महादेवी वर्मा की काव्यगत विशेषताएँ | Mahadevi Verma ki Kavyagat Visheshtaen

महादेवी वर्मा छायावाद की प्रतिनिधि कवयित्री हैं, अतः उनकी काव्य-कला में छायावादी काव्य-शैली के प्रमुख गुणों – लाक्षणिक मूर्तिमत्ता, स्थूल के स्थान पर सूक्ष्म उपमानों का प्रयोग, चित्रमयता, भाषा की कोमलता कल्पना की अधिकता, संगीतात्मकता आदि का होना स्वाभाविक ही है। तो आइए अब हम Mahadevi verma ki kavyagat visheshta को विस्तार से समझने का प्रयास करें ।

महादेवी प्रधानतः गीति-कवयित्री हैं। इस क्षेत्र में उन्होंने कुछ तो परम्परा का निर्वाह किया है और कुछ  मौलिक प्रयोग किये हैं। यहाँ उनकी कलागत विशेषताओं का विवेचन प्रस्तुत है। लेकिन इससे पहले हमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक नज़र डालनी होगी।

महादेवी वर्मा का व्यक्तित्व और कृतित्व

महादेवी वर्मा का जन्म 1907 ई० में फर्रुखाबाद में हुआ था। इनके माता-पिता दोनों शिक्षाप्रेमी थे। इनके नाना भी ब्रजभाषा के कवि थे। इससे बचपन से ही महादेवी वर्मा में कविता करने की रुचि उत्पन्न हो गई।

इनकी प्रारंभिक रचनाएँ ‘चाँद’ पत्रिका में प्रकाशित हुई और साथ ही उनका स्वागत भी हुआ। सरस गीतों की रचना में तो ये आधुनिक युग की मीरा मानी जाती हैं। इनमें संगीतकला, चित्रकला और काव्यकला का अद्भुत समन्वय है।

महादेवी वर्मा की रचनाओं का हिंदी संसार ने अच्छा सम्मान किया। इनकी रचनाएँ यद्यपि थोड़ी हैं, तथापि उनमें विचारों की गहन अनुभूति छिपी है।

 ‘अतीत के चलचित्र’, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’, ‘स्मृति की रेखाएँ’, ‘क्षणदा’, ‘पथ के साथी’ आदि इनके गद्यग्रंथ हैं।

 इनके काव्यग्रंथों में ‘यामा’, ‘नीहार’, ‘रश्मि’, ‘नीरजा’, ‘सांध्यगीत’ और ‘दीपशिखा’ हैं। ये सभी कविताओं के संग्रह हैं।

महादेवी वर्मा छायावाद की कवयित्री हैं। इन्होंने प्रकृति के विभिन्न सौंदर्यपूर्ण अंगों पर चेतना का आरोप कर उनका मानवीकरण किया है। इन्होंने अनुभूति और सौंदर्य की अभिव्यक्ति पर विशेष जोर दिया है।

महादेवी वर्मा ने छायावाद की परिभाषा देते हुए कहा भी है- “छायावाद तत्त्वतः प्रकृति के बीच जीवन की उद्गीथ है।” यही कारण है कि इनमें प्रकृति-चित्रण की विविधताओं का विवरण अधिक है। इनके प्रकृति-चित्रण में मानवीय क्रियाओं का और प्रकृति में विराट् की तथा व्यक्तिगत सत्ता की छाया का रूपांकन विद्यमान है। उदाहरण के लिए एक उद्धरण देखिए-

धीरे-धीरे उतर क्षितिज से आ वसंत-रजनी।

तारकमय नववेणी-बंधन,

शीश-फूल कर शशि का नूतन, रश्मि-वलय सित घन-अवगुंठन,

चितवन से अपनी पुलकित कर आ वसंत-रजनी।

महादेवी वर्मा के छायावाद में वेदना-भाव का प्राधान्य है। इसी कारण आलोचकों ने इन्हें पीड़ावाद की कवयित्री कहा है। महादेवी वर्मा के शब्दों में, “दुःख मेरे निकट जीवन का ऐसा काव्य है, जो सारे संसार को एक सूत्र में बाँध रखने की क्षमता रखता है। हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहुँचा सकें, किंतु हमारा एक बूँद भी दुःख जीवन को अधिक उर्वर बनाए बिना नहीं रह सकता। विश्व-जीवन में अपने जीवन को, विश्व-वेदना में अपनी वेदना को इस प्रकार मिला देना, जिस प्रकार एक जलबिंदु समुद्र में मिल जाता है, कवि का मोक्ष है।”

