डॉ.रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि | Dr Ramvilas Sharma ki Alochana Drishti

यदि यह लेख आपको अच्छा लगा हो तो कृपया इसे शेयर करें ।

आज हम मार्क्सवादी आलोचना के शिखर-पुरुष डॉ.रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि पर विचार करेंगे । उन्होंने हिंदी की मार्क्सवादी  आलोचना में ‘हिंदी जाति’, ‘हिंदी जाति की सांस्कृतिक चेतना’, ‘भाषा-समाज-संस्कृति-साहित्य’, ‘हिंदी नवजागरण‘ जैसी अनेक नवीन अवधारणाओं पर नया चिंतन प्रस्तुत किया है। तो आइए अब Dr Ramvilas Sharma ki Alochana Drishti को विस्तार से समझने का प्रयास करें ।

वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद हिंदी के सबसे बड़े जातीय आलोचक हैं। उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नाम से कोई पुस्तक चाहे न लिखी हो पर अपनी अनेक पुस्तकों के माध्यम से हमारी परंपरा के मूल्यांकन, साहित्य-समाज और इतिहास की प्रगतिशील परंपरा के भाष्य द्वारा जो हमें दिया है, वह अपने आप में हिंदी साहित्य का नया इतिहास है।

 डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचक व्यक्तित्व का निर्माण

डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचक व्यक्तित्व का निर्माण बीसवीं शताब्दी के भारतीय स्वाधीनता संग्राम की मुक्ति चेतना ने किया है। एक खास अर्थ में वे बड़े देशभक्त चिंतक और आलोचक हैं। एक ऐसे देशभक्त चिंतक जिन्होंने मार्क्सवाद के वैचारिक सैद्धांतिक आधार को ग्रहण करने के बाद साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी, पूँजीवादी, फासीवादी, नस्लवादी गुलामी की मानसिकता से मुक्ति दिलाने के लिए कड़ा संघर्ष किया।

भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य की लोकजागरणवादी चेतना को ग्रहण करते हुए रीतिवादी परंपरा का विरोध किया। किसान-मजदूर एका कायम करके ही भारतीय जनता की स्थिति को बदला जा सकता है और यह काम वामपंथी आंदोलन ही कर सकता है इस विचार पर वे अटल विश्वास करते रहे।

 डॉ. रामविलास शर्मा का जीवन परिचय

डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिला स्थित ऊँच गाँव में 10 अक्टूबर 1912 को एक गरीब किसान परिवार में हुआ तथा बचपन गाँव के खेत-खलिहानों में बीता। अवध का पश्चिमी भाग बैसवाड़ा – यहाँ घर और गाँव के दृश्य उनके हृदय में स्थायी अनुभव बने। उनके पास असल पूँजी यही है। बाबा, ददुआ, बड़े भाई, अवध की लोक-संस्कृति उनके व्यक्तित्व के निर्माण काल में रचे-बसे रहे। शिक्षा के लिए झाँसी गए और क्रांतिकारी विचारों की मानसिकता से सम्पन्न हुए।

लखनऊ विश्वविद्यालय से 1934 में अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. और 1940 में पी-एच.डी. की।

1938 तक लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे। उसके बाद 1943 में आगरा आ गए। 1971 तक बलवंत राजपूत कॉलेज आगरा में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष पद पर काम किया। 1971-74 में आगरा के कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी हिंदी विद्यापीठ के निदेशक रहे। फिर 1981 में दिल्ली आ गए और शरीरांत (30 मई, 2000) तक यहीं रहे।

उन्हें ‘निराला की साहित्य-साधना’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1988 में शलाका सम्मान, 1990 में भारत-भारती पुरस्कार तथा 1991 में व्यास सम्मान से सम्मानित हुए। उन्होंने इन सभी पुरस्कारों की चार लाख से अधिक धनराशि को देश में साक्षरता के प्रसार के लिए दान दे दिया।

उनका पूरा जीवन-संघर्ष ‘अपनी धरती अपने लोग’ (तीन भागों में) प्रकाशित उनकी आत्मकथा से समझा जा सकता है। उनकी मृत्यु 30 मई, 2000 को दिल्ली में हुई।

