जनवादी कविता से आशय एक विशेष दौर की कविताओं से है जिनमें जनता के प्रति प्रतिबद्धता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। जनता के प्रति यही प्रतिबद्धता जनवादी कविता को क्रांतिधर्मी चेतना से लैस करती है। इस विशेष दौर की कविता का नामकरण चीन की जनवादी क्रांति की प्रेरणा पर की गई क्योंकि माओवादी विचारधारा इस काव्यांदोलन के वैचारिक आधार को निर्मित करती है। यह प्रगतिवादी काव्यांदोलन की तार्किक परिणति है, फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ पर वैचारिक प्रतिबद्धता का आग्रह नहीं है। आज हम Janvadi Kavita ki Pramukh Pravrittiyan aur Visheshtaen को विस्तार से समझने और उसका विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे ।
1920 के उत्तरार्द्ध में निराला की कविताओं से जिस प्रगतिशील चेतना की शुरूआत होती है, वह प्रगतिशील चेतना ही प्रगतिवादी दौर से गुजरती हुई नई कविता तक आती है और नई कविता के दौर में समाजवादी विचारधारा से प्रभावित कवियों की धारा, जिसमें सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह आदि कवि आते हैं, आगे चलकर 1970 के दशक तक आते-आते जनवादी कविता की धारा में रूपांतरित होती है।
यद्यपि व्यवस्था-विरोध समकालीन कविता का भी मुख्य स्वर है और जनवादी कविता का भी, लेकिन जनवादी कविता का व्यवस्था-विरोध माओवादी विचारधारा से प्रेरणा ग्रहण करता हुआ आता है। इस धारा से जुड़े हुए रचनाकार व्यवस्था-विरोध को क्रांति का स्वरूप देने का आग्रह लेकर आते हैं।
जनवादी कविता की पृष्ठभूमि
1960 के दशक के उत्तरार्द्ध तक आते-आते आजादी-पूर्व देखे गए सपने आजादी बाद के विद्रूप यथार्थ से टकराकर चूर-चूर होने लगे थे। इसी ने आजादी के साथ-साथ तत्कालीन व्यवस्था से मोहभंग को जन्म दिया।
इस मोहभंग को 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में राजनीतिक धरातल पर गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन के रूप में अभिव्यक्त होते हुए देखा जा सकता है।
आपातकाल की पृष्ठभूमि में आगे चलकर यह संपूर्ण-क्रांति आंदोलन का रूप ग्रहण करता है। इसके परिणामस्वरूप 1977 में केन्द्र की राजनीति से कांग्रेस की विदाई होती है।
दूसरी ओर, इस मोहभंग को 1960 के दशक के अंत और 1970 के दशक के आरंभ में वामपंथी उग्रवादी आंदोलन के रूप में सामाजिक और आर्थिक धरातल पर अभिव्यक्त होते हुए भी देखा जा सकता है।
इसकी शुरूआत पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी क्षेत्र से जनजातीय आंदोलन के रूप में होती है। इसे चारू मजूमदार और कानू सान्याल माओवादी विचारधारा का ठोस वैचारिक आधार देने की कोशिश करते हैं। यही नक्सलवाड़ी आंदोलन और इसका प्रेरणास्रोत माओवाद जनवादी कविता के वैचारिक आधार को निर्मित करता है।
व्यवस्था से मोहभंग की पृष्ठभूमि तो पहले ही तैयार होने लगी थी जब प्रगतिवादी दौर में ही नागार्जुन मध्यवर्गीय नेतृत्व वर्ग के प्रति यह कहकर अपनी अनास्था व्यक्त करते हैं-
बापू के भी ताऊ निकले, तीनों बन्दर बापू के,
सकल सूत्र उलझाऊ निकले, तीनों बन्दर बापू के।
नागार्जुन की विशिष्टता इस बात में है कि प्रगतिवादी धारा से जुड़े होने के बावजूद उनकी प्रतिबद्धता जनता के प्रति है, विचारधारा विशेष के प्रति नहीं-
क्या है दक्षिण, क्या है वाम जनता को रोटी से काम।
और इसीलिए नागार्जुन ने स्वयं को जनकवि की संज्ञा दी
जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ
जनकवि हूँ, मैं तो साफ कहूँगा, क्यों हकलाउँ।
यह उनकी जनप्रतिबद्धता ही है जिसने उन्हें व्यवस्था के जन विरोधी चरित्र को रेखांकित करने के लिए प्रेरित किया-
नए हिन्द का नया ढंग है, है नीति निराली