महादेवीजी की वेदना ‘स्वपरक’ और ‘परपरक’ दोनों रूपों में है, पर व्यक्तिगत वेदना से अधिक महत्त्व सामाजिक वेदना को दिया गया है। वेदना से मुक्ति की अपेक्षा यह उसमें घुल-घुलकर मरना चाहती है-

ऐसा तेरा लोक, वेदना नहीं, नहीं जिसमें अवसाद।

जलना जाना नहीं, नहीं जाना जिसने मिटने का स्वाद।

क्या अमरों का लोक मिलेगा, तेरी करुणा का उपहार ?

रहने दो हे देव! अरे यह मेरा मिटने का अधिकार।

महादेवीजी को वेदना इतनी प्रिय है कि प्रियतम की प्राप्ति होने पर भी यह उसे छोड़ना नहीं चाहती –

पर शेष नहीं होगी यह मेरे प्राणों की क्रीड़ा,

तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा तुममें ढूँढूँगी पीड़ा।

मेरी आहें सोती हैं इन ओठों की ओटों में।

मेरा सर्वस्व छिपा है इन दीवानी चोटों में।

छायावाद के साथ-साथ महादेवीजी रहस्यवाद की भी कवयित्री हैं। इनके रहस्यवाद में आत्मा एवं परमात्मा के रागात्मक सामंजस्य का वर्णन है। इनके रहस्यवाद में आत्मा, परमात्मा एवं प्रकृति तीनों का समावेश हो जाता है। प्रकृति से प्राप्त अनुभूतियों के साथ-साथ वैयक्तिक अनुभूतियों का एक चित्रण देखिए –

कनक-से दिन, मोती-सी रात, सुनहली साँझ, गुलाबी प्रात।

मिटाता-रंगता बारम्बार कौन जग का वह चित्राधार?

प्रकृति के माध्यम से प्रियतम का साक्षात्कार कर लेने के पश्चात् आत्मा पूर्ण विवश हो जाती है। परमात्मा के प्रेम में आत्मा पूर्ण विवश होकर गा उठती है-

नहीं गाया जाता अब देव! थकी अँगुली, ढीले हैं तार।

विश्व-वीणा में अपनी आज मिला लो यह अस्फुट झंकार।।

अंतिम स्थिति में प्रियतम के आगमन की सूचना मिलने लगती है। प्रियतम के आगमन के पश्चात् मिलन है। पर, इस ‘महामिलन’ के पश्चात् मोह की समाप्ति हो जाती है।

महादेवी वर्मा की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है। इसमें तत्सम एवं तद्भव स्वरूपों का नियोजन मिलता है। भाषा के अत्यंत कोमल और मधुर स्वर इनकी रचनाओं में परिव्याप्त हैं। कहीं-कहीं इनकी भाषा में सांकेतिक शब्दों का प्रयोग भी मिलता है।

महादेवी वर्मा ने गीतिकाव्य की रचना की है, जो चित्र-शैली एवं प्रगीत-शैली में है। वियोगश्रृंगार, शांत एवं करुण रस का इनके काव्य में प्राधान्य है। उपमा, रूपक एवं समासोक्ति अलंकारों के प्रयोग से काव्य बोझिल दिखाई पड़ता है; फिर भी भावों के उत्कर्ष से पद्य बहुत ही मार्मिक हुए हैं।

महादेवी वर्मा की काव्यगत विशेषताएँ

महादेवी वर्मा की काव्यगत विशेषताओं का अध्ययन निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया जा सकता है :

प्रकृति चित्रण

महादेवी ने प्रकृति-वर्णन प्रायः हमारी भावनाओं को उत्तेजित और अनुभूति को तीव्र बनाने के लिए किया है। परन्तु उनकी कविता में प्रकृति के अनेक सुन्दर दृश्य-चित्र स्वतन्त्र प्रकृति-वर्णन के भी अनेक सुन्दर स्थल प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविता में प्रकृति का चित्रण अत्यंत सुंदर रूप में अंकित है। उदाहरण के लिए ‘संध्या’ का प्रिय की प्रतीक्षा में लीन चित्र देखिये :

