आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आने अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ ग्रंथ में हिंदी साहित्य के उत्तर मध्यकाल (1700 वि.सं. से 1900 वि.सं.) को रीतिकाल नाम दिया है ।
नामकरण की दृष्टि से हिंदी साहित्य का रीतिकाल मतभेदों, विवादों और विभिन्नताओं का काल है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र और डॉ. श्यामसुंदर दास जैसे विद्वानों ने श्रृंगार की प्रधानता के आधार पर इसे ‘श्रृंगार काल’ कहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का मत यह भी है कि “रीतिकाल को श्रृंगार काल भी कह सकते हैं।”
मिश्रबंधुओं ने इसे ‘अलंकार काल’ की संज्ञा दी है। डॉ. रमाशंकर शुक्ल रसाल ने रीतिकाल को ‘कलाकाल’ कहा है। हिंदी के सुप्रसिद्ध इतिहासकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी-साहित्य के उत्तर मध्यकाल के लिए ‘रीतिकाल’ नामकरण किया है, जो सर्वाधिक उपयुक्त नामकरण है।
शुक्ल जी की मान्यता है कि “अपने आश्रयदाताओं की रुचि के कारण रीतिकालीन काव्य का उदय हुआ।” लक्षण-ग्रंथों की प्रधानता, कवि तथा आचार्य बनने की प्रवृत्ति, श्रृंगारिकता, आलंकारिकता, नारी के प्रति भोगवादी एवं सामंती दृष्टिकोण, प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण, आश्रयदाताओं की प्रशंसा, भक्ति-नीति और वैराग्य का चित्रण, वीर-रस से ओतप्रोत रचनाएँ, भाषा-ब्रजभाषा, मुक्तक शैली की प्रधानता, श्रृंगार रस प्रधान काव्य इत्यादि रीतिकाल की मुख्य विशेषताएँ
रीतिकाल का वर्गीकरण
रीतिकाल में 3 प्रकार के काव्यों का सृजन हुआ 1. रीतिबद्ध, 2. रीतिसिद्ध और 3. रीतिमुक्त काव्य।
रीतिबद्ध काव्य
रीतिबद्ध काव्य अर्थात् रीति (लक्षण) के बंधन से बँधा हुआ काव्य या साहित्य। रीतिबद्ध काव्य का तात्पर्य लक्षण ग्रंथ से है; अर्थात् काव्यांगों का लक्षण देकर उनके उदाहरण स्वरूप रचित काव्य रीतिबद्ध काव्य है। रीतिबद्ध कवियों में केशवदास, कृपाराम, देव, चिंतामणि, कुलपति, भिखारीदास, मतिराम, जसवंत सिंह
इत्यादि मुख्य हैं। शुक्ल जी ने हिंदी रीति-ग्रंथों की अखंड परंपरा चिंतामणि त्रिपाठी से माना है। वे चिंतामणि को प्रथम आचार्य मानते हैं।
रीतिसिद्ध काव्य
रीतिसिद्ध काव्यधारा का अभिप्राय ऐसे काव्य से है, जिसमें लक्षण-ग्रंथ का आधार तो नहीं अपनाया गया परंतु इसमें लक्षण-ग्रंथों का प्रभाव स्पष्ट है।
दूसरे शब्दों, में वह काव्य जो लक्षण ग्रंथ नहीं है किन्तु लक्षण के प्रभाव पर रचित है, रीतिसिद्ध काव्य है। रीतिसिद्ध कवियों में बिहारीलाल सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। अन्य कवियों में रामसहाय, विक्रमसाहि, वृन्द, रसनिधि, रामकवि, सेनापति, नृपशंभू, हठीजी, पजनेस इत्यादि मुख्य है।
रीतिमुक्त काव्य
रीतिमुक्त काव्य वह है, जिसमें कवियों ने लक्षण-ग्रंथ न लिखकर स्वच्छंद-रीति से काव्यों की रचनाएँ कीं।
रीतिमुक्त का अर्थ ही है-रीति अर्थात् बाह्य बंधनों से मुक्त काव्य। इसे ‘स्वच्छंदतावादी काव्य’ भी कहते हैं।
दूसरे शब्दों, में कहा जा सकता है कि ‘रीतिमुक्त काव्य से अभिप्राय ऐसे काव्य से है, जो सभी प्रकार के रीति बंधनों से मुक्त होकर स्वच्छंद आधार पर रचित है और जिसमें हृदय पक्ष की प्रधानता है।
रीतिमुक्त कवियों में घनानंद सर्वोपरि हैं। रीतिमुक्त अन्य कवियों में आलम, बोधा, ठाकुर, द्विजदेव इत्यादि उल्लेखनीय हैं।
रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ एवं विशेषताएँ
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियों और विशेषताओं का अध्ययन हम निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर कर सकते हैं :
रीति-निरूपण
रीतिकालीन कवियों ने ‘रीति’ शब्द को ‘विशिष्ट पद-रचना पद्धति’ और परिपाटी के अर्थ में संस्कृत काव्यशास्त्र से ग्रहण किया है। वे महज दरबारी कवि होने के नाते दरबारी दायित्व का निर्वाह नहीं कर रहे थे। वे कवि-शिक्षक-आचार्य भी थे। इसीलिए कवि-शिक्षक आचार्य के दायित्व का निर्वहन करते हुए उन्होंने संस्कृत के काव्यशास्त्र को सहज और सरल बनाकर हिन्दी के काव्यशास्त्र का निर्माण किया है और कवियों की आने वाली पीढ़ी को काव्यशास्त्र की जानकारी और कविता करने की विधि बतलाने की कोशिश की है।
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इसके लिए वे लक्षण-उदाहरण-व्याख्या शैली को अपनाते हैं। इस क्रम में उन्होंने कभी एक ही छन्द में लक्षण और उदाहरण को प्रस्तुत किया है, तो कभी भिन्न-भिन्न छंदों में।
