राग दरबारी उपन्यास की भाषा-शैली | rag darbari upanyas ki bhasha-shaili

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श्रीलाल शुक्लजी ने ‘रागदरबारी’ का लेखन 1964 के अंत में शुरू किया और 1967 में समाप्त ।

‘रागदरबारी’ उपन्यास का प्रकाशन 1968 ई. में हुआ और 1970 ई. में इस पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।

श्रीलाल शुक्ल का ‘रागदरबारी’ (1968 ई०) एक विशिष्ट उपन्यास है। लेखक ने पूरा उपन्यास व्यंग्यात्मक शैली में लिखा है। श्रीलाल शुक्ल ने ‘राग दरबारी’ में ग्रामीण जीवन का चित्रण करते हुए स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की स्थितियों का चित्रण किया है तथा गाँव में विभिन्न वर्गों की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के साथ ग्राम-पंचायतों की दलबंदी, गुटबंदी तथा चुनावों के हथकंडों, सरकारी अधिकारियों एवं राजनीतिक लोगों के भ्रष्टाचार पर बहुत ही व्यंग्यात्मक शैली में प्रकाश डाला है ।

कथा का केन्द्र ‘शिवपाल गंज’ है। लेकिन यह कथा भारत के किसी भी गाँव की हो सकती है। मुख्य समस्या शिवपालगंज के कॉलेज की है किन्तु अन्य सारी समस्याएँ-स्वार्थ, मूल्यहीनता, अमानवीयता, अवसरवाद, छल-प्रपंच, नैतिक गिरावट, कुत्सित राजनीति-इसी के साथ जुड़ी हैं। गाँवों के आज के जीवन-यथार्थ को इस उपन्यास में अच्छी तरह देखा जा सकता है।

यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक है । यह न केवल अपने व्यंग्य के तीखी धार के लिए प्रसिद्ध है बल्कि अपनी भाषा-शैली के लिए भी हिंदी उपन्यास परंपरा में अत्यंत विशिष्ट स्थान रखती है । तो आइये अब हम rag darbari upanyas ki bhasha-shaili को विस्तार से समझने का प्रयास करें ।

भाषा भाषा भावों की वाहिका होती है अथर्थात उपन्यासकार के मानसिक भावों को भाषा के माध्यम से मूर्तता प्राप्त होती है। उपन्यास की भाषा-शैली का पर विचार करते समय हमें दो दृष्टियों से विचार करना होता है।

उपन्यासकार की अपनी भाषा-शैली और उसके पात्रों द्वारा प्रयुक्त भाषा-शैली । यद्यपि औपन्यासिक पात्रों द्वारा प्रयुक्त भाषा भी उपन्यासकार के गुण-कौशल की परिचायक होती है फिर भी पात्रों की अवस्था एवं मानसिक स्थिति के अनुसार भाषा में भेद हो सकता है । इसमें शैथिल्य तथा कसावट भी आ सकती है।

जो भाषा प्रत्यक्ष रूप से लेखक वर्णन में प्रयुक्त करता है वह लेखक की अपनी भाषा होती है। किसी भी सहित्यिक रचना का महत्व उसके अन्य गुणों के साथ उसकी भाषा-शैली के आधार पर भी आंका जा सकता है। रचना में यदि भाषा-शैली प्रभावी, मार्मिक एवं सहज सम्प्रेषणीय हो और उसमें शब्दाडम्बर द्वारा ही कथा की रूपरेखा बनायी गयी हो तो रचना अपनी अर्थवत्ता और महत्व खो बैठती है।

‘राग दरबारी’ की भाषा-शैली (rag darbari ki shasha Shaili) का अध्ययन करते समय उसके निम्नलिखित रूप हमारे सामने आते है:

(1) कथा वर्णन में प्रयुक्त भाषा रूप

(1) सरल स्वाभाविक बोलचाल की भाषा

(2) अलंकृत एवं काव्यात्मक भाषा

(3) गम्भीर चिन्तन प्रधान भाषा

(2) संवादों में प्रयुक्त भाषा रूप

(1) साधारण बोलचाल की भाषा (ग्रामीण प्रादेशिक भाषा का प्रयोग)