“गुलालों से रवि का पथ लीप

जला पश्चिम में पहला दीप

विहँसती सन्ध्या भरी सुहाग

 दृगों से झरता स्वर्ण-पराग”

अथवा बसन्त-रजनी के श्रृंगार का निम्नलिखित चित्र लिया जा सकता है:

“तारकमय नव वेणी-बन्धन

 शीश फूल कर शशि का नूतन

 रश्मि वलय सित घन अवगुंठन

 मुक्ताहल अविराम बिछा दे चितवन से अपनी

 पुलकती आ बसन्त-रजनी”

काल्पनिकता

छायावाद में मानवीकरण अलंकार की सहायता से प्रकृति पर मानवीय चेतना का आरोप कर उसके अनेक कल्पनामय सुंदर चित्र प्रस्तुत किये गए हैं।

महादेवी के काव्य में ऐसे अनेक चित्र मिलते हैं जिनमें पुष्ट रेखाओं के साथ गहरे रंगों का भी प्रयोग होने से चित्र पाठक की कल्पना के सम्मुख बिल्कुल स्पष्ट और साकार हो उठता है। रजनी का वह शब्द-चित्र देखिये:

“मृदुल अंक धर, दर्पण-सा सर

आज रही निशि दृग इन्दीवर”

लाक्षणिक मूर्तिमत्ता द्वारा बहुत ही कम शब्दों में सम्पूर्ण चित्र को प्रस्तुत करने की महादेवी की कला अत्यन्त मोहक है। जहाँ थोड़ी-सी रेखाओं और रंगों के आधार पर वह चित्र को मूर्तिमान कर देती हैं, वहाँ लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग, द्वारा भी। एक उदाहरण देखिये:

“देखकर कोमल व्यथा को

 आँसुओं के सजल रथ में

 मोम सी साधें बिछा दीं

 थीं इसी अंगार-पथ में

 स्वर्ण हैं वे मत कहो, अब क्षार मैं उनकी सुला लूँ।”

इन्हीं शब्द-चित्रों पर मुग्ध होकर डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है- “पंत की कला में जड़ाव और कढ़ाव है, अतः उनके चित्रों की रेखाएँ पैनी होती हैं। महादेवी की कला में रंग-घुली तरलता है जैसी कि पंखुड़ियों पर पड़ी हुई ओस में होती है।”

इन शब्द-चित्रों के अंकन में उनकी कोमल कल्पना बड़ी सहायक हुई है। ये कल्पनाएँ रंगीन और ऐश्वर्यमय ही नहीं कवयित्री के हृदय की कोमलता को भी प्रकट करती हैं-

“जब कपोल गुलाब पर शिशु प्रात के

सूखते नक्षत्र जल के बिन्दु से

 रश्मियों की कनक धारा में नहा  मुकुल हँसते मोतियों का अर्घ्य दे।

अलंकार योजना

महादेवी की अलंकृत भाषा भी उनकी कला को समृद्ध बनाती है। उनकी अभिव्यक्ति सूक्ष्मतम भावनाओं को वाणी देने के कारण संकेतात्मक और प्रतीकात्मक है; पर समासोक्ति, रूपक, मानवीकरण आदि अलंकारों के प्रयोग ने उसे सहज बोधगम्य बनाने में पर्याप्त सहायता दी है।

सुरुचि के कारण उनके अलंकार कविता के लिए बोझिल न बनकर या तो भावों को रमणीयता (सुंदरता) प्रदान करने के लिए आए हैं अथवा तीव्र तथा स्पष्ट बनाने के लिये।

उनके काव्य में समासोक्ति का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया है। अधिकतर चित्रों में प्रकृति का साधनामय रूप ही दिखाया गया है।

निम्नलिखित पंक्तियाँ उदाहरण के रूप में देखी जा सकती हैं :

“सजल है कितना सवेरा !