मुट्ठी भर लोगों के चेहरे पर है लाली।
वे यहीं नहीं रूकते, प्रत्यक्ष रूप से व्यवस्था के प्रधान को भी चुनौती देने से परहेज नहीं करते-
इन्दू जी, इन्दू जी, क्या हुआ आपको,
सत्ता के मद में भूल गयी बाप को।
नागार्जुन की यह जनवादी चेतना 1970 के दशक में आकर आलोक धन्वा, गोरख पांडे, लीलाधर जगूड़ी, स्वप्निल, कुमार विकल, असद जैदी आदि कवियों के यहाँ आकर क्रांतिधर्मिता से लैस होती है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें ‘आजादी अधूरी है’ और ‘आजादी झूठी है’ का वामपंथियों का नारा 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध में क्रांति की उमंग और जोश को प्रदर्शित करता हुआ कविता या साहित्य को क्रांति के हथियार के रूप में तब्दील कर देने पर आमदा होता है।
इस दौर की जनवादी कविताओं में निराशा और हताशा के साथ नकारात्मक सोच की प्रधानता है। साथ ही, यह इनकी सोच की वायवीयता का भी आभास देता है।
ये यह नहीं समझ पाते कि कविता के जरिए क्रांति नहीं पैदा की जा सकती। अगर ऐसा संभव होता, तो प्रगतिवादियों के नेतृत्व में कब की क्रांति हो चुकी होती।
क्रांति के लिए कविता एक सहायक उपकरण है। इसके लिए रचनात्मक ऊर्जा की जरूरत होती है, जमीनी यथार्थ से जुड़ना पड़ता है और पूर्व की उपलब्धियों को संरक्षित भी करना पड़ता है।
जनवादी कवियों को 1975 के आपातकाल की पृष्ठभूमि में आजादी के महत्व और इसकी उपलब्धि का अहसास होता है। साथ ही, लोकतंत्र की अहमियत का भी पता चलता है। इसलिए दूसरे चरण में आकर इनकी क्रांतिधर्मी चेतना संयमित होती है और ये नकारात्मक सोच से बाहर निकलकर सकारात्मक सोच प्रदर्शित करते हैं। इस क्रम में जनवादी कविता की यथार्थवादी चेतना का दायरा फैलता है।
प्रगतिवादी और जनवादी कविता का अंतर्संबंध
प्रगतिवादी काव्य की प्राणवान-धारा प्रयोगवाद और नई कविता के आगमन के साथ सूख नहीं गई बल्कि परवर्ती विकास में बदल रही परिस्थितियों के अनुरूप बदलती हुई काल प्रवाहिनी धारा के रूप में परिणत गई।
प्रगतिवादी आंदोलन के दौर में ही प्रगतिवादी कवियों की दो धाराएँ उभरकर सामने आती हैं। एक धारा मार्क्सवाद के प्रति वैचारिक आग्रह को दुराग्रह की हद तक पहुँचा देती है, तो दूसरी धारा संवेदना के धरातल पर प्रगतिवादी चेतना को ग्रहण करने की कोशिश करती है और इसीलिए वहाँ मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति दुराग्रह नहीं है।
इस दूसरी धारा में अगर मुक्तिबोध और गिरिजाकुमार माथुर आते हैं, जिनकी प्रगतिवादी चेतना उन्हें तारसप्तक और उसके प्रयोगवादी कवियों से जुड़ने में बाधा नहीं उत्पन्न करती है: तो दूसरी ओर नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल भी आते हैं जिनकी चेतना प्रगतिशील तो है. लेकिन यह प्रगतिशील चेतना मार्क्सवादी विचारधारा के आवरण में प्रतिफलित होने की बजाय जनता के बीच खाद-पानी प्राप्त करती है।
इनकी प्रतिबद्धता जनता के प्रति है और जनता के प्रति अपनी इस प्रतिबद्धता को ये घोषित करने से परहेज नहीं करते। साथ ही, जरूरत पड़ने पर इस जन-प्रतिबद्धता के समक्ष प्रगतिवादी विचारधारा की चमक भी फीकी पड़ने लगती है। प्रमाण है नागार्जुन की ये पंक्तियाँ
क्या है दक्षिण, क्या है वाम / जनता को रोटी से काम।
हमें दिनकर की इन पंक्तियों की याद दिलाती है:
रोटी दो, मत उसे गीत दो जिसको भूख लगी है
भूखों में दर्शन उभारना छल है, दगा ठगी है।
यही कारण है कि एक दौर के घोषित मार्क्सवादी कवि नागार्जुन रोटी की समस्या से जूझ रही जनता के प्रश्नों के प्रत्युत्तर में खुद को जनकवि घोषित करते हैं:
जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ
जनकवि हूँ साफ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ।
