निर्गुण भक्तिधारा के अत्यंत महान और विलक्षण प्रतिभा के धनी संत कवि कबीरदास के व्यक्तित्व और कृतित्व के संदर्भ में अनेक प्रकार की कथाएँ प्रचलित हैं । कबीर के जन्म, जाति, संप्रदाय, वैचारिक प्रभाव, मृत्यु की तिथि तथा स्थान, काव्यभाषा आदि अनेक पक्ष है जिन पर अंतिम रूप से कोई भी निर्भ्रांत निशाक्र्स नहीं निकाल जा सकता । आज हम kabir ke sakhiyon ki vyakhya पढ़ेंगे ।
विद्वानों के द्वारा ऐसा माना जाता है कि कबीर की रचनाओं का संकलन ‘बीजक’ के नाम से उनके शिष्य धर्मदास द्वारा किया गया । ‘बीजक’ के तीन भाग हैं -साखी, सबद और रमैनी । कबीर का जन्म 1398 ई. में और मृत्यु 1518 ई. में हुई । कबीर जाति के जुलाहे थे, काशी में रहते थे । रामानन्द कबीर के गुरु थे । कबीर की पत्नी का नाम लोई, पुत्र का नाम कमाल और पुत्री का नाम कमाली था ।
कबीर की कविता में उपदेशों कि प्रवृत्ति है, रहस्यवादी भावना है तथा प्रतीकों का प्रयोग है ।
कबीर निरक्षर थे । उहोंने स्वयं यह स्वीकार किया है –
“मसि कागद छुयौ नहीं कलम गह्यौ नहिं हाथ ।”
कबीर भक्त और कवि बाद में थे, समाज सुधारक पहले थे । उनकी कविता में अनुभूति की सच्चाई एवं अभिव्यक्ति का खारापन है। समाज में व्याप्त रूढ़ियों, अंधविश्वासों और पाखंडों का उन्होंने खंडन किया ।
गुरु की महत्ता पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है । इसके अतिरिक्त नैतिकता, सदाचार, परोपकार, क्षमा, सत्य भाषण, संतोष आदि को उन्होंने श्रेष्ठ मानव के लिए आवश्यक माना है ।
प्रस्तुत लेख में केवल उनकी साखियों की व्याख्या करते हुए उन्हें समझने का प्रयास किया जा रहा है । फिर भी कुछ बिन्दुओं के आधार पर हम कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने का भी प्रयास करेंगे ।
कबीर का जीवन परिचय
कबीर के जन्मकाल, जीवन-मरण तथा जीवन की प्रसिद्ध घटनाओं के विषय में किवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं।
जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म 1398 ई. में काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के घर में हुआ था। किन्तु लोकापवाद के भय से यह इन्हें लहरतारा ताल के निकट छोड़ आई।
इनका पालन-पोषण नीरू-नीमा नामक जुलाहा दम्पत्ति ने किया। इस प्रकार कबीर ब्राह्मणी के पेट से उत्पन्न हुए थे, लेकिन उनका पालन-पोषण जुलाहे के यहाँ हुआ। कबीर ने भी अपने को कविता में अनेक बार जुलाहा कहा है। बाद में वे जुलाहा ही प्रसिद्ध हुए।
कबीर की मृत्यु के बारे में भी कहा जाता है कि हिन्दू उनके शव को जलाना चाहते थे और मुसलमान दफनाना। इस पर विवाद हुआ, किन्तु पाया गया कि कबीर का शव अंतर्धान हो गया है। यहाँ कुछ फूल हैं । उनमें से कुछ फूलों को हिन्दुओं ने जलाया और कुछ को मुसलमानों ने दफनाया।
कबीर की पत्नी का नाम लोई था। उनकी संतान के रूप में पुत्र कमाल और पुत्री कमाली का उल्लेख मिलता है। कबीर के प्रधान शिष्यों में धर्मदास ने कबीर की वाणी का संग्रह किया। ऐसा माना जाता है कि कबीर की मृत्यु मगहर जिला बस्ती में सन् 1518 ई. में हुई।
कबीर के गुरु