राख के अंगार तारे झर चले हैं

 धूम बन्दी रंग के निर्झर खुले हैं

 खोलता है पंख रूपों में अंधेरा।”

यहाँ प्रभात वर्णन के द्वारा ज्ञान-रश्मियों के उदय का भी संकेत है।

महादेवी के काव्य में सबसे अधिक आकर्षक प्रयोग रूपक और विशेषतः सांगरूपक का हुआ है। इसका प्रयोग कभी तो विराट सत्ता की विराटता का आभास देने के लिए हुआ है जैसे कि निम्नलिखित पंक्तियों में :

“रवि-शशि तेरे अवतंस लोल

सीमन्त जटित तारक अमोल”

और कभी किसी गहन मानसिक व्यापार को समझाने के लिए किया है, जैसे कि निम्नलिखित पंक्तियों में :

“तरल मोती से नयन भरे ! मानस से ले उठे स्नेह-घन,

 कसम विद्यु, पुलकों के हिमककण

 सुधि स्वाती की छांह,

 पलक की सीपी में उतरे।

यह रूपक और भी अधिक प्रभावशाली हो उठा है जब प्रकृति के क्षेत्र से ही उपमेय और उपमान दोनों चुने गये हैं। नीचे एक उदाहरण दिया जा रहा है :

“गोधूली अब दीप जला ले !

किरण-नाल पर घन के शतदल

 कलरव-लहर विहग-बुदबुद चल,

 क्षितिज सिन्धु को चली चपल

 आभा-सरि अपना उर उमगा ले।”

इसी प्रकार रूपकातिशयोक्ति अलंकार की छटा ‘नीहार’ की निम्नलिखित पंक्तियों में देखिए-

“गुलालों से रवि का पथ लीप

 जला पश्चिम में पहला दीप

 विहँसती सन्ध्या भरी सुहाग

 दृगों से भरता स्वर्ण-पराग”

यहाँ ‘गुलाल’, ‘दीप’, ‘स्वर्ण-पराग’ में उपमेय छिपा है और उपमान मात्र के प्रयोग से उस नायिका का चित्र अंकित किया गया है जो अपने को सौभाग्यवती मानकर आनन्दानुभूति में लीन है।

उपमा अलंकार वैसे तो लगभग सभी कवियों ने प्रयुक्त किया है पर महादेवी की उपमाएँ वर्णसाम्य, गुणसाम्य, आकारसाम्य, कर्मसाम्य की ही दृष्टि के उपयुक्त ही नहीं हैं बल्कि हृदय के भावों, पीड़ा, आर्द्रता, करुणा आदि को भी व्यंजित करती है-

“बिखरती उर की तरी में

आज तो हर सांस बनती शतशिला के भार-सी है।”

अर्थालंकारों में अप्नहुति, उल्लेख, प्रतीप आदि का प्रयोग कवयित्री ने किया है। उल्लेख का एक उदाहरण देखिए-

“चित्रित तू मैं हूं रेखा-क्रम

 मधुर राग तू मैं स्वर-संगम”

प्रतीप का चमत्कार निम्नलिखित पक्तियों में देखा जा सकता है-

“जिन चरणों की नखज्योति ने हीरक जाल लजाये।”

शब्दालंकारों की ओर महादेवी की रुचि नहीं है। फिर भी कहीं-कहीं यमक, अनुप्रास, वीप्सा आदि अलंकार सहज ही आ गये है-

“रूपसि तेरा घन-केश-पाश

श्यामल श्यामल कोमल लहराता सुरभित केश-पाश।”

यहाँ वीप्सा अलंकार है।

ध्वन्यात्मकता

भाव-ध्वनि का प्रयोग समर्थ कवि ही कर पाते हैं। महादेवी ने भाव-ध्वनि के प्रयोग से अपने भावों को सहजगम्य बनाने में अद्भुत कौशल का परिचय दिया है। उन्होंने शब्दों की संयोजना इस प्रकार की है कि भावों का मूर्त चित्र प्रस्तुत हो जाता है-

“पुलक पुलक उर सिहर सिहर तन

 आज नयन आते क्यों भर-भर?”

यहाँ ऐसी प्रणयिनी का भाव-सागर तरंगित होता दिखाया गया है जिसका हृदय प्रिय-मिलन की मधुमयी कल्पना से पुलकित, शरीर रोमांचित तथा नेत्र हर्षातिरेक से बार-बार अश्रु पूरित हो उठते हैं।

 पंक्तियों को छोटा-बड़ा करके भी कवयित्री ने भाव को हृदयंगम कराने का अभिनव प्रयास किया है। नीचे कि पंक्तियों में देखिए :

“तुम्हें बाँध पाती सपने में।

तो चिर जीवन-प्यास बुझा लेती उस छोटे क्षण अपने में।”

