पिछड़ेपन” की कहानी को मजबूत करता है।
  • समकालीन सोच में प्राच्यवाद की आलोचना कर उसे समझना जरूरी है।

प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

प्रश्न 1. प्राच्यवाद क्या है?

उत्तर: प्राच्यवाद वह विचारधारा या अध्ययन प्रवृत्ति है जिसमें पश्चिमी देशों ने पूर्वी देशों (जैसे भारत, चीन, अरब आदि) की सभ्यता, संस्कृति, धर्म और इतिहास का अध्ययन अपने दृष्टिकोण से किया, जिसमें अक्सर पूर्व को रहस्यमयी, पिछड़ा या हीन बताया गया।

प्रश्न 2. प्राच्यवाद की आलोचना किसने की और क्यों?

उत्तर:प्रसिद्ध लेखक एडवर्ड सईद ने 1978 में अपनी पुस्तक Orientalism में इसकी आलोचना की। उन्होंने कहा कि प्राच्यवाद एक राजनीतिक औजार है जिससे पश्चिम ने पूर्व को “अन्य” और “निम्न” दिखाकर औपनिवेशिक शासन को न्यायसंगत ठहराया।

प्रश्न 3. प्राच्यवाद और उपनिवेशवाद में क्या संबंध है?

उत्तर : प्राच्यवाद उपनिवेशवाद को वैचारिक समर्थन देता था। पश्चिमी शक्तियाँ पहले पूर्व का अध्ययन करती थीं, फिर उसे “कमजोर” और “असंगठित” बताकर उस पर शासन करना उचित ठहराती थीं।

प्रश्न 4. क्या प्राच्यवाद केवल नकारात्मक होता है?

उत्तर : नहीं, सभी प्राच्य अध्ययन नकारात्मक नहीं थे। कई विद्वानों ने गहराई से पूर्व की भाषाओं और ज्ञान परंपराओं का अध्ययन किया। लेकिन समग्र रूप में, इसका ढांचा पश्चिमी श्रेष्ठता की भावना से प्रभावित रहा।

प्रश्न 5. आज के समय में प्राच्यवाद क्यों प्रासंगिक है?

उत्तर : आज भी पश्चिमी मीडिया, शिक्षा और राजनीति में पूर्व की छवि कई बार पूर्वाग्रह से भरी होती है। इसलिए प्राच्यवाद को समझना जरूरी है ताकि सांस्कृतिक स्टीरियोटाइप और भेदभाव को चुनौती दी जा सके।

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