इनके रीति-निरूपण पर भी दरबारी संस्कृति का प्रभाव दिखता है। ये केवल उन काव्यांगों के विवेचन में अपनी रूचि प्रदर्शित करते हैं जो उक्ति-वैचित्र्य और शब्द-चमत्कार में सहायक थे। इस क्रम में जसवंत सिंह, याकूब खाँ, और दूलह जैसे कवियों ने रीतिकर्म को प्राथमिकता दी है। इन्होंने काव्यांगों के लक्षण भी गिनाए हैं और उसके उदाहरणों की रचना भी खुद की है।
बिहारी इस दौर के एकमात्र रीतिवादी कवि हैं जो काव्यशास्त्र के प्रति बँधे हुए दृष्टिकोण के बावजूद केवल कविकर्म में रूचि दिखाते हैं।
रीतिनिरूपक आचार्यों में देव, चिंतामणि और कुलपति ने जहाँ सभी काव्यांगों के निरूपण के प्रति अपनी रूचि प्रदर्शित की है, वहीं देव और याकूब खाँ ने काव्यांग विशेष पर आधारित लक्षण ग्रंथों की रचना की है।
यद्यपि ये रीति निरूपक आचार्य कवि-शिक्षक आचार्य के दायित्व का निर्वाह कर रहे थे, लेकिन अर्थोपार्जन इनकी सर्वोच्च प्राथमिकता थी। इसके लिए इन्होंने अपने काव्यशास्त्रीय ज्ञान का से प्रभावित करके अपने संरक्षक राजाओं एवं सामंतों को प्रसन्न कर पुरस्कार प्राप्त करना चाहा। इसीलिए इनमें रीति निरूपण के प्रति प्रतिबद्धता का अभाव है और मौलिकता का भी।
ये काव्यांगों की परिभाषा कुछ देते हैं और उदाहरण के रूप में कुछ और प्रस्तुत करते है। इसीलिए लक्षण एवं उदाहरण के बीच यह असंगति इनके लक्षण ग्रंथों को संस्कृत काव्यशास्त्र का अनुवाद भी नहीं बनने देती।
काव्यशास्त्रीय विवेचन के लिए भी इन्होंने सभी काव्यांगों को नहीं चुना है। रीति वक्रोक्ति और औचित्य की उपेक्षा करते हुए ये रस, अलंकार और धानि-विवेचन को प्राथमिकता देते है। इसका कारण यह कि ये काव्यांग उक्ति-वैचित्र्य एवं शब्द चमत्कार में सहायक है। फिर भी हिन्दी काव्यशास्त्र का निर्माण इनकी उपलब्धि है।
यह रीति-निरूपण की प्रवृति ही है जिसकी पृष्ठभूमि में रीतिकालीन कविता की विभिन्न प्रवृत्तियाँ आकार ग्रहण करती हैं। रीतिकाल के पहले तक अभिधात्मक शैली में लिखी गई कविता को उत्तम माना जाता था। लाक्षणिक शैली में लिखी गई कविता औसत मानी जाती थी और व्यंजनात्मक शैली की कविता निम्न कोटि की मानी जाती थी। कारण यह था कि लक्षणा और व्यंजना साधारणीकरण और रस की निष्पति में अवरोध उत्पन्न करती थी, लेकिन रीतिकालीन कवि इस अवधारणा को उलट देते हैं।
देव लिखते हैं-
अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन।
अधम व्यंजना रस-विरस, उल्टी कहत नवीन।
रीति निरूपण के क्रम में ये आचार्य नायिका-भेद की ओर बढ़ जाते हैं। पति-प्रेम के आधार पर नायिका का वर्गीकरण दो श्रेणियों में किया गया है ज्येष्ठा (जिसके प्रति नायक विशेष रूप से अनुरक्त हो) और कनिष्ठा (अन्य पत्नियाँ जिससे नायक उतना प्रेम नहीं करता)।
आचार्य तोष ने इसी दिशा में संकेत करते हुए लिखा है-
‘पिय को जिय जासो रमै, सोई ज्येष्ठा होय’
आनि कनिष्ठा जानियै, कहै सयाने लोई।
इसी प्रकार रीति-निरूपक आचार्य अलंकार-विवेचन की ओर भी उन्मुख होते हैं। रसिक गोविन्द लिखते हैं :
‘उपमेय कौं जहाँ साधारण धर्म करिकैं अरू उपमान की सादृश्य कीजै, सो उपमा,
जाकी सदृश्यता दीजै, सो उपमान। जाकौं सदृश्यता दीजै सो उपमेय।
दोऊ ओर की सादृश्यता दिखावै, सो वाचक पद।
दोउनि की लक्षमी (लक्ष्य) की जो सादृश्यता, सो साधारण धर्म।
ये चारयौ जहाँ होई, सोई पूर्णोपमा।
इनमें तै इक बिना, द्वै बिना, तीन बिना होई, सोई लुप्तोपमा।’
यहाँ पर उपमा अलंकार की परिभाषा देते हुए यह बतलाया जा रहा है कि जहाँ उपमेय के साधारण धर्म का संकेत देते हुए उपमान के साथ उसके सादृश्य की स्थापना की जाए, वहाँ उपमा अलंकार होता है।
जिसकी तुलना की जाए, उसे उपमेय कहते हैं और जिससे तुलना की जाती है, उसे उपमान कहते है।
जो शब्द उपमेय और उपमान में सादृश्य की स्थापना करते हैं, उसे सादृश्य-सूचक शब्द कहते है।
जिन गुणों के संदर्भ में सादृश्य की स्थापना की जाती है, उसे साधारण धर्म कहते है।
जहाँ पर ये चारों तत्व मौजूद हैं, वहाँ पूर्णोपमा अलंकार होगा, और जहाँ इनमें से किसी का लोप होगा, वहाँ लुप्तोपमा अलंकार होगा।
इसी प्रकार सुरति मिश्र ने एक ही दोहे में लक्षण एवं उदाहरण प्रस्तुत करते हुए असंगति अलंकार को परिभाषित किया है:
‘सो असँगति, कारन अवर, कारज औरे थान।
चलि अहि श्रुति आनहिं डसत, नसत और के प्रान।
अर्थात् जहाँ कारण और कार्य में असंगति/विरोधाभास हो, कारण कुछ हो और संपादित कार्य भिन्न हो. वहाँ असंगति अलंकार होता है। यहाँ पर पहली पंक्ति में असंगति अलंकार की परिभाषा दी गई है और दूसरी पंक्ति में श्रुति-परंपरा का हवाला दिया गया है जहाँ साँप डँसता किसी को हो और प्राण किसी और का जाता है।