पहली पंक्ति के छोटे आकार से प्रकट किया गया है कि कवयित्री के कंठ से शब्द बड़ी कठिनता से निकल पा रहे हैं और दूसरी पंक्ति का दीर्घ आकार उसकी प्यास की असीमता की ओर संकेत कर रहा है।

शब्द-ध्वनि का उदाहरण निम्नलिखित पंक्ति में देखिये:

“शिथिल मधुपवन गिन गिन मधु-कण हरसिंगार झरते हैं झर-झर”

प्रतीक योजना

रहस्यवादी काव्य में छायावादी काव्य से भी अधिक प्रतीकों का प्रयोग होता है क्योंकि रहस्यवादी अपनी बात को प्रतीकों द्वारा ही समझा सकता है।

महादेवी आधुनिक कवियों में अत्यन्त रहस्यवादी हैं, उनका काव्य अत्यधिक सांकेतिक है, अतः उन्होंने प्रतीकों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है।

 ये प्रतीक दो प्रकार के हैं परम्परागत, जो परिचित होने के कारण बुद्धिगम्य हैं तथा वे जो स्वयं उनके द्वारा निर्मित हैं।

 परम्परागत प्रतीकों के अन्तर्गत हम तीन प्रकार के प्रतीक ले सकते हैं-

(1) प्राचीन साहित्य में प्रयुक्त प्रतीक।

(2) निर्गुण सन्त काव्य-धारा के प्रतीक।

(3) छायावादी कवियों के प्रतीक।

उपनिषदों आदि में प्रकृति के उपकरणों सूर्य, चन्द्रमा, तारागण, सन्ध्या, उषा अमानिशा आदि का प्रतीक के रूप में प्रयोग पाया जाता है। रात्रि को नारी रूप में चित्रित करने की पद्धति अत्यन्त प्राचीन है। महादेवी ने भी यामिनी के कई नारी-चित्र प्रस्तुत किये हैं।

कबीर की भाँति महादेवी ने भी दाम्पत्य-भावना के प्रतीक को अपने रहस्यवादी काव्य में स्थान दिया है तथा ईश्वर को पति मानकर प्रणय-निवेदन किया है। शरीर को पिंजर तथा आत्मा को कीर मानने की पद्धति का भी उन्होंने अनुकरण किया है जैसे ‘कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो।’

सूफियों के साकी, प्याला, मदिरा आदि प्रतीकों का भी प्रयोग महादेवी के काव्य में उपलब्ध है-

“छिपकर लाली में चुपचाप सुनहला प्याला लाया कौन?”

‘छायावादी काव्य में प्रयुक्त प्रकृति के क्षेत्र से अपनाये गये अनेक प्रतीकों कली, भ्रमर, झंझा इन्द्रधनुष, उषा, चंचला, मेघ, पवन, दीपक को महादेवी ने अपनाया है।

 अन्तर यही है कि अन्य छायावादी कवियों की अपेक्षा महादेवी के प्रतीकों के पीछे बौद्धिकता का तत्व बहुत प्रबल है।

 दूसरी भिन्नता यह है कि उन्होंने छायावादी काव्य के व्यक्त प्रकृति के सौन्दर्य-प्रतीकों को न लेकर उन प्रतीकों की अव्यक्त गतियों और छायाओं को ग्रहण किया है।

बौद्धिकता तथा अव्यक्त गतियों तथा छायाओं को ग्रहण करने के ही कारण उनकी कविता दुरूह हो गई है। दुरूहता का एक कारण यह भी है कि वह अपने प्रतीकों के प्रयोग में बहुत स्वच्छन्द रही हैं। एक प्रतीक एक ही अर्थ में सर्वत्र प्रयुक्त नहीं हुआ है, अतः वह संदर्भ के अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ देता है।

दूसरे वर्ग में वे प्रतीक आते हैं जिनका महादेवी ने स्वयं निर्माण किया है। दीप को साधनारत् आत्मा, सान्ध्य गगन को लौकिकता के प्रति विराग, यामिनी को सेवारत साधिका, गोधूलि को करुण-मिलन की बेला, सरिता को करुणा की धारा के अर्थ में प्रयुक्त करना उनकी अपनी मौलिकता है।