कबीर का अपना पंथ या संप्रदाय क्या था, इसके बारे में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। रामानंद इनके दीक्षा गुरु थे। उनके नाम का मंत्र लेने के लिए ये पंचगंगा घाट की उन सीढ़ियों पर जा पड़े, जहाँ से प्रातःकाल रामानंद स्नान करने जाते थे। अंधेरे में रामानंद के चरण कबीर साहब पर पड़ गए और रामानंद जी बोल उठे ‘राम-राम कह’। आगे चलकर यही मंत्र मानुष सत्य के महान लक्ष्य की प्राप्ति में तथा विषमता के दुराग्रहों को छोडकर सामाजिक न्याय और समानता की स्थापना में सहायक हुआ।
शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरु कहा जाता है, किन्तु इसकी पुष्टि नहीं होती। संभवतः कबीर ने इन सबसे सत्संग किया होगा और इन सबसे किसी न किसी रूप में प्रभावित भी हुए होंगे।
कबीर की जाति
कबीर की जाति के विषय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक कबीर में प्राचीन उल्लेखों, कबीर की रचनाओं, प्रथा, वयनजीवी (बुनकर) जातियों के रीति-रिवाज का विवेचन-विश्लेषण करके दिखाया है- “आज की वयनजीवी जातियों में से अधिकांश किसी समय ब्राह्मण श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करती थी। जोगी नामक आश्रम भ्रष्ट घरबारियों की एक जाति सारे उत्तर और पूर्वी भारत में फैली थी।
ये नाथपंथी थे, कपड़ा बुनकर और सूत कातकर या गोरखनाथ और भरथरी के नाम पर भीख माँगकर जीविका चलाया करते थे। इनमें निराकार भाव की उपासना प्रचलित थी। मुसलमानों के आने के बाद ये धीरे-धीरे मुसलमान होते रहे। पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में इनकी कई बस्तियों ने सामूहिक रूप से मुसलमानी धर्म ग्रहण किया। कबीरदास इन्हीं नवधर्मान्तरित लोगों में पालित हुए थे।”
कबीर के काव्यपर इन सबका प्रभाव देखा जा सकता है। उनमें वेदांत का अद्वैत, नाथ-पंथियों की अंतस्साधनात्मक रहस्य भावना, हठयोग, कुंडलिनी योग, सहज साधना, इस्लाम का एकेश्वरवाद सब कुछ मिलता है।
कबीर की काव्य प्रतिभा
कवि के रूप में कबीर जीवन की सहजता के अधिक निकट हैं । उनकी कविता में छंद, अलंकार, शब्दशक्ति आदि गौण हैं और लोकमंगल की चिंता प्रधान है।
इनकी वाणी का संग्रह इनके अनुयायियों ने ‘बीजक’ के नाम से किया है। इसके तीन भाग हैं – रमैनी, सबद और साखी।
‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पद हैं तथा ‘साखी’ दोहा छंद में लिखी गई है।
‘रमैनी’ और ‘सबद’ ब्रजभाषा में है जो तत्कालीन मध्यदेश की काव्यभाषा थी।
कबीर की काव्यभाषा
कबीर ने अपनी कविता में अंतरसाधनात्मक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग भी खूब किया है। साथ ही अहिंसा की भावना और वैष्णव प्रपत्तिवाद का भी।
कबीर की भाषा को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘सधुक्कड़ी’ अथवा पँचमेल खिचड़ी’ कहा है । उनकी भाषा कई भाषाओं के मिश्रण से बनी है । कबीर को कहीं भी अभिव्यक्ति के लिए भाषा का संकट नहीं झेलना पड़ा ।
भाषा उनकी अनुगामिनी रही है । आचार्य हजारीप्रस्द द्विवेदी ने इसीलिए उन्हें ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा है ।
कबीर की भाषा मूलतः तो पूरब की है, किन्तु उसमें अन्य बोलियों का मिश्रण होने के कारण उसे सधुक्कड़ी कहा जाता है। कबीर साहसपूर्वक जन-बोली के शब्दों का प्रयोग अपनी कविता में करते हैं।
बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग के कारण ही कबीर को वाणी का डिक्टेटर कहा जाता है। उनकी अनंत तेजस्विता उनकी भाषा-शैली में भी प्रकट है।