श्रृंगारिकता
श्रृंगारिकता रीतिकाल की प्रमुख प्रवृति है और यह रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध एवं रीतिमुक्त तीनों ही रचनाकारों के यहाँ मिलती है।
इन रचनाकारों ने अपनी श्रृंगारिक रचनाओं के जरिए अपने संरक्षक राजा एवं सामंतों का मनोरंजन कर उनसे पुरस्कार हासिल करना चाहा। श्रृंगार-चित्रण इनकी पहली प्राथमिकता नहीं है और न ही इसका प्रेरक इनकी रति-भावना है।
दरअसल इनकी श्रृंगारिक चेतना आरोपित श्रृंगारिक चेतना थी और इसका प्रेरक इनके संरक्षको का रति-भाव था। निश्चय ही इन्होंने अर्थ-लाभ की कामना में श्रृंगार चित्रण किया है और इनके श्रृंगार-चित्रण पर दरबारी संस्कृति का प्रभाव स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है।
बिहारी के श्रृंगार-चित्रण की शक्ति एवं सीमा की दिशा में संकेत करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है – हाथी दाँत के टुकड़े पर महीन बेल-बूटे देखकर जो घंटों वाह-वाह किया करते थे, बिहारी की कारीगरी को उनके पक्ष में समझना चाहिए, न कि उनके पक्ष में जो प्रेम में हृदय की आंतरिकता का विकास चाहते हैं।
बिहारी में बारीक शब्द-सज्जा है, काव्यांगो का चित्रण है; लेकिन हृदय की आंतरिकता का अभाव है।
शुक्लजी के विश्लेषण से स्पष्ट है कि बिहारी के श्रृंगार-चित्रण में बाह्य जगत की प्रमुखता है, न कि आंतरिक जगत की। उनके यहाँ प्रेम का सहज एवं स्वाभाविक विकास नहीं होता है। इसके कारण इनकी रचनाओं में प्रेमी-प्रेमिका का स्वंतत्र व्यक्तित्व उभरकर सामने नहीं आ पाता।
दरबारी संस्कृति एवं सामंती मूल्यों के प्रभाव के कारण ही ये जितना ध्यान हाव-भाव, रूप-सज्जा, वस्त्र-विन्यास या छेड़-छाड़ पर देते हैं, उतना प्रेम के सहज-स्वाभाविक चित्रण पर नहीं।
इन पर सामंती मूल्य दृष्टि का प्रभाव है और इस प्रभाव के कारण ही नारी इनके लिए भोग्या है। इनका प्रेम विशेषोन्मुख होने के बजाए अनेकोन्मुख है और इसके मूल में है भोग और विलास।
अपने संरक्षकों की काम-पिपासा बुझाने के लिऐ ये श्रृंगार-चित्रण की ओर उन्मुख होते हैं। इसलिए इन्हें नारी-विशेष से प्रेम नहीं है वरन् नारी मात्र इन्हें काम्य है। वह काम वासना की तृप्ति का महज एक साधन है।
स्पष्ट है कि इन्हीं कारणों से इनकी रचना में प्रेम की भोगवादी दृष्टि उभरकर सामने आती है। इसलिए वियोग की तुलना में संयोग में इनका मन कहीं अधिक रमा है। इस क्रम में इन्होंने नेत्र-व्यापार का विस्तार से वर्णन किया है
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजिआत।
भरे भींन में करत है, नैननु ही सो बात।
यह दोहा संयोग श्रृंगार का उदाहरण है। यहाँ कवि की दृष्टि प्रेम-चित्रण से कहीं अधिक वाक्य-विन्यास पर है। पहली पंक्ति में ही कवि ने सात क्रिया-पदों के सहारे सात वाक्यों के अर्थ को संप्रेषित किया है।
इस पंक्तियों में प्रेम में नेत्र-व्यापार की भूमिका का वर्णन किया गया है। नायक और नायिका सभा भवन में अपने गुरूजनों एवं परिजनों के बीच घिरे हैं। अत्यंत चतुरता से आँखों-ही-आँखों में ये अपने हृदय के भावों को एक-दूसरे से प्रकट करते हैं।
सौन्दयर्योत्सव में शामिल हो चुकी और रूप-रस का पान कर चुकी आँखे नायक-नायिका को विकल करती हैं और सभा के शिष्टाचार के भीतर ही संयोग क्रीड़ा के अवसर ढूँढ़ लेती हैं।
यह अभाषिक मौन-संभाषण का उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें बिहारी के नायक-नायिका का कोई जोर नहीं है।
नायक-नायिका से रति की इच्छा प्रकट करता है।
‘मन में भावे, मूरी हिलावे’ की तर्ज पर नायिका इसका निषेध करती है। निषेध करने की नायिका की इस चेष्टा पर नायक रिझता है और नायिका खीझ के जरिए इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। फिर दोनों की आँखे मिलती है और वे मेल करते हैं। नायक नायिका द्वारा खीझ छोड़ देने पर हँस देता है और नायिका उसके हँस देने पर लज्जित होती है।
यहाँ नायक और नायिका की आँखों का मिलना एवं चेहरे का खिलना रति प्रस्ताव की स्वीकृति का संकेतक है।
वे फिर गुरूजनों के बीच घिरे होने के भाव से इस आशय के साथ लजा जाते हैं कि कहीं इसका पता गुरूजनों को न चल जाए।
बिहारी के बारे में कहा जाता है कि उनकी रचनाएँ गागर में सागर हैं और उपर्युक्त दोहा इसका उदाहरण है। इसमें कल्पना की समाहार-शक्ति एवं भाषा की समास-शक्ति का बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत किया गया हैl