स्वाभाविक रूप से प्रगतिवादी काव्यांदोलन के जनवादी काव्यांदोलन में रूपांतरण में नागार्जुन, त्रिलोचन और अग्रवाल की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस धारा के रचनाकार प्रयोगवाद और नई कविता की धारा से जुड़े बगैर इनके समानांतर अपनी सक्रियता दिखलाते हैं और प्रगतिशील चेतना को अभिव्यक्ति देते रहे।
दूसरी ओर आचार्य नरेन्द्रदेव, राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में समाजवादी विचारधारा की बढ़ती हुई लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में मुक्तिबोध के नेतृत्व वाली नई कविता की समष्टिवादी धारा रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, शमशेर बहादुर सिंह और केदारनाथ सिंह को अपनी ओर आकर्षित करती है और ये समाजवादी विचारधारा के विभिन्न रूपों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए आधुनिक भावबोध की धारा के समानांतर इस प्रगतिशील चेतना को मजबूती प्रदान करते हैं, लेकिन इनकी रूढ़ियों में बँधे बिना।
आगे चलकर 1960 के दशक तक आते-आते आजादी और लोकतांत्रिक व्यवस्था से मोहभंग की परिस्थितियाँ असंतोष को कविता के धरातल पर लाकर खड़ा कर देती है।
इसके परिणामस्वरूप अकविता आंदोलन के दौर में धूमिल, लीलाधर जगूड़ी और मंगलेश डबराल आदि लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलोकतांत्रिक स्वरूप का पर्दाफाश करने में अपनी रचनात्मक ऊर्जा झोंक देते हैं।
उनमें लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश है और यही आक्रोश समकालीन कविता के व्यवस्था-विरोधी स्वर के रूप में उभरकर सामने आता है।
1960 के दशक के अंत तक आते-आते यह असंतोष और व्यवस्था-विरोधी स्वर नक्सल आंदोलन और माओवादी विचारधारा से प्रेरणा ग्रहण करता हुआ जनवादी कविता की क्रांतिधर्मी-चेतना में परिणत हो जाता है। विचारधारा पीछे छूट जाती है और जनता की प्रतिबद्धता ही सब कुछ हो जाती है।
जनता के प्रति इस प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए कलम को हथियार और साहित्य को क्रांति के उपकरण में तब्दील कर देने से भी इन्हें परहेज नहीं है। फलस्वरूप शब्दों की जगह साहित्य में बम, गोला और बारूद का आगमन होता है, लेकिन जनता की चिंताओं से संबद्ध होकर।
यह अतिवादिता जनवादी कविता में देर तक नहीं टिकती। आपातकाल आजादी और लोकतंत्र के महत्व का अहसास कराता है और फिर ये अपनी ऊर्जा लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलोकतांत्रिक स्वरूप पर प्रहार करने में लगाते हैं। यहीं से सार्थक विकल्प की तलाश शुरू होती है।
जहाँ तक प्रगतिवाद और जनवादी कविता के अंतर्संबंध का प्रश्न है, तो दोनों के केन्द्र में समाजवादी सोच मौजूद है। यह समाजवादी सोच दोनों को जनता के प्रवक्ता के रूप में तब्दील कर देती है।
इसी कारण दोनों रूप और संरचना की तुलना में प्रगतिशील चेतना और संवेदना को कहीं अधिक महत्व देते हैं। दोनों साहित्य को परिवर्तन चेतना के वाहक के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं और इसीलिए सहज और सरल भाषा के सहारे आम लोगों तक पहुँचने की कोशिश करते हैं; फिर भी दोनों काव्यांदोलनों का स्वरूप एक-दूसरे से भिन्न है। कारण यह कि ये दोनों काव्यांदोलन दो भिन्न परिस्थितियों की उपज हैं और दोनों की जरूरतें भी भिन्न-भिन्न हैं।
आक्रोश, उबाल और आक्रामकता प्रगतिवादी कविताओं में भी मौजूद है और जनवादी कविताओं में भी लेकिन प्रगतिवादी काव्यांदोलन वैचारिक उछाह के रूप में सामने आता है। उसमें वैचारिक रूमानीपन देखने को मिलता है। इसी रूमानीपन के कारण रूसी क्रांति और सोवियत संघ के प्रति रह-रहकर मोह भी प्रकट होता है और धैर्य के अभाव के कारण वे बिना अनुकूल परिस्थितियों के मार्क्सवादी वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा क्रांति को भारत में प्रतिफलित होते देखना चाहते थे।