डॉ. रामविलास शर्मा ने आरंभ में कविताएँ लिखीं। अज्ञेय जी द्वारा सम्पादित ‘तारसप्तक’ (1943) में उन्हें स्थान मिला। उनके दो स्वतंत्र कविता संग्रह ‘रूपतरंग’ (1956) और ‘सदियों के सोए जाग उठे’ (1988) नाम से सामने आए।

उपन्यास, नाटक, अभिनय, संगीत की ओर भी हाथ बढ़ाया। लेकिन अंततः वे पूरे मन से आलोचना-कर्म के प्रति समर्पित हो गए। निरालाजी की जीवनी लिखी – अद्भुत सर्जनात्मक जीवनी। 

शुरुआत में विवेकानंद के व्याख्यानों के अनुवाद किए ‘भक्ति और वेदांत’ (1933), ‘कर्मयोग’ (1934), ‘राजयोग’ (1934)। 1936 में ‘चार दिन’ नामक उपन्यास प्रकाशित हुआ। फिर ‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास’ बुल्गारियाई कवि वात्सारोव की कविताओं का अनुवाद किया। मार्क्स के ‘दास कैपिटल’ के दूसरे खण्ड का ‘पूँजी’ नाम से अनुवाद (1974)।

 डॉ. रामविलास शर्मा प्रमुख पुस्तकें

डॉ. रामविलास शर्मा की प्रमुख पुस्तकें निम्नानुसार हैं :

 (क) आलोचनात्मक पुस्तकें 

‘प्रेमचंद’ (1941), ‘भारतेंदु युग’ (1943), ‘भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परंपरा’ (भारतेंदु युग का परिवर्द्धित संस्करण) (1975), ‘प्रगति और परंपरा’ (1949), ‘संस्कृति और साहित्य’ (1948), ‘निराला’ (1947), ‘प्रेमचंद और उनका युग” (1952), ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र’ (1953), ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति’ (1954), ‘प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ’ (1954), ‘लोक जीवन और साहित्य’ (1955) ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ (1955), ‘राष्ट्रभाषा की समस्या’ (1956), ‘मानव सभ्यता का विकास’ (1958), ‘स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्य’ (1956), ‘भाषा और समाज’ (1958), ‘सन सत्तावन की राज क्रांति’ (1957), ‘निराला की साहित्य-साधना’ (1967), ‘साहित्य स्थायी मूल्य और मूल्यांकन’ (1968), ‘निराला की साहित्य-साधना’ (खंड-दो, 1972), ‘निराला की साहित्य-साधना’ (खंड-तीन, 1978), ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण’ (1977), ‘नयी कविता और अस्तित्ववाद’ (1978), ‘भारत की भाषा समस्या’ (1978), ‘आर्य और द्रविड़ भाषा परिवारों का संबंध’ (1979), ‘प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी’ (तीन खंड 1979, 1980, 1981-1982), ‘परंपरा का मूल्यांकन’ (1981), ‘भाषा, युग बोध और कविता’ (1981), ‘कथा विवेचना और गद्य शिल्प’ (1982), ‘भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद’ (खंड एक 1982, खंड दो 1994), ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’ (1984), ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ’ (1984), ‘लोकजागरण और हिंदी साहित्य’ (1985), ‘हिंदी जाति का साहित्य’ (1986), ‘प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल’ (1988). ‘आस्था और सौंदर्य’ (नया संस्करण) (1990), ‘भारतीय इतिहास की समस्याएँ’ (1990), ‘स्वाधीनता संग्राम : बदलते परिप्रेक्ष्य’ (1992), ‘भारतीय इतिहास और ऐतिहासिक भौतिकवाद’ (1992), ‘पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद’ (1993), ‘भारतीय नवजागरण और यूरोप’ (1993), ‘इतिहास दर्शन’ (1995), ‘भारतीय साहित्य की भूमिका’, ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ (दो खंड 1999), ‘गांधी, आम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ’ (2000)।