(2) शुद्ध परिनिष्ठित खड़ी बोली का रूप

(3) गम्भीर चिन्तन प्रधान भाषा

(4) अलंकृत एवं काव्यात्मक भाषा

तो चली अब इन पर सोदाहरण ‘राग दरबारी’ के परिप्रेक्ष्य में विचार करें तथा यह देखने का प्रयास करें कि उपन्यासकार भाषा के माध्यम से अपने विचारों को संप्रेषित करने में कितने सफल हो पाए हैं ।

 कथा वर्णन में प्रयुक्त भाषा रूप

सरल स्वाभाविक बोलचाल की भाषा

श्रीलाल शुक्लजी ने व्यंग्यात्मक शैली में ‘राग दरबारी’ उपन्यास की रचना की है जिसे आंचलिक उपन्यास भी कहा जा सकता है।

आंचलिकता की प्रथम आवश्यकता यह है कि लेखक उसी विशेष अंचल की भाषा का प्रयोग करे। आंचलिक भाषा की आवश्यकता यद्यपि संवादों में अधिक है परन्तु वर्णन में भी साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग आवश्यक है। इसलिए लेखक ने उपन्यास में साधारण बोलचाल की भाषा का सहज प्रयोग किया है जिसे व्यंग्यात्मकता का पुट देकर उन्होंने ग्रामीण वातावरण में रहने वाले सीधे साधे जीवन्त पात्रों के जीवन्त वातावरण का सजीव वर्णन किया है। एक उदाहरण दृष्टव्य है :-

“यहाँ बैठकर अगर कोई चारों ओर निगाह दौड़ाता तो उसे मालूम होता कि वह इतिहास के किसी कोने में खड़ा है। अभी इस थाने के लिए फाउन्टेन पेन नहीं बनाया, इस दिशा में कुल इतनी तरक्की हुई थी कि कलम सरंकडे का नहीं था। यहाँ के लिए अभी टेलीफोन की ईजाद नहीं हुई थी। हथियारों में कुछ प्राचीन राइफलें थीं, जो लगता था गदर के दिनों में इस्तेमाल हुई होंगी । वैसे-सिपाही के साधारण प्रयोग के लिए बाँस की लाठी थी, जिसके बारे में एक कवि ने बताया है कि वह नदी नाले पार करने और झपटकर कुते को मारने में उपयोगी साबित होती है। यहाँ के लिए जीप का अस्तित्व नहीं था। उसका काम करने के लिए दो तीन चौकीदारों की प्यार की छांव में पलने वाली घोड़ा नाम की एक सवारी थी, जो शेरशाह के जमाने में भी हुआ करती थी।”

अलंकृत एवं काव्यात्मक भाषा

वर्णन में व्यंग्यात्मकता का समावेश करने के लिए कभी कभी लेखक अलंकृत और काव्यात्मक भाषा का प्रयोग करता है।

ग्रामीण वातावरण में इस भाषा का अधिक प्रयोग होता है इससे पात्रों की भावनात्मक अभिव्यक्ति तथा वर्णन की सजीवता दोनों ही अभिव्यक्त होती हैं। यही कारण है कि लेखक ने ऐसी भाषा का प्रयोग भी यदा-कदा किया है।

 प्रस्तुत उपन्यास में शिवपालगंज रसिकों का गाँव है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति चुहलबाजी तथा हास्य में लिप्त है । अतः उनका वर्णन करते समय अलंकृत माभा का समावेश होना स्वाभाविक ही है :-

“वेद महाराज के हाल हमसे न कहलाओ उनका खाता खुल गया तो भम्भक जैसा निकल आएगा। यही रामसरूप बैदजी के मुँह में मुँह डालकर तीन-तेरह की बातें किया करता था और जब दो ठेला गेहूँ लदवाकर रफूचक्कर हो गया तो दस दिन से टिलटिला रहे हैं। हम भी यूनियन में है। कह रहे थे प्रस्ताव में चलकर हाथ उठा दो। हम बोले कि हमसे हाथ न उठवाओ, महाराजा मैं हाथ उठाउँगा तो लोग काँपने लगेंगे।”

कृपया इसे भी पढ़ें : मैला आँचल की आंचलिकता

इसी प्रकार रंगनाथ की कल्पना देखिये जिसमें वह बेला का स्मरण करके भावुक हो उठता है :-