इसी के कारण प्रगतिवादी काव्यांदोलन प्रचारात्मक स्वरूप धारण करता हुआ अयथार्थपरकता और वायवीयता की ओर बढ़ जाती है। लेकिन, जनवादी कविता को असंतोष की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, जिसमें क्रांति की फसल लग सकती थी और परिवर्तन की शक्तियाँ लहलहा सकती थी। इसलिए 1960 के अंत और 1970 के दशक के आरंभ में माओवादी विचारधारा के प्रति जनता के एक समूह का प्रबल आकर्षण नक्सल आंदोलन के रूप में परिलक्षित होता है।
भले ही यह नक्सलवाद कोई तार्किक परिणति न प्राप्त कर सका हो, लेकिन इसने भारतीय समाजवादियों को अतिवादी वामपंथ की सीमा और अपनी शक्ति का अहसास कराया।
श्रीमती गाँधी के तानाशाही रवैये ने उन्हें लोकतंत्र और आजादी के महत्व का भी अहसास कराया। फलस्वरूप लोकतांत्रिक समाजवाद की संभावना प्रबल हुई। इसने जनवादी कविता की आक्रामकता, उबाल और आक्रोश को नियंत्रित करते हुए उसकी नकारात्मक सोच को सकारात्मक दिशा देने का प्रयास किया।
यही कारण है कि जनवादी कविता चिंतन के धरातल पर प्रगतिवादी कविता की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व काव्यांदोलन के रूप में सामने आती है। इसकी समाजवादी यथार्थवादी चेतना मार्क्सवादी विचारधारा के दायरे में कैद होकर नहीं रह जाती वरन् व्यापक परिवर्तन की माँग को नए सिरे से उठाती है।
जनवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ और विशेषताएँ
जनवादी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों और विशेषताओं का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर किया जा सकता है :
व्यवस्था-विरोध
व्यवस्था-विरोध समकालीन कविता का भी मुख्य स्वर है, लेकिन जनवादी कविता उसे एक भिन्न परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है। यह सत्ता को दमन का अस्त्र मानती है और इसकी दृष्टि में पुलिसिया जुर्म और गोलीकांड के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाला ही क्रांतिकारी है।
इनका मानना है कि व्यवस्था में शामिल होकर व्यवस्था का विरोध नहीं किया जा सकता। ऐसी परिस्थिति में जिस साहित्य की रचना होगी, वह साहित्य प्रतिक्रियावादी होगा।
स्पष्ट है कि इन्होंने जनवादिता को संकीर्ण परिप्रेक्ष्य प्रदान किया। इन्होंने स्पष्ट शब्दों में अपनी कविता के जरिए सर्वहारा की चेतना में आस्था व्यक्त की-
चीटियों से वे घबराए हुए हैं,
अपने स्वप्नों में वे चीटियों को देखते हैं,
वे देखते हैं, दूर-दूर तक चीटियाँ हैं
चारों तरफ चीटियाँ हैं…………
इन्हें डर लगता है कि कहीं वे सोयें
और चीटियाँ उन्हें उठाकर रातों-रात
अपनी भूमिगत बस्तियों में न ले जाएँ।
समकालीन कविता में उबाल है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, लेकिन संतुलन नहीं। इसीलिए अनुभूतियों और यथार्थ के दायरे से परे जाकर ये कवि कविता को क्रांति का उपकरण बना डालते हैं। यह महसूस नहीं कर पाते हैं कि कविता के जरिए क्रांति नहीं की जा सकती। क्रांति के लिए आवश्यक है जमीनी यथार्थ से जुड़ना।
‘जनता का आदमी’ शीर्षक कविता में आलोक धन्वा लिखते हैं-
यह कविता नहीं है, यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम कलम चलाने वाले को, हल चलाने वालों से मिला रही है।
1972 के चुनाव की पृष्ठभूमि में आलोक धन्वा लिखते हैं-
क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद मुझे बारूद के बारे में सोचना बन्द कर देना चाहिए, क्या 1972 की इस 20 अप्रैल को मैं अपने बच्चों के साथ एक पिता की तरह रह सकता हूँ?