(ख) अंग्रेज़ी में पुस्तकें

‘एन इंट्रोडक्शन टु इंगलिश रोमाण्टिक पोयट्री’ (1946), ‘स्टडीज़ : नाइन्टीन्थ सेंचुरी इंगलिश पोयट्री’ (1960), ‘एसेज ऑन शेक्सपीरियन ट्रेजेडी’ (1970) ।


 (ग) आत्मकथा

 ‘अपनी धरती अपने लोग’ {तीन खंड – (1) मुंडेर पर सूरज 1996, (2) देर सबेर -1996, (3) आपस की बातें 1996}।

(घ) अन्य पुस्तकें

‘बड़े भाई’ (1986), ‘घर की बात’ (1983), ‘पंचरत्न’ (1980)।

डॉ.रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि का मूल्यांकनपरक निष्कर्ष

डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचना-कर्म पर विचार करते हुए Dr Ramvilas Sharma ki Alochana Drishti के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त किए जा सकते हैं:

1. डॉ. रामविलास शर्मा का आलोचना-कर्म हिंदी साहित्य ही नहीं, बल्कि समग्र भारतीय साहित्य की परंपरा की दिशा में किया गया एक महत्वपूर्ण प्रयत्न है। उन्होंने संस्कृत साहित्य से लेकर हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दौर की समूची परंपरा का अत्यंत विस्तार के साथ वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया है। परंपरा के मूल्यांकन में उनके द्वारा अपनाए गए मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी मानदंडों से हिंदी आलोचना का चिंतन पाट चौड़ा और व्यापक रूप में सामने आया है।

2. उन्होंने हिंदी आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए कठिन संघर्ष किया है। मूलतः वे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के ही हिंदी आलोचना में संशोधित-संपादित-परिष्कृत नव्य संस्करण हैं।

3. उनके चिंतन के दो मौलिक प्रदेय बहुत महत्वपूर्ण हैं (1) हिंदी जाति की अवधारणा और हिंदी प्रदेश की संस्कृति; तथा (2) हिंदी में नवजागरण की अवधारणा और स्वरूप तथा भारत-एशिया-विश्व जागरण का संदर्भ।

4. वाल्मीकि, व्यास, भवभूति, कालिदास, तुलसीदास, भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचंद, निराला, केदारनाथ अग्रवाल की प्रगतिशील परंपरा के वे हिमायती थे। उनका मत है कि आलोचना में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, कथा साहित्य में मुंशी प्रेमचंद कविता के क्षेत्र में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ आधुनिक हिंदी साहित्य में सबसे बड़े नाम हैं।

5. वे हिंदी आलोचना में व्याप्त रीतिवादी सामंतवादी-पूँजीवादी-साम्राज्यवादी-व्यक्तिवादी मूल्यों का विरोध करते हैं और आर्थिक से ज्यादा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में साहित्य को परखने की वकालत करते हैं। साहित्य के लोकजागरणवादी मूल्यों में उनकी गहन आस्था है।

6. वे सम्प्रदायवादी मार्क्सवाद से मुक्त होकर आलोचना-दृष्टि में मार्क्सवाद का उपयोग तो करते हैं परंतु उसकी गुलामी नहीं करते। यही कारण है कि हिंदी के ज्यादातर मार्क्सवादी उनसे नाराज होने पर उन्हें ‘पुनरुत्थानवादी आलोचक’ कहते हैं और उनके विचारों पर आपत्ति उठाते हैं।

7. उन्होंने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नाम से कोई पुस्तक नहीं लिखी है। लेकिन अपनी महत्वपूर्ण कृतियों के माध्यम से हमारी जातीय परंपरा का जो मूल्यांकन उन्होंने किया है वह हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वालों के लिए भारी खजाना और दिशा-दृष्टि देने वाला है।

8. हिंदी भाषा की विकास-परंपरा पर किया गया उनका चिंतन हिंदी की जातीय अस्मिता को समझने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है।