“बेला के बारे में उसने बहुत सोचा। इतना सोचा कि वह हर नाप और वजन के सैकड़ों स्तन और नितम्ब उसके दिमाग में उभरने और अस्त होने लगे। वे जोड़ो में प्रकट हुए गुच्छों की शक्ल में फूले और एक दूसरे को धक्के देकर भाग गये। रंगनाथ ने बहुत चाहा कि इनमें से एक भरी पूरी लड़की की तस्वीर निकल आए पर वैसा न होसका । उसकी कल्पना ने एक बार तो लड़की के पूरे धड़ को पकड़ लिया परन्तु उसके कुछ न हुआ, क्योंकि उसका चेहरा गैर-हाजिर बना रहा।”

गंभीर चिन्तन प्रधान भाषा

जहाँ उपन्यासकार विचारों की अभिव्यक्ति करता है इसका चिन्तन पक्ष प्रबल हो जाता है वहाँ वह गम्भीर चिन्तन प्रधान एवं परिष्कृत भाषा का प्रयोग करता है। यद्यपि टोन व्यंग्यात्मक ही रहती है। परन्तु वह चुभने वाली, कचोटने वाली होती है।

यहाँ कथा प्रवाह के अग्रसर होने के स्थान पर गद्यात्मकता ही अधिक दिखाई देती है किन्तु अधिक समय तक यह चिन्तन कथा-प्रवाह को नहीं रोक पाया। उदाहरण प्रस्तुत हैः-

“वेदान्त हमारी परम्परा है और चूँकि गुटबन्दी का अर्थ वेदान्त से खींचा जा सकता है इसलिए गुटबन्दी भी हमारी परम्परा है और दोनों हमारी सांस्कृतिक परम्परायें हैं। आजादी मिलने के बाद हमने अपनी बहुत सी सांस्कृतिक परम्पराओं को फिर से खोदकर निकाला है। तभी हम हवाई जहाज से यूरोप जाते हैं परन्तु यात्रा का प्रोग्राम ज्योतिषी से बनवाते है। फारेन एक्सेंचेज और इन्कमटैन्स की दिक्कतें दूर करने के लिए बाबाओं का आशीर्वाद लेते हैं। उसी तरह विलायती तालीम में पाया हुआ जनतन्त्र स्वीकार करते हैं और उसको चलाने के लिए अपनी परम्परागत गुटबन्दी का सहारा लेते हैं। हमारे इतिहास में चाहे युद्धकाल रहा हो, या शान्ति काल, राज महलों से लेकर खलिहानों तक गुटबन्दी के द्वारा ‘मैं’ को “तू” और “तू” को “मैं” बनाने की शानदार परम्परा रही है।

संवादों में प्रयुक्त भाषा रूप

साधारण बोलचाल की भाषा

 वर्णनों की भांति ही श्रीलाल शुक्लजी ने पात्रों के संवादों में भी भाषा का सुन्दर एवं सहज रूप से प्रयोग किया है । पात्रों के आँचलिक परिवेश के अनुरूप ही लेखक ने साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है, क्योंकि पात्रों की शिक्षा के अनुरूप ही उनका भाषा प्रयोग होता है।

अतः वे अपनी स्वाभाविक भाषा के द्वारा ही सजीव बन पड़ते हैं, साथ ही उनके संवाद भी स्वाभाविक प्रतीत होते हैं। साधारण बोलचाल की भाषा के संवाद का एक उदाहरण प्रस्तुत है

संरपच ने मुसहर से पूछा, ‘तो फिर तुम्हारी हड्डी नहीं टूटी ? ऐसा है, तो मामला दफा 323 का ही है।’

कुछ रूककर उन्होंने अपनी बात दोहराई, ‘तो फिर मामला 323 का ही रह जाता है। भाला बरछी तो नहीं चली। चली हो तो बताओ। मगर तब मामला दफा 324 का हो जाएगा।

मुसहर ने घबराकर कहा, ‘नहीं संरपंचजी हमारे यहाँ भाले बरछी का क्या काम । सात पीढ़ी से हम लोग लाठी ही चलाते आ रहे हैं।‘

शुद्ध परिनिष्ठित खड़ी बोली का प्रयोग

इस प्रकार की भाषा का प्रयोग लेखक ने केवल उन्हीं पात्रों के संवादों में किया है जो शिक्षित हैं। क्योंकि ऐसे पात्रों की भाषा में परिनिष्ठता पाठक स्वीकार कर लेता है।