रीतिबद्ध एवं रीतिसिद्ध कवियों के श्रृंगार-चित्रण की प्रमुख विशेषता है नायिकाभेद वर्णन एवं नख-शिख वर्णन ।
नायिकाभेद वर्णन के अंर्तगत विभिन्न प्रकार की नायिकाओं के गुण, अवस्था, चेष्टा कर्म एवं मनः स्थिति का वर्णन किया गया है।
नख-शिख वर्णन में कवियों ने परंपरागत ढंग से नायिका के शरीर के विभिन्न अंगों के स्थूल सौंदर्य का वर्णन किया है।
यह नख-शिख वर्णन बिहारी के यहाँ भी है। उन्होंने वैसे तो नायिका के हर अंग पर चमत्कारिक टिप्पणियाँ की हैं, पर उनका ध्यान आमतौर पर उन अंगों पर केंद्रित रहा है जो कामोद्रेक में सहायक हैं- नेत्र, स्तन एवं नितंब ।
बिहारी ने यौवन एवं प्रेम के साथ संबंध निरूपित करते हुए प्रेम में विभिन्न अंगों की सहभागिता का संकेत दिया है:
अपने अंग के जानि के, जोबन नृपति प्रवीन।
स्तन, मन, नैन, नितंब की बड़ौ इजाफा कीन।
नायक नवयौवना मुग्धा के शरीर और उत्साह में वृद्धि देखकर कहता है कि यौवन रूपी प्रवीण नृपति ने नायिका को अपने पक्ष का समझकर उसके स्तन, मन, नयन और नितंबों का इजाफा कर दिया।
रीति-कवियों के साथ समस्या यह रही है कि इन्होंने प्रेम के चित्रण में संयम से काम नहीं लिया है। इनके नायक हर समय मौके की ताक में रहते हैं और जहाँ कहीं भी इन्हें मौका मिलता है, ये अपनी यौनेच्छा को अभिव्यक्ति देने से पीछे नहीं रहते।
इसलिए कई जगहों पर इनका प्रेम-चित्रण श्लीलता की सीमाओं को अतिक्रमित करता हुआ अश्लील हो जाता है।
रीतिकालीन कवियों के नायकों की यौन-पिपासा कभी शांत नहीं होती। इनके नायक का मन रात की रति से तृप्त नहीं होता। वह दिन में भी घात लगाए रहता है कि कब मौका मिले।
मतिराम ने एक ऐसे ही चित्र को प्रस्तुत किया :
केलि कै राति अघाने नहीं, दिन ही में लला पुनि घात लगाई,
प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयो, भीतर बैठि कै बात सुनाई।
जेठी पढ़ाई गई दुलही, हँसि हरि हरें मतिराम बुलाई।
कान्ह के बोल पे कान न दीन्हीं, सुगेह की देहरि पै धरि आई।
रीति कवि के यहाँ नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व को नए सिरे से खारिज किया गया है। रीतिकवियों का प्रेम पुरूष-विशेष का नारी-विशेष से प्रेम नहीं है, वरन् नारी मात्र का प्रेम है जिसकी अभिव्यक्ति देव के यहाँ हुई है:
कौन गने पुर वन नगर, कामिनी एकै रीति।
देखत हरै विवेक कों, चित्त हरै करि प्रीति।
अर्थात् स्त्री कहीं भी हो, एक ही जैसी होती है। यहाँ नारी कोई व्यक्ति या समाज के संगठन की इकाई नहीं है, बल्कि सभी प्रकार की विवशताओं के बंधन से मुक्त-विलास मात्र का उपकरण है।
जहाँ तक वियोग श्रृंगार का प्रश्न है, तो रीतिकालीन कवियों के लिए वियोग काम्य नहीं। इसलिए वियोग वर्णन में इनका मन नहीं रमा है। जहाँ भी वियोग-वर्णन के चित्र मिलते हैं, उनमें वियोग-वर्णन की सहजता, स्वाभाविकता एवं हृदयस्पर्शिता का अभाव है।
इन्होंने विरह-वर्णन में ऊहात्मकता का सहारा लिया है। इस कारण इनके विरह-वर्णन में न केवल गंभीरता का अभाव है वरन् यह हास्यास्पद स्थिति तक पहुँच जाता है।
बिहारी ने पति की अनुपस्थिति में पत्नी पर पड़ने वाले विरह के प्रभावों की व्यंजना करते हुए लिखा है:
इत आवति चलि जाति, उत चली छ सातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरे-सी रहे, लगी उसासन साथ।
अर्थात् बिछावन पर लेटी नायिका पति के विरह में इतनी दुबली हो गई है कि जब वह साँस लेती है, तो छः-सात हाथ ऊपर चली जाती है और जब साँस छोड़ती है, तो छः-सात हाथ नीचे चली जाती हैं; मानो नायिका बिछावन पर सोई नहीं हो वरन् झूले पर झूला झूल रही हो।
रीति कवियों ने न केवल नायिका के हाव-भाव के वर्णन पर ध्यान केंद्रित किया है वरन् वियोग श्रृंगार के वर्णन में ऋतु-वर्णन एवं बारहमासा का सहारा भी लिया है ।
स्पष्ट है कि रीतिबद्ध एवं रीतिसिद्ध कवियों के वर्णन में कुछ समानतायें दृष्टिगोचर होती हैं। यह श्रृंगार-चित्रण इन रचनाकारों की अपनी रति-भावना का परिचायक नहीं हैं, वरन् इनकी रचनाएँ इनके संरक्षक राजाओं एवं संरक्षक सामंतों के कामोद्दीपन में सहायक बनकर उनके लिए मानसिक विलास की खुराक का काम करती हैं।
दूसरी बात यह है कि यह काम-भावना के दमन से उत्पन्न मानसिक ग्रंथियाँ न होकर शरीर-सुख की वह साधना है जिसमें व्यक्ति की दृष्टि विलास के उपकरणों को जुटाने पर टिकी रहती है।
इन रचनाकारों को संयोग के अश्लील एवं नग्न चित्रों को और नायक की धृष्टताओं के विभिन्न रूपों को चित्रित करते हुए किसी प्रकार का संकोच नहीं होता।