इस तथ्य से इंकार करना कठिन है कि अपने बच्चे के साथ सुरक्षित रहने की चिंता अकेले आलोक धन्वा की नहीं, पूरे समाज की चिंता है; लेकिन पुनः यही प्रश्न खड़ा होता है कि क्या बारूदों के जरिए एक पिता को सुरक्षा की इस चिंता से मुक्त किया जा सकता है। यह आलोक धन्वा की ही नहीं, तमाम जनवादी कवि की सीमाएँ हैं कि वे अपनी कविता में ही कविता से क्रांति तक की यात्रा पूरी करते हैं।
कविता के क्षेत्र में गोरख पांडे का आगमन भी नक्सलवादी आंदोलन के रास्ते ही होता है –
खाली हो रही पतीली में
देश गल रहा है या दाल गल रही है,
कुर्सी-कानून-तिजोरी का
गठबंधन धूल में मिला दो,
यह सहस्त्र मुकाम है ठगों का
ऐ लोगों! बमों से उड़ा दो।
लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि व्यवस्था के प्रति उनका असंतोष और इससे उपजा क्रोध हर जगह अयथार्थपरक क्रांति में ही रूपांतरित होता है। कहीं-कहीं इस क्रोध का रूपांतरण व्यंग्य में भी होता है जिसको अभिव्यक्ति गोरख पांडे की कविता ‘अविचल रहती है कुर्सी’ में मिलती है
अविचल रहती है कुर्सी
माँगों और शिकायतों के संसार में,
आहों और आँसुओं के संसार में,
अविचल रहती है कुर्सी
पाँयों में आग लगने तक।
जनवादी कविता में यदि देखा जाए, तो नकारात्मक भावों की प्रधानता है। जनवादी कविता ने व्यवस्था-विरोध के स्वर को बुलन्द तो किया, लेकिन रचना के स्तर पर भी उसके विकल्प को प्रस्तुत करने का प्रयास यहाँ पर नहीं मिलता।
ऐसा लगता है कि व्यवस्था विरोध यदि जनवादी कविता की शक्ति है तो इसकी सीमा; भी क्योंकि यहाँ पर उस विषय का अभाव है जिसके जरिए विकल्प प्रस्तुत किया जा सकता है।
इसके लिए कुछ हद तक इस धारा से जुड़े कवियों की निम्नवर्गीय पृष्ठभूमि जिम्मेदार रही है क्योंकि ये कवि अपनी निम्न मध्यवर्गीय चेतना के दायरे से बाहर निकलने में असफल रहे।
यथार्थपरकता
अन्ध व्यवस्था-विरोध और क्रांति की स्वप्निल सफलता ने जनवादी कविता को राजनीतिक लफड़ेबाजी का रूप दे दिया। व्यवहार के धरातल पर कोई भी परिवर्तन ला पाने में इनकी असफलता ने एक बिन्दु पर आकर निराशा और हताशा को जन्म दिया, लेकिन ये इस मनःस्थिति से बाहर निकलकर आम जनता के अन-संघर्षों का चित्रण करते हुए आते हैं।
इस संदर्भ में अगर देखा जाए, तो जनवादी कवि जनजीवन के यथार्थ से साक्षात्कार करते हुए आते हैं। इस क्रम में तद्युगीन सामाजिक और राजनीतिक जीवन का यथार्थ इनकी रचनाओं में अभिव्यक्ति पाता है। नागार्जुन ‘लोगे मोल’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
लोगे मोल, लोगे मोल / यहाँ नहीं लज्जा का योग,
भीख माँगने का है रोग / पेट बेचते हैं हम लोग / लोगे मोल, लोगे मोल।
इसी तरह धूमिल भी ‘रोटी और संसद’ शीर्षक कविता में सपाटबयानी के स्तर पर उतर आते हैं और व्यवस्था के विद्रूप को उजागर करते हैं-
एक आदमी / रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है/ जो न रोटी बेचता है, न रोटी खाता है,
वह सिर्फ रोटी से खेलता है। / मैं पूछता हूँ? यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।
राजेश जोशी एक भिखमंगे बच्चे के स्वप्न को चित्रित करते हैं
कभी-कभी वे एक स्वप्न भी देखते हैं
जिसे हमारे समय की रंगीन आपराधिक फिल्मों ने
रचा है उनके दिमाग में,
जिस तरह उनका भरोसा है कि
उस तरह एक दिन