 कुछ प्रतीक ऐसे भी हैं जिनका व्यवहार भिन्न अर्थ में होता आया है और महादेवी जी ने उन्हें भिन्न अर्थ में प्रयुक्त किया है। उदाहरण के लिए शलभ को आदर्श प्रेमी के रूप में प्रयुक्त किया गया था पर महादेवी ने उसे मोहमूलक सांसारिक आकर्षण के रूप में ग्रहण किया है-

“शेषयामा यामिनी मेरा निकट निर्वाण

पागल रे शलभ अनजान।”

इसी प्रकार तारे महादेवी के काव्य में लौकिक भावों के रूप में प्रयुक्त हुए हैं-

“भीत तारक मूँदते दृग।”

या

“राख से अंगार तारे झर चले हैं।”

ऋतु-संबंधी प्रतीक भी उनके अपने हैं। ग्रीष्म को रोष, वर्षा को करुणा, शिशिर को जड़ता, पतझड़ को दुःख या रोष, बसन्त को आनन्द या चेतना के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।

“हास का मधुदूत भेजो

रोष की भू-भंगिमा पतझार को चाहे सहेजो !”

कुछ प्रतीक महादेवी ने स्वयं गढ़े हैं, जैसे दीप को साधनारत् आत्मा, सांध्य गगन को लौकिकता के प्रति विराग, यामिनी को सेवारत् साधिका, गोधूलि को करुण मिलन की बेला सरिता को करुणा की धारा आदि।

गीत की संगीतात्मकता भी इसी प्रकार की है।

भावों के लिए कहीं ‘वीणा के तार’, कहीं ‘कलियों के उच्छ्वास’, कहीं ‘उज्जवल तारे’ को प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किये गये हैं।

इसी प्रकार आँसू के लिये ‘नक्षत्र’, ‘मकरन्द’, ‘मोती’, ‘तुहिनकण’ शब्दों का प्रयोग किया गया है।

महादेवी ने प्रतीकों का प्रयोग-रूपक, उपमान तथा लक्षणा-तीन रूपों में किया।

 ‘मैं नीर भरी दुःख की बदली’ में यदि वह रूपक के रूप में प्रयुक्त हुआ है तो ‘धूप-सा तन दीप सी मैं’ में उपमान के रूप में ।

उन्होंने इसी प्रकार प्रकृति से ही अधिकतर प्रतीक ग्रहण किये हैं और वे भी ऐसे जो मनः स्थिति के चित्रण तथा विरह-भावना को व्यक्त करने में समर्थ हों। उनकी प्रतीक योजना दुरूह तो अवश्य है पर वह भावाभिव्यंजना को भी सशक्त और सप्राण बनाती है।

इस प्रकार महादेवी ने अपने गीतों को अधिक से अधिक गेय बनाया है और इसके लिए उन्होंने कोई आयास नहीं किया है;  संगीत सहज रूप में उनके गीतों में समाविष्ट हो गया है।

“कौन तुम मेरे हृदय में”

संगीतात्मकता

संगीत का आरोह-अवरोह, स्वर-ताल का संयोजन उनके काव्य को मधुर बना देता है।

गेयता के समावेश के लिए उन्होंने शब्दों में संगीत भर दिया है। उनके काव्य में संगीतात्मकता प्रचुर मात्रा में विद्यमान है।

उन्होंने अपने गीतों में कोमल ध्वनियों का प्रयोग किया है। इसीलिए वर्ण-विन्यास, शब्दमैत्री तथा स्वर-संगीत उनके गीतों का प्राण है।

उनकी शब्द-योजना किस प्रकार संगीत-माधुर्य की सृष्टि करती है, इसका उदाहरण निम्नलिखित गीत में मिलता है:

“मधुर मधुर मेरे दीपक जल।”

संगीतात्मकता लाने के लिये ही उन्होंने “हौले-हौले, कजरारे, अलबेला, मतवारे”, जैसे देशज तथा “बिछौना, सुहाग, छाँह” आदि तद्भव शब्दों का प्रयोग भी किया है।

वर्ण-मैत्री के प्रति सचेष्ट रहने के फलस्वरूप ही वीप्सा तथा अनुप्रास अलंकारों का उन्होंने प्रचुर प्रयोग किया है।

महादेवी के गीतों में संगीत-योजना केवल संगीतात्मकता के लिए ही नहीं, भावों के उत्कर्ष के लिये भी हुई है। उनका संगीत भावानुगामी है, जैसे-

“नित-धिरूँ झर-झर मिटू प्रिय!