तीसरा, उनकी रचनाओं में नारी का भोग्या-रूप सामने आया है और सामंती मूल्य दृष्टि के प्रभाव के कारण ‘गार्हस्थ्य प्रेम की एकनिष्ठता की जगह बहुनिष्ठता और अनेकोन्मुखता’ ने ले लिया है।
चौथा, इस युग के पुरूषों की दृष्टि भोगवादी रही।
पांचवा, रीतिकाल हिंदी साहित्य का एकमात्र ऐसा कालखंड है जिसके रचनाकारों की दृष्टि नारी की एकमात्र प्रेयसी रूप और प्रेयसी की तुलना में भोग्या कहना ज्यादा उचित है, रूप पर केंद्रित रही है। पूरे रीति-काव्य में नारी कहीं भी माँ, बहन या बेटी के रूप में चित्रित नहीं हुई है।
भक्ति काव्य
रीतिकाल में आकर भक्ति का स्थान रीति-निरूपण ने ले लिया, लेकिन एक गौण प्रवृति के रूप में भक्ति की उपस्थिति बनी रही।
रीतिकालीन भक्ति पर भी श्रृंगारिकता का असर था। कृष्ण-भक्ति काव्य की श्रृंगार प्रबलता और उसके प्रति बढ़ते जनता के आकर्षण ने रीतिकाल में आकर भक्तिकाल की अन्य धाराओं पर भी अपना असर दिखाया और भक्ति की पूरी की पूरी धारा ही रीतिकाल में माधुर्योपासना की ओर मुड़ गई प्रतीत होती है।
इसके परिणामस्वरूप रीतिकाल में आकर भक्ति-साधना में भाव की सघनता एवं तीव्रता का प्रायः अभाव पाया जाता है। इसीलिए यहाँ भक्ति तत्कालीन जनजीवन की परंपरागत आस्थाओं एवं विश्वासों को अभिव्यक्ति करने का साधन मात्र प्रतीत होती है। यहाँ भक्ति की औपचारिकता का निर्वाह मात्र है।
रीतिकालीन श्रृंगारिकता और कृष्णभक्ति काव्यधारा की बढ़ती लोकप्रियता के दबाव में आकर रीतिकाल में माधुर्योपासना का रामभक्ति शाखा में प्रवेश हुआ। इसने तुलसी द्वारा स्थापित मर्यादा को छिन्न-भिन्न करते हुए भक्ति को रूमानियत एवं श्रृंगारिकता की ओर मोड़ा।
इनके राम अपनी प्रिया सीता के साथ साकेत में विहार करते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में राम और सीता के लोकरंजक रूप और श्रृंगारिक लीलाओं का वर्णन किया है।
रामचरण दास ने स्वसुखी संप्रदाय और आगे चलकर जीवराम जी ने तत्सुखी संप्रदाय की स्थापना की और अपने को राम की सखी मानते हुए स्त्रीरूप में राम की उपासना की है।
उन्होंने राम के मर्यादा पुरूषोत्तम रूप को भुलाते हुए राम के प्रेमी रूप को चित्रित किया। इन्होंने न केवल स्त्रीवेश धारण किया, वरन् स्त्रीवाचक नाम को भी अपनाया। जानकी चरण दास एवं बना दासजी भी इसी परंपरा से जुड़े थे।
रीवा के महाराज की मदद से युगाल नामी जी ने चित्रकूट में वृंदावन की तर्ज पर ‘प्रमोद वन’ को सजाया और उसमें राम-सीता के अभिसार स्थल का निर्माण करवाया।
कृष्णभक्ति काव्यधारा तो पहले से ही माधुर्योपासना की ओर उन्मुख थी। रीतिकाल में आकर कृष्ण और राधा का श्रृंगारिक रूप प्रधान हो गया, बालरूप पीछे छूट गया, अब राधा और कृष्ण सामान्य नहीं रह गए. बल्कि राजसी ऐश्वर्य से जुड़कर विशिष्ट बन गए।
अधिकांश रीतिकालीन कवियों ने राधा-कृष्ण को नायक-नायिका मानकर अपनी रचना में प्रस्तुत किया है। इन के लिए भक्ति एक बहाना है। मुख्य उद्देश्य है रूप-शोभा वर्णन एवं सौंदर्य चमत्कार।
इनकी भक्ति की असलीयत की पोल भिखारीदास का यह दोहा खोलता है-
आगे के सुकवि रीझिहैं, तो कविताई, न तो
राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो हौं।
और यहीं कारण है कि इनकी रचना में राधा-कृष्ण का प्रेम कब नायक-नायिका के लौकिक प्रेम में रूपांतरित हो जाता है, पता ही नहीं चलता।
कहीं-कहीं भक्ति इनके लिए सरल भावभूमि भी है जहाँ ये विषय-वासना से आहत मन को सकून देना चाहते है:
तजि तीरथ हरि राधिका, तन दुतिकर अनुराग।
जेहि ब्रज केलि निकुंज मग, पग-पग होतु प्रयागु।
लेकिन इस दौड़ में ब्रजवासी दास, नागरीदास, बिहारी आदि की कविताओं में वास्तविक भक्ति की झलक भर पायी जा सकती है।
जहाँ तक संत काव्यधारा का प्रश्न है, तो यारी साहब, पलटू साहब, चरण दास, सहजोबाई आदि ने कबीर, रैदास, दादु आदि संत कवियों की परंपरा को आगे बढ़ाया।
इस काल की मुख्य विशिष्टता थी संत काव्यधारा से जुड़े नए संप्रदायों का उदय। प्रायः हर प्रभावशाली संत ने अपनी विचारधारा के प्रचार के लिए नए संप्रदाय स्थापित किए, यद्यपि इन संप्रदाय के मूल तत्वों में समानता थी।
इसी प्रकार रीतिकाल में प्रेमाख्यानक काव्य को आगे बढ़ाने का श्रेय शेख निसार, नूर मोहम्मद, कासिम साहब, हुसैन अली को जाता है। रीतिकालीन प्रेमाख्यानक काव्यों पर भी युगीन परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा। इनकी रचना में भी नख-शिख वर्णन और संयोग-वियोग श्रृंगार का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इन रचनाकारों ने नायिकाभेद को ध्यान में रखते हुए नायिकाओं के विभिन्न रूप को प्रस्तुत किया।