9. डॉ. शर्मा एक ऐसे प्रगतिशील विचारक और प्रखर आलोचक हैं जिन्होंने हिंदी आलोचना को कलावाद-रूपवाद से मुक्त करने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी है। मार्क्सवाद के यथार्थवादी चिंतन को दृढ़ आधार देने के लिए उन्होंने हिंदी आलोचना में ऐतिहासिक कार्य किया है।

10. उन्होंने हिंदी साहित्यशास्त्र को समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा इतिहास से जोड़कर एक नई कसौटी का निर्माण किया है जिसे गजानन माधव  मुक्तिबोध ‘सभ्यता-समीक्षा’ नाम देते थे।

11. हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण रचनाओं और रचनाकारों के मूल्यांकन के लिए उन्होंने ‘परशुराम तेज’ धारण किया है। वे ‘पहली महान परंपरा’ का समर्थन करते हैं और जिसे ‘दूसरी परंपरा की खोज’ कहा गया है उसका कड़ा विरोध।

12. वे मानते हैं कि हिंदी की लोकजागरणवादी-प्रगतिशील परंपरा को नयी कविता काल में हिंदी के मार्क्सवादी आलोचकों ने गलत दिशा देकर पथ-भ्रष्ट कर दिया है।

13. हिंदी आलोचना में डॉ. रामविलास शर्मा का आलोचना-कर्म प्रगतिवादी विचारधारा के एक प्रमुख प्रवक्ता के रूप में आरंभ होता है। पर क्रमशः उनके लेखन में वाद का आग्रह हल्का होता जाता है और विवेचन प्रधान।

14. वे किसी रचनाकार के विचार की जितनी अच्छी व्याख्या-मूल्यांकन कर सकते हैं उतनी उसकी संवेदना या रचनात्मकता की नहीं। इसी प्रवृत्ति का परिणाम यह हुआ है कि ध्वंसात्मक आलोचना उन्हें उतनी ही प्रिय है जितनी अपने मत की स्थापना।

15. भारतेंदु, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद और निराला को हिंदी आलोचना के केंद्र में स्थापित करने का श्रेय उन्हें वैसे ही प्राप्त है जैसे जायसी और तुलसीदास का आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को ‘कबीर’ के लिए प्राप्त है।

16. भारतेंदु,  आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मुंशी प्रेमचंद, निराला के माध्यम से डॉ. रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण का स्वच्छ नक्शा तैयार किया है।

17. अनेक प्रकार के विवादों के बावजूद डॉ. रामविलास शर्मा को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बाद की हिंदी आलोचना का सबसे बड़ा आलोचक कहा जा सकता है।

 18. डॉ. रामविलास शर्मा मुख्यत: आधुनिक साहित्यक के आलोचक हैं, लेकिन हिंदी की जातीय चेतना के विकास पर विचार करते हुए अपनी परंपरा के मूल्यांकन की दृष्टि से उन्होंने भक्ति-काव्य पर भी यथेष्ठ विचार किया । भक्ति आंदोलन को उन्होंने ‘लोक जागरण’ कहा है ।

डॉ. शर्मा के अनुसार सामंत-विरोधी चेतना और लोक धर्मिता संत-साहित्य की सच्ची परंपरा है । उनके अनुसार सामंती व्यवस्था का विरोध भक्ति-काव्य की मुख्य चेतना है । डॉ शर्मा के अनुसार तुलसीदास का दैन्य और  गर्व दोनों उनकी भक्ति के सामंत-विरोधी मूल्य हैं । इसीलिए वे तुलसीदास को भारत का श्रेष्ठ और अमर कवि मानते हैं।

19. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘छायावाद’ को ‘रहस्यवाद’ और ‘काव्यशैली’ के दो अर्थों में सीमित कर परिभाषित कर दिया । इससे असहमत होकर डॉ.रामविलास शर्मा ने लिखा कि “छायावाद को इन डॉ अर्थों तक सीमित नहीं किया जा सकता । छायावाद हिंदी साहित्य की रोमांटिक धारा है । वह मूलतः रीतिकालीन परंपरा का विरोधी है। वह एक मानवववादी धारा है जिसका एक कमजोर पक्ष रहस्यवाद भी है ।”  (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिंदी आलोचना)