 यदि गँवार अनपढ़ पात्र भी इसी प्रकार की भाषा बोलने लगें तो वह भाषा का दोष बन जाएगा । लेखक ने वैद्यजी, रंगनाथ, प्रिंसिपल महोदय आदि के संवादों में ऐसी भाषा का प्रयोग किया है जिससे भाषा में औचित्य तथा स्वाभाविकता का गुण आ गया है। इस संदर्भ में एक उदाहरण दृष्टव्य है –

“सहकारिता में किसी की अपनी सम्पत्ति नहीं होती वह सामूहिक सम्पत्ति हो जाती है। कई व्यक्तियों की सम्पत्ति एक स्थान पर एकत्रित की जाती है। उसकी सुरक्षा वह करता है जिसकी वह सम्पत्ति नहीं। सम्पत्ति उसकी नहीं है परन्तु वह उसकी सुरक्षा के लिए नियुक्त होता है। यदि वह उसको अनुचित व्यय कर डाले तो यह गबन है।”

तथा-

“मेरे विरुद्ध व्यक्तिगत आक्षेप लगाये गये हैं। आक्षेप करना अनुचित है। इस वातावरण में कोई भी व्यक्ति काम नहीं कर सकता। शिष्ट व्यक्ति तो बिलकुल ही नहीं कर सकता है। मैं इस प्रकार के आक्षेप लगाने वालों में नहीं । आक्षेप करने वाले श्री रामचरण है। मैं उनका आदर करता हूँ। मेरे मन में उनके प्रति बड़ी श्रद्धा है।”

गम्भीर चिन्तन प्रधान भाषा

उपन्यास में ऐसे अनेक स्थल आये हैं जहाँ धर्म, राजनीति, शिक्षा, मूल्य आदि को लेकर गंभीर चिन्तन पक्ष उभरा है। यह चिन्तन यथार्थपरक है, अतः कहीं कहीं व्यंग्यात्मक है परन्तु उससे विचार के गांभीर्य पर कोई अन्तर नहीं पड़ा।

ऐसे अवसरों पर व्यक्तियों के द्वारा जो भाषा प्रयुक्त हुई है वह भी अपेक्षाकृत गंभीर एवं चिन्तन परक है। कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं :

“तुम मंझोली हैसियत के मनुष्य हो, मनुष्यता के कीचड़ में फँस गये हो। तुम्हारे चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ है।”

“कीचड़ की चापलूसी मत करो। इस मुगालते में मत रहो कि कीचड़ से कमल पैदा होता है। कीचड़ से कीचड़ ही पनपता है, वहीं फैलता है, वहीं उछलता है।”

अलंकृत एवं काव्यात्मक भाषा

 ‘राग दरबारी’ का मूल उद्देश्य व्यंग्य के माध्यम से यथार्थ की अभिव्यक्ति है। व्यंग्य कठोर एवं शुष्क होता है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उपन्यास में काव्यात्मकता का पूर्णतः अभाव है।

 लेखक ने यथार्थ चित्रण करने के लिए शिवपालगंज के अनुकूल ही काव्यात्मक भाषा का प्रयोग किया है। चाहे वह साहित्यिक दृष्टि से शुद्ध अलंकृत एवं काव्यात्मकता भाषा न प्रतीत हो परन्तु पात्र की मानसिकता के अनुरूप, उसकी साहित्यिक क्षमता के अनुकूल ही उन्होंने सस्ती काव्यात्मकता का प्रयोग किया है जिससे यथार्थ की अभिव्यक्ति सुन्दर रूप से हुई है तथा तावरण में व्यंग्यात्मकता भी बनी रही है। इसका एक उदाहरण निम्नानुसार है :

“अब तो मेरी यह हालत हो गई कि सहा भी न जाए, रहा भी न जाए। देखे न मेरा दिल मचल गया, तुम्हें देखा और बदल गया। और तुम हो कि कभी उड़ जाए, कभी मुड़ जाए, भेद जिया के खोले ना। मुझको तुमसे यही शिकायत है कि तुमको प्यार छिपाने की बुरी आदत है।”

 ‘राग दरबारी’ की भाषा सम्बन्धी विशेषताएँ

श्रीलाल शुक्लजी की भाषा की विशेषताओं पर विस्तार से विचार करने पर हमें उसमें निम्नांकित विशेषताएँ मिलती हैं :