यहाँ तक कि ‘अनुराग बाँसुरी’ नामक सूफी काव्य में नायिकाओं की परिभाषाएँ दी गई।
इस दौर में नजीर अकबरवादी जैसे सूफी कवि भी हुए जिन्होंने पूरे मनोयोग से कृष्ण लीला का वर्णन किया।
इस दौर के प्रेमाख्यानक काव्य में सूफियानी प्रवृति अधिक उभरी। कासिम शाह का ‘हंस जवाहर’, शेख निसार का ‘युसुफ जुलेखा’ नूर मोहम्मद का ‘इन्द्रावती’ इस दौर की प्रमुख रचनायें है।
स्पष्ट है कि ये धाराएँ भक्त कवियों की धाराओं की तरह गरिमा मंडित एवं उदात्त भले ही न हो, फिर भी युगीन आस्थाओं एवं सामाजिक प्रेम के प्रभाव को दर्शाने वाली काव्यधारा के रूप में इन धाराओं का अपना अलग महत्व है।
वीर काव्य
आदिकालीन वीरगाथात्मकता की प्रवृत्ति का रीतिकाल में आकर एक बार फिर उद्धार होता है। उस दौर की वीर रस से संबंधित रचनायें गौण प्रवृत्तियों में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
अभिव्यंजना शैली की दृष्टि से ये रचनाएँ आदिकालीन चरित्रप्रधान प्रबंधात्मक वीर काव्यों का अनुकरण प्रतीत होती हैं। जहाँ आदिकाल में केवल प्रबंधात्मक वीर काव्य लिखे गए, वहीं रीतिकाल में वीर रस से संबंधित रचनाएं प्रबंध एवं मुक्तक दोनों ही काव्य-रूपों में उपलब्ध हैं।
प्रबंध काव्यों की संख्या अपेक्षाकृत कम है और मुक्तकों में मिलने वाला वीर काव्य अधिक उत्कृष्ट है। इस युग के प्रबंध वीर काव्य है लाल कवि का ‘छत्र प्रकाश’, पद्माकर का ‘हिम्मत बहादुर’, जोधराज का ‘हम्मीर रासो’ आदि। मुक्तक रचनाकारों में भूषण और बाकी दास प्रमुख है।
आदिकाल के वीर काव्य सहज और विश्वसनीय है, जबकि रीतिकाल के वीर काव्यों में अतिशयोक्ति की अधिकता के कारण स्फूर्ति एवं ताजगी का अभाव है।
रीतिकालीन दरबारी कवियों में भूषण सरीखे एक-दो कवियों को छोड़कर कोई ऐसा नहीं है जो राजाओं एवं योद्धाओं के साथ युद्ध-क्षेत्र में उतरकर वहाँ के वास्तविक युद्ध-कौशल का प्रामाणिक बखान करे।
कुछ लोगों ने रीतिकालीन वीर काव्य में देशभक्ति की जीवंत एवं ईमानदार भावना को उपस्थित पाया है और उसे जनता के लिए प्रेरणास्पद बताया है। समस्त रीतिकालीन वीर काव्य के बारे में यह उक्ति सही हो या नहीं, लेकिन भूषण इस कसौटी पर सही उतरते हैं।
सोए हुए समाज को जाग्रत करने की जो ताकत भूषण की कविता में है, वह अन्यत्र नहीं। भूषण की रचनायें इस बात का प्रमाण है कि वे उस अखंड सांस्कृतिक राष्ट्रीय चेतना के वाहक रहे हैं जो इस देश में हमेशा से विद्यमान रही हैं, भले ही राजनीतिक संदर्भों में यह अखंड राष्ट्रीय चेतना का रूप न ले पाई हो।
इसीलिए भूषण ने शिवाजी और छत्रसाल का चित्रण भारतीय संस्कृति के आश्रयदाता एवं संरक्षक के रूप में किया है। चूंकि इन दोनों का संघर्ष मुगल सत्ता से था, इसीलिए भूषण की रचनाओं में मिलने वाले हिंदू पुनरूत्थान एवं अस्मिता के भाव को आधार बनाकर उन पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया जाता है।
भूषण ने शिवाजी के पराक्रम एवं उनकी सेना का वर्णन किया है-
भूषण भनत तेरी हिम्मत कहाँ लौ कहौं, किम्मति यहाँ लागि है जाकी भट जोत मैं। ताव दै दै मूछन कंगूरन पै पाँव दै दै, अरि-मुख घाव दै-दै कूदि परें कोट मैं।
इसी प्रकार छत्रसाल की तलवार की प्रशंसा करते हुए भूषण ने लिखा है-
पच्छी परछीने ऐसे परे परछीने बीर, तेरी बरछी ने बर छीने हैं खलन के।
इस दौर में भूषण के अतिरिक्त पद्माकर की वीररस से संबंधित रचनायें भी राष्ट्रीय सांस्कृतिक अस्मिता-बोध से अपना संबंध जोड़ती प्रतीत होती हैं।
कहो साज सजि पकड़ी फिरंगिनि दवाबेंगे।
स्पष्ट है कि इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जनता को अपनी अस्मिता के प्रति सजग किया है और इसकी रक्षा के लिए संघर्ष करने की प्ररेणा दी हैं। आगे चलकर 19वीं सदी में इसी पृष्ठभूमि में नवजागरण का राष्ट्रीय सांस्कृतिक अस्मिताबोध आकार ग्रहण करता है।
नीतिपरक काव्य
अब तक नीति से संबंधित रचनायें स्वतंत्र रूप से न लिखी जाकर भक्ति और आध्यात्मिक रचनाओं के अंग के रूप में लिखी जाती थीं।
भक्ति कालीन साहित्य में नीति अधिकांशतः भक्ति का अंग बनकर उभरी, लेकिन रीतिकाल में जीवन-मूल्यों के ह्रास तथा नैतिक मर्यादाओं के विघटन एवं धर्म की श्रृंगारोन्मुखता के कारण आध्यात्मिकता के साथ नीति के संबंध छिन्न-भिन्न हो गए।
रीतिकालीन आध्यात्मिकता से निरपेक्ष रहकर युग की भौतिक एवं मानसिक समस्याओं के समाधान के रूप में नीति का आगमन हुआ। यह सामंती-दरबारी संस्कृति की कोख से पैदा हुई।