20. ‘निराला’ डॉ.शर्मा के प्रिय कवि हैं । तुलसीदास के बाद निराला को ही उन्होंने हिंदी का सबसे बड़ा कवि माना है । उन्होंने अपने आलोचनात्मक  लेखन की शुरुआत ही ‘निराला’ की कविताओं पर लेख लिखकर की थी ।

निराला एक प्रकार से डॉ.शर्मा के काव्य-बोध के प्रतीक हैं। निराला साहित्य के मार्मिक प्रभाव के विवेचन और कलात्मक सौन्दर्य के उद्घाटन में डॉ.शर्मा के आलोचनात्मक संघर्ष और उनका उत्कर्ष देखा जा सकता है।

डॉ.शर्मा ने लिखा है – “निराला क्रान्ति के कवि हैं, उस क्रान्ति के, जिसका लक्ष्य भारत को विदेशी पराधीनता से मुक्त कराना ही नहीं, जनता के सामाजिक जीवन में मौलिक परिवर्तन करना भी है ।”

(निराला की साहित्य साधना-द्वितीय खंड)

21. डॉ.रामविलास शर्मा ने केदारनाथ अग्रवाल को प्रगतिशील काव्यधारा का प्रतिनिधि कवि माना है । केदारनाथ अग्रवाल के साथ त्रिलोचन और नागार्जुन भी हैं । ये तीनों कवि निराला के जीवन-संघर्ष और उनके काव्य-प्रयोगों से सकारात्मक रूप से प्रेरित हैं तथा आधुनिक होने के साथ-साथ परंपरा से जुड़े हुए भी हैं ।

22. डॉ.रामविलास शर्मा के अनुसार प्रेमचंद का साहित्य अपने समय के भारत के और स्वाधीनता आंदोलन का प्रतिबिंब है । इस प्रतिबिंब में भारतीय जनता के संघर्ष के साथ-साथ उस समय के सामाजिक जीवन और स्वाधीनता आंदोलन की असंगतियाँ भी हैं। अपने कलात्मक महत्त्व के साथ प्रेमचंद का साहित्य भारत का ऐतिहासिक दस्तावेज़ भी है । डॉ. शर्मा का निष्कर्ष है कि प्रेमचंद का कथा-साहित्य भारत के अजेय जनता की आवाज है ।

निष्कर्ष

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि डॉ.रामविलास शर्मा की साहित्य-समीक्षा और Dr Ramvilas Sharma ki Alochana Drishti का फलक जितना व्यापक और बहुआयामी है, उसकी प्रकृति उतनी ही गंभीर और वस्तुनिष्ठ है । उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक समीक्षा के सूत्र परस्पर जुड़े हुए हैं । उनके आलोचकीय निष्कर्षों को स्पष्ट करने के में ये सूत्र एक-दूसरे के अनिवार्य संदर्भ है । उनकी आलोचना का मुख्य आधार उनकी सामाजिक चिंताएँ हैं ।

मार्क्सवाद को अपनाने के कारण उनके चिंतन में शोषणमुक्त समाज के निर्माण का लक्ष्य प्रमुख रहा है । उनके लेखन का मुख्य सरोकार इस लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने हेतु जन-चेतना जगाना है । उनके चिंतन की पृष्ठभूमि में विश्व-मानवता और मानवीय मूल्यों कि चिंता गहराई से व्याप्त है ।

डॉ. शर्मा ने हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं, प्रवृत्तियों और मुख्य साहित्यकारों का मूल्यांकन करके हिंदी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा का उद्घाटन किया ।

इस प्रकार Dr Ramvilas Sharma ki Alochana Drishti ने एक ओर जहाँ  हिंदी साहित्य के इतिहास को समझने की दृष्टि हमें दी, वहीं दूसरी ओर साहित्य-सृजन और मूल्यांकन के आधार बताकर साहित्य की भावी दिशा का निर्देश भी किया ।  


 

error: Content is protected !!