बदल जाएगा उनका भी जीवन, एक दिन।
इन जनवादी कवियों ने आजाद भारत में धर्म की विभाजनकारी भूमिका को देखा। इसी ने समकालीन कवि ‘कुमार विकल’ को यह कहने के लिए बाध्य किया-
‘मजहब ही है सिखाता, आपस में बैर रखना’
मजहबी जुनून पैदा कर धर्म के ये ठेकेदार अपने-अपने स्वार्थ की रोटियाँ साम्प्रदायिक दंगों की इन आगों में सेंकते हैं। व्यंग्य की मुद्रा में गोरख पांडे लिखते हैं-
अपना-अपना धर्म बचाओ,
मिल जुलकर छुरा चलाओ, आपस में कटकर मर जाओ।
आज हम या तो हिन्दू हैं या मुसलमान, सिक्ख हैं या ईसाई, ब्राह्मण हैं या शूद्र। अगर कुछ नहीं हैं, तो भारतीय और इंसान। साम्प्रदायिक तनाव की इसी पृष्ठभूमि में नागार्जुन द्वारा प्रस्तुत एक चित्र है-
कि इतने में
एक और युवक
इन कानों में
फुसफुसा कर कह गया
खबरदार, यह मुसलमान है,
इनके रिक्शे पर
कभी न बैठना आप।
आज मनुष्य को आतंक के जिस साए तले जीना पड़ रहा है और जो आतंक सत्ता के दमन से उपजा है, उसका चित्रण करते हुए रघुवीर सहाय लिखते हैं-
हँसों-हँसों, तुम पर निगाहें रखी जा रहीं हैं
हँसों, अपने पर न हँसना
क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे।
आपातकालीन परिदृश्य में जनवादी कविताँ अतिक्रांतिकारिता को छोड़कर यथार्थपरकता की ओर बढ़ती है और जो आजादी अब तक झूठी प्रतीत हो रही थी, उसके महत्व का अहसास होता है-
जिस तबाही में लोग बचते थे, वह सरेआम हो रही है अब,
अजमत मुल्क इस सियासत के, हाथ नीलाम हो रही है अब।
लेकिन, जनता का हौसला अभी मरा नहीं और न ही व्यवस्था-परिवर्तन की कोशिश समाप्त हुई है। दुष्यंत कुमार लिखते हैं :
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
इस पृष्ठभूमि में ये कविता की शक्ति और सीमा से परिचित होते हैं और जनशक्ति में आस्था व्यक्त करते हुए उसमें जागरूकता पैदा करने की कोशिश करते हैं-
मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
और इसीलिए जनवादी कविता में आशा और विश्वास का भी स्वर है जिसे ‘मनमोहन’ अभिव्यक्ति देते हैं-
सूर्योदय औचक्क से घट जाने वाली,
अनायास घटना नहीं,
क्षण-क्षण टूटना है अंधेरों का,
तार-तार, बूंद-बूंद
घुलना है, चुप-चुप
करना है उजास का।
प्रेम चेतना और नारी चेतना
आरम्भ में मार्क्सवाद की ऊपरी समझ के कारण जनवादी कविता में प्रकृति, प्रेम और सौंदर्य-चित्रण का अभाव दिखता है, लेकिन धीरे-धीरे जनवादी कविता अपने दायरे का विस्तार करती है। कुमार विकल लिखते हैं-
वैसे मैं अमृतसर भी चल सकता हूँ,
वहाँ की नमक-मण्डी का नमक मुझे
खास तौर से अच्छा लगता है।
असद जैदी की प्रेमपरक कविताओं में सुख और दुख की मिश्रित अनुभूतियाँ अभिव्यक्त हुई हैं-
विदा हो, तुम चले जाओगे,
और थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे।
धूमिल ने भी अकवितावादी प्रभाव से मुक्त होते हुए प्रेम की नई दृष्टि के जरिए नारी की नई पहचान को अभिव्यक्ति दी है-
मैं प्यार को नहीं जानता,
सिर्फ जानता हूँ कि हम दोनों
ज्यादातर चुप हैं और जब भी कम बोलते हैं,
मेरे शब्द तुम्हारे शब्दों को ढक लेते हैं।
जनवादी कवियों ने नारी के अंतर्मन में झाँकने की कोशिश की, जहाँ वेदना का हाहाकार है। गोरख पांडे के शब्दों में-
ये आँखे हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए।