रीतिकाल के अधिकांश कवियों का संबंध दरबार से था ।
इसीलिए वे मानव स्वभाव और उसकी मनोवृत्तियाँ के साथ उसके व्यवहार को उचित अनुचित दृष्टि से भली प्रकार आँक सकते थे। स्पष्ट है कि प्रबंधात्मकता और आध्यात्मिकता के आवरण से मुक्त होकर नीति से संबंधित स्वतंत्र रचनायें पहली बार रीतिकाल के दौरान लिखी गई।
रीतिकालीन कवियों ने नीति से संबंधित रचनाओं के जरिए सामान्य जनता को व्यावहारिकता की सीख दी और समाज के सामने कुछ मूल्य उपस्थित करना चाहा।
उदाहरण के तौर पर गिरिधर ने स्वार्थपरक मित्रता की पोल खोलते हुए लोगों को कपटी मित्रों से सावधान रहने की सीख दी है:
साँई सब संसार में, मतलब का व्यवहार
जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताको चार।
इन रचनाकारों की नीतियों पर भी दरबारी संस्कृति का प्रभाव है और अपने संरक्षकों के नाराज हो जाने के भय से ये उनके मुँह पर सच कहने का साहस नहीं दिखा पाते। इसीलिए अपनी बातों को रखने के लिए ये अन्योक्ति का सहारा लेते हैं।
मतलब ये अपनी बातों को प्रत्यक्षतः न रखकर प्रतीकों के माध्यम से परोक्षतः रखते है।
जब बिहारी के सरंक्षक सवाई मिर्जा राजा जय सिंह भोग एवं विलास में डूबे हुए थे और इसे ही जीवन का एकमात्र सत्य मान लिया था, तो बिहारी ने भौरा एवं फूलों के पराग के रूपक के माध्यम में उन्हें सावधान करना चाहा-
नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।
अली कली हीं सों बिंध्यों, आगे कौन हवाल ?
कहा जाता है कि बिहारी के इस दोहे का जय सिंह पर गहरा असर हुआ और उन्होंने एक बार फिर से प्रजा-हित को प्राथमिकता देते हुए राज-काज के कार्यों में रूचि लेना प्रारंभ किया।
बिहारी नीति से संबंधित और रचनाएं भी लेकर आते हैं। उन्होंने लिखा है-
बढ़त बढ़त संपत्ति सलिल, मन सरोज बढ़ जाय।
घटत-घटत पुनि न घटि, बरू समूह कुम्हलाय।
उन्होंने जनता को यह आगाह करना चाहा है कि यदि जीवन रूपी नदी में संपत्ति रूपी बाढ़ आ जाए, तो मन रूपी कमल को नहीं बढ़ने देना चाहिए। कारण कि बाढ़ का पानी कुछ दिन के बाद तो चला जाएगा, लेकिन मन रूपी कमल एक बार बढ़ जाने पर फिर घटता नहीं। उसे असमय कुम्हलाना पड़ता है।
इसके अतिरिक्त रीतिकालीन रचनाकारों ने राजनीति, धर्म, स्वास्थ्य, नैतिकता, कृषि एवं ज्योतिष संबंधित नीतिपरक रचनायें की हैं।
शुक्ल जी ने नीति को कविता का विषय नहीं माना क्योंकि उसका स्वरूप उपदेशपरक है। लेकिन, नीति से संबंधित रचनायें महज उपदेशपरक नहीं है। उनका सामाजिक प्रयोजन भी है और अन्योक्ति-शैली में लिखे जाने के कारण उसमें काव्य-कला भी विद्यमान है। इसीलिए नीति भी उसी प्रकार रचना का विषय हो सकती है जिस प्रकार कोई अन्य विषय।
शिल्पगत वैशिष्ट्य
दरबारी संस्कृति और जरूरतों ने रीतिकालीन कविता की संवेदना ही नहीं, शिल्प, भाषा और अभिव्यंजना शैली के स्वरूप निर्धारण में भी अहम् भूमिका निभाई। यद्यपि इस दौर में प्रबंध और मुक्तक दोनों प्रकार की रचनायें लिखी गई, फिर भी प्रबंध की तुलना में मुक्तक दरबारी आवश्यकताओं के कहीं अधिक करीब था।
इसलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल को मुक्तक काव्य कला के उत्कर्ष के लिए जाना जाता है। इस क्रम में रीतिकालीन रचनाकारों ने यद्यपि दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, कुण्डलियाँ आदि छन्दों को अपनाया, लेकिन दोहा छन्द विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ।
इसी प्रकार दरबारी संस्कृति के बाह्याडम्बर और प्रदर्शनप्रियता का असर रीतिकालीन कवियों की भाषा और अभिव्यंजना शैली पर भी पड़ा।
देव के शब्दों में कहें, तो –
अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा हीन।
अधम व्यंजना रस-विरस, उलटी कहत नवीन ॥
रीतिकालीन कवियों ने अभिधा शैली को कही अधिक महत्व दिया, लेकिन नीति से संबंधित रचनाओं के लिए इन्होंने अन्योक्ति शैली को अपनाया।
रीतिकालीन कवियों का जोर अनुभूति की बजाय अभिव्यक्ति पर है। इनका रूझान उक्ति-वैचित्र्य और शब्द-चमत्कार की ओर है। इसके लिए वे बारीक शब्द-सज्जा लेकर उपस्थित होते हैं।
अलंकारों की ओर तो इनका खास रूझान है। अलंकारों में भी इनका उन अलंकारों पर जोर है जो उक्ति-वैचित्र्य और शब्द-चमत्कार में सहायक है। ये रंग चमत्कार का भी सहारा लेते हैं-
मेरी भवबाधा हरौ, राधा नागरि सोइ।
जा तन की झाँई परै, स्याम हरित धुति होय॥
या अनुरागी चित्त की, गति समुझें नहिं कोय।
ज्यों-ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।
