नीतिकाव्य जीवन-व्यवहार को सुगम बनाने का आधार है। नीतिकाव्य सृजित करने में व्यावहारिक अनुभवों का महत्वपूर्ण स्थान होता है। व्यक्ति इन अनुभवों को स्वयं के क्रिया-कलापों से तथा दूसरों के द्वारा अर्जित एवं कहे गए मन्तव्यों से ही अर्जित करता है।
स्वयं द्वारा अर्जित अनुभवों से यद्यपि व्यक्ति आत्मनिर्भर और संघर्षशील बनता है, तथापि दूसरों के अनुभव उसे सहजतापूर्वक जीवन को समझने मेंसहायक होते हैं। यह अनुभव यदि काव्य के रूप में होते हैं, तो वे मुहावरों जैसे हो उठते हैं। अधिकांश नीतिकथनपरक उक्तियों में जो सुग्राह्यता औरसरसता है, वह उन्हें मुहावरों की कोटि में ले जाने वाली है।
हजारों वर्षों से नीतिपरक उक्तियाँ मनुष्य को जीवन के अँधेरों में प्रकाश की किरण बनकर उसे मार्ग दिखाती रही हैं, जीवन जीने का तरीका सिखाती रहीहैं। इस स्तर पर नीति काव्य शिक्षा के उद्देश्य को पूर्ण करने वाला बन जाता है।
नीतिकाव्य जीवन सुधार का लक्ष्य लेकर चलता है।नीति काव्य का विचार पक्ष प्रबल होता है। एक तरह से नीतिकाव्य सद्विचारों का कोष है। युगानुरूप आचरण की शिक्षा भी नीतिकाव्य प्रदान करता है। नीतिकाव्य का एक
उद्देश्य उच्च सामाजिक मूल्यों की स्थापना करना भी है। इस तरह से नीति काव्य व्यक्ति और समाज के उन्नत अनुभवों को संप्रेषित करने वाला काव्य है।
हिंदी साहित्य में नीतिकाव्य की लंबी परम्परा है। प्रायः प्रत्येक कवि ने अपने अनुभवों को इस तरह से नीति कथनों में संजोया है भले ही ऐसी उक्तियाँ अधिक न हों। किन्तु यह निश्चित है कि सभी युगों का काव्य अपने नीति कथनों के कारण पाठक के जीवन संघर्षों को कम करने में सक्षम रहा है। तुलसी, कबीर, सूर, जायसी आदि भक्तिकालीन कवियों ने नीतिकथनों को महत्व प्रदान किया है।
इस युग में रहीम और गिरिधर जैसे कवि भी सक्रिय रहे हैं, जिनकी कविता में नीति का स्थान केन्द्रीय है।
गिरिधर कविराय ने अपनी कुंडलियों में तो जैसे नीति को ही महत्व प्रदान किया है। उनकी कुंडलियाँ तो नीति के अमृतघट हैं। जीवन के अनेक अनुभवों को उन्होंने कुंडलियों में सँजोया है। अपनी कुंडलियों में उन्होंने अतीत की असफलताओं से बार-बार दुखी न होने के लिए कहा है। कर्मचेतना के सूत्र वर्तमान को महत्वपूर्ण मानने में छिपे हैं।
अपने द्वारा किए गए कामों का ढिंढोरा नहीं पीटना चाहिए। यदि असफलता हाथ लगती है तो संसार हँसी करने लगता है। प्रत्येक कार्य करने के पूर्व विचार कर लेना जरूरी है।
जो बिना विचारे और बिना पूर्व योजना बनाए कार्य करते हैं वे अक्सर अपने कार्य में विफल हो जाते हैं और परेशान होते हैं।
सम्पत्ति के बढ़ने पर अभिमान नहीं करना चाहिए। अपने भीतर गुणों को विकसित करके समाज में सम्मान पाया
जा सकता है।
आधुनिक युग में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बहुआयामी रचनाकार हैं। उन्होंने नाटक, काव्य, निबंध आदि सभी विधाओं में रचना की है। वे समाजोन्मुखी चिंतक कवि हैं, इसलिए उनकी कविताओं में नीतिकथन यत्र-तत्र सर्वत्र सुलभ हैं। उन्होंने अपने दोहों में स्पष्ट किया है कि केवल पद पाने से प्रतिष्ठा नहीं मिलती है।
परोपकार करने पर ही सम्मान मिलता है। एकता का ही महत्व है, कठिन से कठिन काम एकता से संभव हो जाते हैं। भारत के विकास के लिए भारतवासियों को वैर-भाव छोड़ना होगा।
अपनी भाषा, अपना धर्म ही सुख देने वाले हैं। जहाँ योग्यता और अयोग्यता को समझने का विवेक न हो वहाँ सुख और समृद्धि नहीं रह पाते। नीति काव्य के इन सभी अंशों में सहज उक्तियों का वैभव फैला हुआ है।
हिंदी साहित्य में दोहों और कहावतों के लेखन की पुरानी परंपरा रही है । नीति, शिक्षा, उपदेश, उक्तिचमत्कार आदि के लिए दोहा एक सशक्त माध्यम रहा है ।
कहावतें विद्वान मनीषियों और साहित्यकारों के अनुभवजन्य कथनों (वाक्यों) का रस तत्व होती हैं । यहाँ हम कुछ
प्रमुख कवियों के नीति के दोहों का अध्ययन करेंगे जिन्होंने समाज को एक नई दिशा प्रदान की है ।
नीति के दोहे
अब हम कुछ महत्वपूर्ण कवियों के नीति के दोहों का अध्ययन करेंगे ।
कबीर
1.यह ऐसा संसार है, जैसा सेमल फूल।
दिन दस के ब्यौहार को, झूठे रंगि न भूल ॥
2. करता था सो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ से खाय॥
3. निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाय ॥
4. अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप॥
रहीम
1. तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपत्ति संचहि सुजान ॥
2. एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो फूले फलै अघाय ॥
3. बड़े बड़ाई ना करैं, बड़े न बोलैं बोल।
रहिमन हीरा कब कहैं, लाख टका मेरो मोल ॥
तुलसीदास
1. तुलसी काया खेत है, मनसा भयो किसान।
पाप, पुण्य दोऊ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान ॥
2. मिथ्या माहुर सज्जनहि, खलहि गरल सम साँच।
तुलसी छुअत पराइ ज्यों, पारद पावक आँच ॥
3. जड़ चेतन गुन दोष मय, बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार ॥
वृन्द
1. विद्या-धन उद्यम बिना, कहौ जु पावै कौन।
बिना डुलाए ना मिलै, ज्यों पंखा कौ पौन ॥
2. करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात तें, सिल पर परत निसान ॥
3. सज्जन तजत न सजनता, कीन्हेहु दोष अपार।
ज्यों चन्दन छेदै तऊ, सुरभित करै कुठार ॥
निष्कर्ष
प्राचीन काल से लेकर भक्तिकाल तक और कुछ सीमा तक आधुनिक काल तक हिंदी साहित्य में नीतिकाव्य की लंबी परम्परा है। अधिकांश कवियों ने अपने अनुभवों को इस तरह से नीति काव्यों में संजोया है भले ही उनके काव्य में ऐसी उक्तियाँ अधिक न हों। किन्तु यह निश्चित है कि सभी युगों का काव्य अपने नीति कथनों के कारण पाठक के जीवन संघर्षों को कम करने में और उनका पथ प्रशस्त करने में सक्षम रहा है।
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