रघुबीर सहाय ने भी नारी की वेदना को अभिव्यक्ति देते हुए लिखा-
नारी बिचारी
पुरूष की मारी
तन से क्षुधित
मन से मुदित लपक कर-झपट कर
अन्त में चित।
लेकिन, जीवन की बढती व्यस्तता ने प्रेम संबंध को औपचारिकता के धरातल पर ले जाकर स्थापित कर दिया है। प्यार का बदलता हुआ स्वरूप इन्हें उद्विग्न करता है।
आशय यह कि जनवादी कवियों ने नारी के प्रति आत्मीयता प्रदर्शित करते हुए न केवल प्रेम के बदलते हुए स्वरूप को अभिव्यक्ति दी, वरन् नारी के अंतर्मन की थाह लेते हुए उसकी वेदना और सिसकियों को भी शब्दबद्ध किया, तभी तो लीलाधर जगूड़ी के द्वारा यह कहना सम्भव हो सका-
माँ उस चीख का नाम है,
जो आँसुओं के कीचड़ को
जमीन की तरह सख्त बना देती है।
शिल्पगत विशेषता
जनवादी कवियों के यहाँ आकर भाषा का भी जनवादीकरण होता है। तद्भव शब्दों की बहुलता तो है ही, यहाँ पर देशज शब्दों का प्रयोग भी सहज ही देखा जा सकता है।
दूसरी बात यह है कि व्यवस्था से मोहभंग ने इनके भीतर आक्रोश को जन्म दिया और यह आक्रोश उनकी भाषा को आक्रामक तेवर प्रदान करता है।
नागार्जुन तो आधुनिक कवियों में व्यंग्य के बादशाह हैं। खासकर उनकी इस आक्रामकता और व्यंग्य का निशाना इन्दिरा गाँधी की ओर है। ‘काली माई’ नामक कविता में वे लिखते हैं-
कितना खून पिया है
जाती नहीं खुमारी
कितनी सुर्ख और लम्बी है
मैया जीभ तुम्हारी।
लेकिन, वे यहीं पर नहीं रूकते। ‘खिचड़ी विप्लव’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं-
मिला क्रांति में भ्रांति-विलास
xxxxxxxxxxx
टूटे सीगों वाले सांडों का
यह कैसा टक्कर था,
तुम जन-कवि हो, तुम्ही बता दो
खेल नहीं, टक्कर था।
यह सच है कि सहजता, सरलता और जनजीवन से जुड़े होने के कारण उत्पन्न स्वाभाविकता ने जनवादी कविता को जनसम्प्रेषणीता प्रदान किया, लेकिन सपाटबयानी उनकी सीमा बनकर आती हैं।
कृपया इसे भी पढ़ें : समकालीन कविता की प्रमुख प्रवृत्तियाँ और विशेषताएं
निष्कर्ष
इस प्रकार निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि जनवादी कविता वह काव्यधारा है जो जन-साधारण के दुख-दर्द, संघर्ष, शोषण, असमानता और समाज-परिवर्तन की आकांक्षा को अभिव्यक्त करती है।
इसमें “जन” अर्थात् आम जनता—मजदूर, किसान, वंचित वर्ग, स्त्रियाँ, श्रमिक और उपेक्षित समुदाय—कविता के केंद्र में होते हैं। जनवादी कविता साहित्य को केवल सौंदर्य का साधन न मानकर सामाजिक बदलाव का माध्यम समझती है।
यह काव्यधारा मुख्यतः 20वीं शताब्दी में प्रगतिवाद और जनवादी आंदोलनों के साथ विकसित हुई, जहाँ कविता को सामाजिक चेतना जगाने और जनता की आवाज़ बनकर बोलने का माध्यम माना गया।
जनवादी कविता का उद्देश्य समाज में व्याप्त अन्याय, शोषण, वर्गभेद, बेरोज़गारी, भुखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार आदि समस्याओं को उजागर करना है। यह कविता सिर्फ समस्याओं का वर्णन ही नहीं करती, बल्कि समाधान की दिशा में संघर्ष की प्रेरणा भी देती है।
इसमें सामूहिकता, प्रतिरोध और क्रांतिकारी चेतना प्रमुख होती है। जनवादी कवि समाज के यथार्थ को बिना सौंदर्याभिषेक और बिना झूठी कल्पना के, सीधे-सीधे, सरल और स्पष्ट भाषा में प्रस्तुत करता है। उसकी चिंता सत्ता-शक्ति और उच्च वर्ग के हितों की नहीं, बल्कि जनसमुदाय और मेहनतकश लोगों की होती है। इसकी प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में निम्नानुसार अभिव्यक्त किया जा सकता है :