घन बनूँ वर दो मुझे प्रिय!”

‘झर-झर मिटने’ में साधिका के साधनामय जीवन का कैसा सशक्त और प्राणवान चित्र प्रस्तुत किया है।

छन्दोबद्ध काव्य में छन्द-निर्वाह के लिए भावगति को खण्डित करना पड़ता है, महादेवी ने लय तत्व के सहारे अपने काव्य की भाव-गति को अधिकतर सुरक्षित रखा है; इसके लिये भले ही उन्हें शब्दों को तोड़ना पड़ा हो और मात्राओं में परिवर्तन करना पड़ा हो।

महादेवी ने लिखा है, “मेरे गीत अध्यात्म के अमूर्त आकाश के नीचे लोक गीतों की धरती पर पले हैं।”

स्पष्ट है कि उनके गीतों में लोक-गीतों जैसा सीधा-सादा संगीत-विधान अपनाया गया है। लोक गीतों की लय से समृद्ध पक्तियाँ देखिये-

“सपने जगाती आ

श्यामल चंचल

स्नेह उर्मिल

तारकों के चित्र उज्ज्वल

घिर घटा सी चाप से पुलकें उठाती आ

हर पल खिलाती आ”

लोक-गीतों की ही परम्परा का अनुसरण करते हुए उन्होंने पुनरुक्ति का प्रयोग कर अपने गीतों को और भी मधुर बना दिया है-

“मुखर पिक हौले-हौले बोल !

हठीले हौले-हौले बोल!”

कहीं-कहीं उर्दू शैली के प्रभाव से भी नवीन गीतों का प्रयोग किया गया है जिससे गीतों में अभिनव स्वर, ताल, लय और छन्द के कारण आकर्षण आ गया है।

 गीतों में टेक की विविधता भी गीतों की नूतनता, मौलिकता तथा रमणीयता से भर देती है। इसलिए विश्वम्भर मानव ने लिखा है, “उनमें संगीत का वह मोहन मन्त्र है जो मन की लोरी देकर स्वप्नाविष्ट करने की शक्ति रखता है।”

उनकी संगीतात्मकता, स्वर लहरी की कोमलता समय के साथ बढ़ी ही है घटी नहीं। यही कारण है कि ‘दीपशिखा’ में यह कोमलता अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गई है।

महादेवी के गीतों में चिन्तन तत्व भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है फिर भी उनके गीत चिन्तन या बौद्धिकता से बोझिल नहीं हो पाये हैं। संभावत: इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने गीतों में विचार-तत्व का समावेश अनुभूत सत्यों के माध्यम से किया है।

उनकी अपनी उक्ति भी इसी बात का प्रमाण है, “गेयता में ज्ञान का क्या स्थान है, यह भी प्रश्न है। बुद्धि के तर्क-क्रम से जिस ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है, उसका भार गीत नहीं संभाल सकता, पर तर्क से परे इन्द्रियों की सहायता के बिना भी हमारी आत्मा अनायास ही जिस सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लेती है, उसकी अभिव्यक्ति में गेय स्वर-सामंजस्य का विशेष महत्त्व रहा है।”

गीति-कवि की दृष्टि से महादेवी के काव्य में प्रसाद के गीतों की भाव-प्रवणता तथा निराला के गीतों का चिन्तन मिलता है।

 उनके गीतों पर संगीत शास्त्र का कोई बन्धन नहीं। वे अपनी ध्वन्यात्मकता में ही गये हैं।

 उनका एक गीत एक ही भाव की पूर्ण परिणति नहीं होता, उसमें कई भाव झलक उठते हैं जो गीति-काव्य का दोष ही है।

 फिर भी हमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मत से सहमत होना पड़ता है- “गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवी जी को हुई वैसी और किसी को नहीं। न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्रांजल प्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भावभंगी।”

भाषा

खड़ी बोली को काव्योचित् भाषा का रूप देने का श्रेय प्रधानतः पंत जी को है, पर उसे मार्मिकता देने का गौरव जितना महादेवी को है, उतना अन्य किसी को नहीं।

यद्यपि उनकी भाषा संस्कृत गर्भित खड़ी बोली है तथापि वह अत्यन्त परिष्कृत, शिल्पित (chiselled), मधुर और कोमल है। न तो उसमें कही कर्कशता है और न शुष्कता।