सरलता, रोचकता एवं प्रवाहपूर्णता

श्री लाल शुक्ल की भाषा की यह विशेषता हमें उनके उपन्यास में सर्वत्र ही दिखाई पड़ती है। उनकी भाषा सरल, रोचक एवं प्रवाहपर्ण है। अपने परिवेश को जीवंत रूप से चित्रित करने में वह पूरी तरह से सफल भी रही है और इन्हीं गुणों के कारण उसमें सर्वत्र स्वाभाविकता भी परिलक्षित होती है और इससे प्रत्येक प्रसंग को भलीभांति समझने में पाठक को सहायता भी मिलती है। भाषा की यह विशेषता कथा वर्णन एवं संवादों-दोनों में ही दिखाई देती है। इसी कारण से वर्णन एवं संवाद सहज संवेद्य हो गये है जिन्हें समझने में पाठक को तनिक भी कठिनाई नहीं होती ।

प्रसंगानुकूलता

शुक्ल जी की भाषा की एक अन्य विशेषता उसकी प्रसंगानुकूलता है । लेखक का मुख्य स्वर यद्यपि व्यंग्य ही रहा है परन्तु किन्हीं प्रसंगों में उन्होंने वातावरण के अनुकूल गंभीर भाषा का प्रयोग भी किया है। ऐसे अवसरों पर उनकी भाषा तत्सम प्रधान रही है जबकि हल्के फुल्के क्षणों में मुहावरेदार ग्रामीण भाषा का प्रयोग किया है ।

प्रसाद गुण सम्पन्नता

 सम्पूर्ण उपन्यास की भाषा को देखा जाए तो हम पायेंगे कि प्रसाद गुण उसकी सर्वप्रधान विशेषता है। बल्कि कहीं-कहीं तो लेखक ने अतियथार्थवादी वर्णन करते हुए प्रसादता की सीमा का भी अतिक्रमण किया है। प्रसादता का अर्थ है –  अर्थ ग्रहण करने में सुगमता अर्थात उपन्यास की भाषा में यह गुण है कि वह पाठक को सीधी और आसानी से समझ में आ जाती है।

व्यंग्य का समावेश

 ‘राग दरबारी’ एक व्यंग्य प्रधान आँचलिकउपन्यास है। इसके वर्णन एवं संवादों, सभी में व्यंग्य का समावेश है। वास्तव में उपन्यास में प्रारंभ से अन्त तक एक ही स्वर उपलब्ध होता है और वह है व्यंग्य का । उस स्वर के अनुरूप ही भाषा भी व्यंग्य प्रधान हो गई है।

चित्रात्मकता

 चित्रात्मकता आँचलिक उपन्यासों का विशेष गुण होता है। लेखक ने भी वर्णन करते समय किसी स्थान का अथवा व्यक्ति का ऐसा शब्द चित्र उपस्थित किया है कि व्यक्ति अथवा स्थान पाठक के मानसपटल पर साक्षात उभर आता है। स्थानों के वर्णन के संदर्भ में शिवपालगंज का सामुदायिक मिलन केन्द्र का वर्णन देखें :-

“दो बड़े और दो छोटे कमरों का एक डाक बंगला था जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने छोड़ दिया था। उसके तीन ओर कच्ची दीवालें पर छप्पर डालकर कुछ अस्तबल बनाये गये थे। अस्तबलों से कुछ दूरी पर पक्की ईटों की दीवाल पर टिन डालकर एक दूकान सी खोली गई थी। एक और रेलवे फाटक के पास पाई जाने वाली एक कमरे की गुम्टी थी। दूसरी ओर एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे एक कब्र जैसी चबूतरा था। अस्तबलों के पास एक नये ढंग की इमारात बनी थी जिस पर लिखा था, “सामुदायिक मिलन केन्द्र, शिवपालगंज ।”

पात्रानुकूलता

राग-दरबारी उपन्यास की भाषा पात्रानुकूल है।उपन्यास के अधिकांश पात्र ग्रामीण परिवेश के हैं, अतः स्वाभावतः ही उनकी भाषा में ग्रामीण तत्व विद्यमान हैं।

एक विशेष अंचल की कथा उसी के रहने वाले व्यक्तियों द्वारा कहीं गई है अतः भाषा में आँचलिकता आना स्वाभाविक ही है।

 प्रिंसिपल साहेब जो पढ़े-लिखे व्यक्ति है, सामान्य स्थिति में वे खड़ी बोली बोलते है परन्तु, क्रोध की दशा में वे भी अपनी प्रादेशिक भाषा का प्रयोग करने लग जाते है।