जनसाधारण का प्रतिनिधित्व
जनवादी कविता में “जन” केंद्रीय तत्व है। इसमें मजदूर, किसान, दलित, स्त्री, शोषित वर्ग और दीन-हीन जनता के जीवन की सच्चाइयों को प्रमुखता दी जाती है। यह कविता आम आदमी की चिंताओं को साहित्य में स्वर देती है।
यथार्थवादी दृष्टि
जनवादी कविताएँ कल्पनाश्रित नहीं होतीं; इनमें सामाजिक यथार्थ का सीधा, स्पष्ट और प्रखर चित्रण मिलता है। समाज में व्याप्त गरीबी, भुखमरी, अत्याचार और अन्याय को उस रूप में दिखाया जाता है, जैसा वह वास्तव में है।
परिवर्तन की आकांक्षा और संघर्ष-चेतना
यह कविता केवल दुख-दर्द का वर्णन नहीं करती, बल्कि बदलाव की इच्छा और संघर्ष की प्रेरणा देती है। क्रांति, विद्रोह और समाज-परिवर्तन की भावना इसका मुख्य स्वर होती है।
सरल और सहज भाषा
जनवादी कविता की भाषा बोली-बानी के निकट, सहज, स्पष्ट और आम जनता के अनुकूल होती है। कठिन शब्दावली या अत्यधिक अलंकारिकता से बचा जाता है ताकि संदेश सीधे जनसमूह तक पहुँचे।
सामूहिकता और जनभावना
इन कविताओं में ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम’ का भाव अधिक मिलता है। सामूहिक संघर्ष और एकता की भावना जनवादी कविता का आधार है। यह व्यक्तिगत भावनाओं से अधिक सामूहिक अनुभवों को महत्व देती है।
शोषण और असमानता के विरुद्ध आवाज़
जनवादी कविता का मूल स्वर शोषण, उत्पीड़न, दमन और अन्याय के विरोध में होता है। यह सत्ता, पूँजीवाद, सामंतवाद, जातिवाद और अन्य दमनकारी संरचनाओं की आलोचना करती है।
मानवीय संवेदना
इन कविताओं में मनुष्य की गरिमा, उसके अधिकारों और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा का भाव मिलता है। मानवीय संवेदना के बिना जनवादी कविता अधूरी है।
जनांदोलन, राजनीति और इतिहास से संबंध
जनवादी कविता सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों, मजदूर-आंदोलनों और स्वतंत्रता संघर्ष से प्रभावित रहती है। कई बार यह प्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक चेतना को भी व्यक्त करती है।
अतः जनवादी कविता वह साहित्यिक धारा है जो जनता की वास्तविक समस्याओं को केंद्र में रखकर समाज-परिवर्तन की प्रेरणा देती है। यह कविता यथार्थ, संघर्ष, सामूहिकता और सरल भाषा के माध्यम से सामाजिक न्याय की स्थापना का संदेश देती हुई साहित्य और समाज दोनों को दिशा प्रदान करती है।

नमस्कार ! मेरा नाम भूपेन्द्र पाण्डेय है । मेरी यह वेबसाइट शिक्षा जगत के लिए समर्पित है। हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य और अनुवाद विज्ञान से संबंधित उच्च स्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना मेरा मुख्य उद्देश्य है । मैं पिछले 20 वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहा हूँ ।
मेरे लेक्चर्स हिंदी के छात्रों के द्वारा बहुत पसंद किए जाते हैं ।
मेरी शैक्षिक योग्यता इस प्रकार है : बीएससी, एमए (अंग्रेजी) , एमए (हिंदी) , एमफिल (हिंदी), बीएड, पीजी डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन (गोल्ड मेडल), यूजीसी नेट (हिंदी), सेट (हिंदी)
मेरे यूट्यूब चैनल्स के नाम : Bhoopendra Pandey Hindi Channel, Hindi Channel UPSC