भाषा सर्वत्र आधुर्य गुण से पूर्ण है। फिर भी मात्राओं की पूर्ति या तुक के आग्रह के लिए उन्होंने कुछ शब्दों का अंगभंग, रूप-परिवर्तन और अंग-वाधक्य कर दिया है। जैसे बतास, अधीर, अभिलाषे, ज्योति, कर्णधार।

 ‘ये’ के स्थान पर ‘यह’ भी प्रयुक्त हुआ है। व्याकरणों के नियमों में वह बचना नहीं जानतीं। उनके गीतों का एक दोष यह भी है कि वह उन पर एक प्रकार का काल्पनिक आवरण डाल देती हैं जिसके कारण पाठक गीत की तलवर्ती भावना का मर्म ही ग्रहण नहीं कर पाता। भावना जितनी ही रहस्यमय और कल्पना-प्लावित है, उतनी ही उसकी प्रेषणीयता में बाधा पहुंची है।

 उनके गीतों में भावप्रवणता, सहजता तथा उच्छलन (Spontaneity) भी कम है। अतः काव्यगत आनन्द पाने के लिए विश्लेषण करना पड़ता है और विश्लेषण का आनन्द बौद्धिक, आयासजन्य आनन्द होता है, काव्य का सहज आनन्द नहीं।

अन्तर्मुखी अनुभूति तथा अशरीरी-भावना के कारण भी उनके भावों में अस्पष्टता आ गई है, जिससे माधुर्य की व्यंजना नहीं हो पाई है।

महादेवी की कला के उपकरण अत्यन्त सीमित हैं। दीपक, सन्ध्या, बसन्त, शिशिर, आँसू, निश्वास, तुहिनकण आदि के द्वारा ही उन्होंने अपने भावों की अभिव्यक्ति की है।

 दीपक को लेकर तो उन्होंने ‘नीहार’ से लेकर ‘दीपशिखा’ तक अनेक कविताएँ लिखी हैं। इन सीमित उपकरणों के फलस्वरूप ही साधारण पाठक एकरसता अनुभव करने लगता है।

विद्वान पाठक को वह एकरसता नहीं खटकती, क्योंकि स्थूल दृष्टि से देखने पर उपकरण वही होने पर भी, हर बार कोई न कोई नवीनता उनके प्रयोग में लायी गई है।

कुल मिलाकर हम डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में कह सकते हैं, “महादेवी के काव्य में हमें छायावाद का अमिश्रित रूप मिलता है।  तितली के पंखों और फूलों की पंखुड़ियों से चुराई हुई कला और इन सबके ऊपर स्वप्न-सा पूरा हुआ एक वायवीय वातावरण ये सभी तत्व जिसमें घुले मिलते हैं, वह है महादेवी की कविता।”

निष्कर्ष

महादेवी छायावाद की प्रतिनिधि कवयित्री हैं, अतः उनकी काव्य-कला में छायावादी काव्य-शैली के प्रमुख गुणों-लाक्षणिक मूर्तिमत्ता, स्थूल के स्थान पर सूक्ष्म उपमानों  का प्रयोग चित्रमयता, भाषा की कोमलत, कल्पना की अधिकता, संगीतात्मकता आदि का होना स्वाभाविक ही है।

 छायावाद में मानवीकरण अलंकार की सहायता से प्रकृति पर मानवीय चेतना का आरोप कर उसके अनेक कल्पनामय सुंदर चित्र प्रस्तुत किये गए हैं।

 महादेवी की अलंकृत भाषा भी उनकी कला को समृद्ध बनाती है। उनकी अभिव्यक्ति सूक्ष्मतम भावनाओं को वाणी देने के कारण संकेतात्मक और प्रतीकात्मक है पर समासोक्ति, रूपक, मानवीकरण आदि अलंकारों के प्रयोग ने उसे सहज बोधगम्य बनाने में पर्याप्त सहायता दी है। सुरुचि के कारण उनके अलंकार कविता के लिए बोझिल न बनकर या तो

भावों को रमणीयता प्रदान करने के लिए आए हैं अथवा तीव्र तथा स्पष्ट बनाने के लिये।

महादेवी आधुनिक कवियों में अत्यन्त रहस्य हैं, उनका काव्य अत्यधिक सांकेतिक है, अतः उन्होंने प्रतीकों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है।

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