इसी प्रकार श्रृंगार इनका प्रिय रस है फिर भी, ये संश्लिष्ट रसयोजना को लेकर उपस्थित होते हैं-
विहँसति बुलाय बिलोकि उत, प्रौढ़ तिया रस घूमि।
पुलकि पसीजती पूत को, पिय मुख समझि मुहँ चूमि ।।
यहाँ पर प्रौढ़ा नायिका अपने पुत्र के मुख में पति के मुख को प्रक्षेपित करती हुई उसे बार-बार चूम रही है। यह वात्सल्य का श्रृंगार में रूपांतरण है।
इसी प्रकार बिहारी के इस दोहे में भक्ति के श्रृंगार में रूपांतरण को भी सहज ही लक्षित किया जा सकता है-
तजि तीरथ हरि राधिका, तन दुतिकर अनुराग।
जेहि ब्रज केलि निकुंज मग, पग-पग होतु प्रयागु।
रही बात भाषा की, तो रीतिकालीन कवि हिन्दी साहित्य की भाषा को लोकजीवन और लोकसंस्कृति से दूर ले जाकर अभिजात्य स्वरूप प्रदान करते हैं। रीतिकालीन कवियों को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने भाषा को साहित्यिक भाषा के रूप में उत्कर्ष पर पहुंचाते हुए उसे काव्यशास्त्रीय सौन्दर्य और प्रौढ़ क्षमता से लैस करते हुए क्लासिकल टच प्रदान किया।
रीतिकाल में लोकजीवन
रीतिकाल पर यह आक्षेप लगाया जाता है कि इसमें लोकजीवन की उपेक्षा की गई है। यह तथ्यहीन आरोप है क्योंकि वस्तुतः, रीतिकालीन साहित्य में लोकजीवन की अभिव्यक्ति हुई है।
इस संबंध में रीतिमुक्त कवि ठाकुर का काव्य इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। उनका काव्य लोकजीवन के सहज सौंदर्य का अनूठा काव्य है। इनके काव्य में बुंदेलखंड में प्रचलित त्यौहारों के चित्रण में लोकजीवन का जो संस्पर्श मिलता है, वह अद्भुत है। गणगौर, आखातीज, वट सावित्री, होली, झूला इत्यादि के रंग-बिरंगे चित्रों में जहाँ लोकजीवन विहँसता है, वहीं अक्षय तृतीया त्यौहार में हिंदू नारियों का सजीव चित्र मानस चक्षुओं के समक्ष साकार हो उठता है।
निष्कर्ष
कबीर और जायसी से लेकर तुलसी और मीरा तक संतों और भक्तों ने हिन्दी साहित्य को आदिकालीन सामंती मानसिकत्ता एवं परिवेश से बाहर निकालकर लोकजीवन और लोकसंस्कृक्ति से संबद्ध कर दिया, लेकिन सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ तक आते-आते सामंतवाद के पुनरूत्थान ने हिन्दी साहित्य को एक बार फिर से लोक जीवन और लोक संस्कृक्ति से अलगाकर दरबारी जीवन और दरबारी परिवेश तक सीमित कर दिया।
दरबारी संस्कृति के इस दबाव ने सत्रहवीं शताब्दी से लेकर 19 वीं सदी के मध्य तक के साहित्य के स्वरूप के निर्धारण में अहम् भूमिका निभाई।
इस दौर के साहित्य में रीति निरूपण और श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति प्रधान है, जिसका संबंध मुख्य रूप से सामंती जीवन और सामंती परिवेश से है। साथ ही, इससे इतर वीर, भक्ति और नीति से संबंधित रचनाएं भी लिखी गई जिसे लोकजीवन से जोड़कर देखा जा सकता है, लेकिन ये रचनाएँ भी दरबारी संस्कृति और सामंती जीवन-मूल्यों के दबाव से सर्वधा असंपृक्त नहीं रही।
जब हम रीतिकाव्य की पृष्ठभूमि के रूप में दरबारी संस्कृति का उल्लेख करते हैं, तो हमारा आशय रीतिकाव्य के स्वरूप-निर्धारण में उसकी भूमिका से होता है। जिस प्रकार दरबारी संस्कृति में बाहरी चमक-दमक, आडंबर, प्रदर्शन प्रियता और चाटुकारिता के साथ-साथ भोग और विलास पर जोर होता है, ठीक उसी प्रकार रीतिकालीन कविता में भी श्रृंगार के बाह्य पक्ष, अलंकरण, रूप-सज्जा और शब्द-सज्जा पर जोर मिलता है।
रीतिमुक्त कवियों को छोड़ सारे रीतिकालीन कवियों की रचनाएँ दरबारी संरक्षण में लिखी गई। इनकी रचनाओं के उद्देश्य के बारे में कहा गया है-
‘मनुज रूप है अवतौ, तीन वस्तु को जोग।
द्रव्य-उपार्जन, हरि भजन अरू कामिनी-संजोग।’
अर्थात् रीतिकालीन कवियों ने द्रव्य-उपार्जन, हरि-भजन और कामिनी-संयोग के उद्देश्य से रचना की है। इनमें भी अहम है द्रव्य-उपार्जन। कामिनी-संयोग और काव्यशास्त्रीय विवेचन तो इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक मात्र है। रही बात हरि भजन की, तो भिखारीदास के शब्दों में यह तो एक बहाना है।
इसीलिए रीतिकालीन कवियों ने सामान्य जनता की अभिरूचि की अनदेखी करते हुए सामंतों और रईसों की अभिरूचि को केन्द्रीय महत्व प्रदान किया है। इसी कारण से रीतिकालीन कविता आम जनता के हर्ष-विषाद से जुड़ने की बजाय दरबारी संस्कृति के वैभव से जुड़ती है।
यही कारण है कि रीतिकालीन कविता पर जनजीवन से कटे होने का आरोप लगाया जाता है. इस तथ्य के बावजूद कि इस दौर की रचनाओं में वीर, भक्ति और नीति के साथ-साथ प्रेम के सात्विक मनोभाव लोकजीवन का कुछ हद तक प्रतिबिम्बन होता है।

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