 इस प्रकार भाषा पात्रों के मनोवेगों एवं मनोभावों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम होता है। इस माध्यम का प्रयोग करके लेखक ने प्रत्येक पात्र को एक विशिष्ट भाषा दी है।

वर्णन-विचित्रता

शुक्लजी कई बार विस्तार को समेटने के लिए घटनाओं को इतनी तीव्रता से आगे सरका देते हैं कि उसमें एक तो पाठकीय श्रम बचता है तथा दूसरे इस‌से भाषा में वर्णन वैचित्र्य भी आ जाता है।

सनीचर के ग्राम सभा के प्रधान के चुनावों के समय लेखक चुनाव जीतने की तीन विधियां बताता है इन्ही में से एक रामनगर वाले तरीके में से एक उदाहरण प्रस्तुत है ー

“चुनाव के पाँच दिन पहले तक इसी तरह की उपेक्षा का वातावरण बना रहा होता। यह था कि उम्मीदवार लोगों से वोट माँगने के लिए आते तो लोग दोनों से ज्यादातर यही कहते. ‘हमें कोन वोट का अचार डालना है। जितनेकहो उतने बोट दे दें।’

इस सबसे दोनों उम्मीदवार इस नतीजे पर पहुँचे कि हमें कोई भी वोट नहीं देगा। घबराकर वह प्रजातन्त्र की दुहाई देने लगे। उन्होंने लोगों को उनके बोट की कीमत बतानी शुरू कर दी। उन्होंने कहा कि अगर तुम अपना कीमती वोट गलत आदमी को दे दोगे तो प्रजातंत्र खतरे में पड़ जाएगा। लोग यह बात समझ नहीं पाये, जो समझे भी उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि गलत आदमी को बोट देने से प्रजातन्त्र को कोई खतरा नहीं। तुम वोट दे सकते हो, प्रजातन्त्र के लिए इतना ही काफी है। गलत सही तो लगा ही रहता है, देखो न मारे देश में क्या हो रहा है।

ऐसी बात करने वाले दो-एक लोग ही थे परन्तु प्रजातन्त्र को निरर्थक बनाने के लिए इतना काफी था। इसलिए दोनों उम्मीदवारों ने अपने प्रचार का तरीका बदल लिया और प्रधान के अधिकारों की बात करते हुए कहना शुरू
किया कि वह गाँव की सारी बंजर जमीन दूसरों को दे सकता है और जो बंजर लोगों ने बकायदे अपने कब्जे में कर लिया है, इससे उन्हें बेदखल कर सकता है।”

वाक्य रचना सम्बन्धी विशेषताएँ

संक्षिप्त तथा चुस्त वाक्य रचना

 राग-दरबारी उपन्यास में वाक्य रचना का रूप प्रायः संक्षिप्त तथा चुस्त ही है। उसमें न तो शैथिल्य ही है और न ही विस्तार भाव है। इससे अर्थ में गंभीरता  और रचना में कसाव आ गया है।

शुक्ल जी की वाक्य रचना सम्बन्धी विशेषता संवादों में भी है और वर्णन में भी।

प्रभावात्मक लम्बे-लम्बे वाक्य

प्रभाव की सृष्टि करने के लिए शुक्ल जी ने यदा-कदा लम्बे-लम्बे वाक्यों की सृष्टि की है। इन लम्बे वाक्यों के द्वारा पात्रों की मानसिक स्थिति स्पष्ट हो जाती है और पाठक भी बहुत ही सहजता से पात्र के मनोजगत में प्रवेश कर जाता है।

कलात्मक और सुघड़ वाक्य रचना

शुक्लजी को वाक्य रचना बड़ी ही कलात्मक और सुघड़ प्रतीत होती है। कहीं-कहीं काफी छोटे वाक्यों द्वारा ही उन्होंने कलात्मकता उत्पन्न की है । यह गुण उपन्यास की भाषा में सर्वत्र उपलब्ध होता है ।

शब्द शिल्प सौंदर्य

शुक्ल जी की भाषा का शब्द सौन्दर्य वर्णित करने के लिए हमें उपन्यास में प्रयुक्त शब्द के रूपों, मुहावरों, सूक्तियों आदि को देखना होगा। इस दृष्टि से श्रीलाल शुक्लजी की भाषा में प्रयुक्त शब्द प्रसंगानुकूल, अनेक रूपों तथा भाषाओं के मिलते हैं। उनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है :

हिंदी के तत्सम शब्दों का प्रयोग

शुक्लजी ने ‘राग दरबारी’ उपन्यास में साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है फिर भी संस्कृत शब्दावली का प्रयोग भी खुलकर हुआ है।

लेखक ने पात्रों की मानसिक स्थिति के अनुरूप ही उनकी भाषा में संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया है। ये प्रायः वैद्यजी की भाषा में अधिक प्रयुक्त हुए है जिसमें स्थानीय, प्रागैतिहासिक, साम्यवाद सामुदायिक, कलंकित, आज्ञा, दर्शन, प्रामाणिकता, बौद्ध-विहार, प्रतिक्रिया, आहार, निद्रा, भय, मैथुन, यज्ञ, शाल, सुर-सुन्दरी, अलसकन्या, स्तर ज्योतिष, सामुद्रिक, अध्यात्म, चिरन्तन, स्वप्निल, अन्वेषणों, प्रतिमा, नवनिर्मित आदि प्रमुख हैं।

हिंदी के तद्भव तथा प्रादेशिक शब्दों का प्रयोग

‘राग दरबारी’ एक आँचलिक उपन्यास है जिसके अधिकांश पात्र अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित हैं। अतः उनकी भाषा में प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करने के लिए लेखक ने तद्भव तथा प्रादेशिक शब्दों का अधिक प्रयोग किया है।

वस्तुतः उपन्यास के प्रत्येक पृष्ठ की प्रत्येक पंक्ति में ऐसे शब्द उपलब्ध हो जाएंगे, फिर भी कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं – फुट्ट फैरी, लासेबाज, चुरेंट बॉछे, शिरिमानजी, बछेड़े, मरियल, हिनहिनाते, खुजलनी, गंजहा, टिप्पस, कंटाप दछंदर, चुनभुनाता, फीचता, निचोड़ता, घुग्घु, बहराइच, बाँगडू।

लेखक ने तो लोकगीतों का प्रयोग भी किया हैः-

माला मदार माँ मुँह खोलि कै सिन्नी बांरिनी

ससुर का देखिकै घूँघट, निकसा डेढ़हत्था

उर्दू, अरबी, फारसी के शब्द

भाषा में प्रवाहमयता लाने तथा व्यवहारिक बनाने के लिए लेखक ने साधारण बोलचाल के उर्दू, अरबी, फारसी आदि के शब्दों का प्रयोग भी खुलकर किया है।

इससे भाषा में सरलीकरण का गुण स्वतः ही आ जाता है। जैसे अरमान, हसीन, गम, तमन्ना, उभार, इंतिजार, बेजार, इसरार, इजलास, इकरार, आस्माँ, शराब, आँधिया, अहसास आदि ।

अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग

उर्दू के समान ही भाषा को स्वाभाविक और यथार्थ बनाने के लिए लेखक ने अंग्रेजी शब्दों का भी खुलकर प्रयोग किया है।

जैसे – न्यूटरल, आक्सीलेटर, परसनलिटी, कलट, ब्राडकास्ट, अपील, बार एसोसियेशन, पुलिस, हैव नाट्स, डिप्टी डायरेक्टर आफ ऐजुकेशन, कोआपरेटिव यूनियन, रजिस्ट्रार सोसाइटी, मैनेजिंग डायरेक्टर, इंटरमीजिएट, सेमिनार आदि ।

मुहावरे तथा लोकोक्तियाँ

शुक्ल जी ने मुहावरों का प्रयोग भी खुलकर किया है। क्योंकि ग्रामीण पात्र मुहावरों का प्रयोग बहुत करते हैं । अतः उनकी भाषा को स्वाभाविक बनाने के लिए लेखक ने कई स्थानों पर मुहावरेदार भाषा का प्रयोग किया है।

इनके माध्यम से लेखक ने शब्द चमत्कार उत्पन्न किया है तथा भाव गरिमा में अभिवृद्धि की है। कुछ मुहावरे दृष्टव्य है :

‘आप आम खाइये, पेड़ क्यों गिन रहे हैं, दुम हिलाकर जमीन सूँघने लगा। गिलहरी के सरपे महुआ चू पड़े तो समझेगी गाज गिर पड़ी, हाथी अपनी राह चलते जाते हैं, कुत्ते भोंकते रहते हैं, देह पर नहीं लत्ता, पान खाँय अलबत्ता, अंधेर नगरी चौपट राजा, सच्चे का बोलबाला, दुश्मन का मुँह काला, घोड़े की लात घोड़ा ही सह सकता है, बाँछे खिल गई, घास खोद रहा था, तिल का ताड़, जिसके छिलता है, वही चुनभुनाता है, तुम अपना दाद उधर से खुजलाओ, हम अपना इधर से खुजलाएँ, कुत्ते भुँका करते हैं, लोग अपनी राह चलते हैं, रोआँ-रोआँ सुलगना, तीन तेरह करना, हमारी लोमड़ी हमारे ही घर में हुआ-हुआ।’

सूक्तियों का प्रयोग

 भावशबलता से युक्त पात्रों के मुख से कहे गये कुछ वाक्य इतने सशक्त बन पडे हैं कि उन्हें सूक्ति कहना अनुचित न होगा। कुछ वाक्य व्यंग्यात्मक होते हुए भी पाठकों के मन में दीर्घकाल तक गूँजते हैं।

(भावशबलता का अर्थ है एक ही समय में कई या विभिन्न प्रकार के भावों का अनुभव करना या व्यक्त करना. यह भावों की जटिलता और तीव्रता को दर्शाता है, जहाँ एक से अधिक भाव एक साथ उठते हैं।)

अतः उनका उदाहरण देना भी उचित ही होगा:

1. वर्तमान शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी हई कुतिया है जिसे कोई भी लात मार सकता है।

2. परोपकार एक व्यक्तिवादी धर्म है।

3. नैतिकता एक चौकी है जो किनारे पर पड़ी है। सभा-सोसाइटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है।

4. जैसे बुद्धिमत्ता एक वैल्यू है वैसे ही बेवकूफी भी अपने आप में वैल्यू है ।

5. आदर्शवाद की तारीफ हम आदर्श के अन्तर्निहित मूल्य पर नहीं, उसके पीछे सहे जाने वाले त्याग, बलिदान और कष्ट के कारण करते हैं।

6. रिक्शे का चलन दो के लिए कंलक है। आदमी होकर आदमी पर बैठना ।

7. शहर में हर दिक्कत के आगे एक राह है, और देहात में हर राह के आगे एक दिक्कत ।

8. कीचड़ में कीचड़ ही पनपता है।

अलंकारों का प्रयोग

लेखक ने कहीं-कहीं अलंकारों का प्रयोग किया है किन्तु उनकी शैली व्यंग्यात्मक ही रही है। अतः अधिक का उदाहरण न देकर केवल दो उदाहरण प्रस्तुत हैं जिससे कथा में कहीं-कहीं काव्यात्मकता आ गई है।

1. वैसे देखने में उनकी शक्ल एक घबराये हुए मरियल बछेड़े की थी, पर उनका रोब पिछले पैरों पर खड़े हुए एक हिनहिनाते घोड़े सा पड़ता था ।

2. जैसे शाश्वत साहित्य लिखने वाला क्रान्तदर्शी साहित्कार भी रेडियो के अहलकारों के सामने झिझककर बात करता है उसी तरह छोटे बद्री पहलवान के आगे सक-पका गये।

इनमें उपमा और उदाहरण अलंकार प्रयुक्त है।

इस प्रकार शब्द प्रयोगों की दृष्टि से हम पाते हैं कि लेखक ने अत्यन्त जागरूकता से उपन्यास में भाषा का प्रयोग किया है।

निष्कर्ष

अतः निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि ‘राग दरबारी’ भाषा-शैली के दृष्टिकोण से अत्यंत सफल रचना है । श्रीलाल शुक्लजी ने प्रसंग और पात्रों के अनुकूल ही भाषा का सहजता से और कुशलता से प्रयोग किया है । वस्तु वर्णन में अथवा पात्रों का परिचय देते सामी उनकी भाषा अत्यंत जीवंत हो उठती है ।

उनके इस उपन्यास का मुख्य स्वर व्यंग्य का है और उनकी भाषा-शैली इसकी अभिव्यंजना में पूर्णरूपेण सफल है । ‘राग दरबारी’ न केवल अपने व्यंग्य की सजीवता के लिए बल्कि अपनी भाषा-शैली के लिए सदैव प्रासंगिक बनी रहेगी ।

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