काजी, पंडित, मुल्ला को संबोधित करते समय वे प्राय तन जाते है- पाँडे कौन कुमति तोहि लागी, कसरे मुल्ला बाँग नेवाजा।
किन्तु सामान्य जन को या हरिजन को संबोधित करते समय वे ‘भाई’ या ‘साधो’ जैसे शब्द का प्रयोग करते हैं।
कबीर तथा अन्य निर्गुण संतो की उलटबासियाँ प्रसिद्ध हैं । उलटबासियों का पूर्व रूप हमें सिद्धों की संघा भाषा में मिलता है।
उलटबासियाँ अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों को सामान्य प्रतीकों में प्रकट करती हैं। ये वर्णाश्रम व्यवस्था को मानने वाले संस्कारों को धक्का देती हैं। इन प्रतीकों का अर्थ खुलने पर ही उलटबासियाँ समझ में आती हैं ।
कबीर की भक्तिभावना
कबीर ने भक्ति पूर्व धार्मिक साधनाओं को आत्मसात अवश्य किया था। किन्तु वे इन साधनाओं को भक्ति की भूमिका या तैयारी मात्र मानते थे। जीवन की सार्थकता वे भक्ति या भगवद्विषयक रति में मानते थे।
यद्यपि उनके राम निराकार है, किन्तु वे मानवीय भावनाओं के आलंबन है। इसलिए कबीर ने निराकार निर्गुण राम को भी अनेक प्रकार के मानवीय संबंधों में याद किया है। वे ‘भरतार, हैं, कबीर ‘बहुरिया’ हैं । वे कबीर की माँ हैं – हरिजननी मैं बालक तोरा। वे पिता भी है जिनके साथ कबीर बाजार जाने की जिद करते हैं।
कबीर भक्ति के बिना सारी साधनाओं को व्यर्थ और अनर्थक मानते हैं। इसी प्रेम एवं भक्ति के बल पर वे अपने युग के सारे मिथ्याचार, कर्मकांड, अमानवीयता, हिंसा, पर-पीड़ा को चुनौती देते हैं।
उनके काव्य, उनके व्यक्तित्व और उनकी साधना में जो अक्खड़पन, निर्भीकता और दोटूकपन है वह भी इसी भक्ति या महाराग के कारण। वे पूर्व साधनाओं की पारिभाषिक शब्दावली को अपनाकर भी उसमें जो नई अर्थवत्ता भरते हैं. वह भी वस्तुतः प्रेम-भक्ति की ही अर्थवत्ता है।
कबीर के अनुभव की प्रामाणिकता
कबीर अपने अनुभव, पर्यवेक्षण और बुद्धि को निर्णायक मानते हैं। शास्त्र को नहीं। इस दृष्टि से वे यथार्थ-बोध के रचनाकार है।
उनके यहाँ जो व्यंग्य की तीव्रता और धार है वह भी कथनी-करनी के अंतर को देख पाने की क्षमता के कारण है । अपने देखने या अनुभव को न झुठलाने के कारण ही वे परंपरा द्वारा दिए गए समाधान को अस्वीकार करके नए प्रश्न पूछते हैं-
‘चलन चलन सब लोग कहत है, न जाने बैकुंठ कहाँ है’? यान आने तेरा साहब कैसा है?
कबीर बहुत गहरी मानवीयता और सहदयता के कवि है। अक्खड़ता और निर्भयता उनके कवच हैं । उनके हृदय में मानवीय करुणा, निरीहता, जगत के सौन्दर्य से अभिभूत होने वाला हृदय विद्यमान है।
कबीर की एक और विशेषता है- काल का तीव्र बोध। वे काल को सर्वग्रासी रूप में चित्रित करते हैं और भक्ति को उस काल से बचने का मार्ग बताते हैं।
परंपरा पर संदेह, यथार्थबोध, व्यंग्य, काल-बोध की तीव्रता और गहरी मानवीय करुणा के कारण कबीर आधुनिक भाव बोध के बहुत निकट लगते हैं। किन्तु कबीर में अंतस्साधनात्मक रहस्य-भावना भी है और राम में अनन्य भक्ति तो उनकी मूल भाव-भूमि ही है।
कबीर के प्रतीक और बिम्ब
नाद, बिन्दु, कुंडलिनी, षडचक्रभेदन आदि का बारंबार वर्णन कबीर काव्य का अंतस्साधनात्मक रहस्यवादी पक्ष है। कबीर में स्वाभाविक रहस्य भावना बड़े मार्मिक तौर पर व्यक्त की गई है। ऐसे अवसर पर वे प्रायः जिज्ञासु होते हैं – “कहो भइया अंबर कासौ लागा।”
कबीर में जीवन के द्वंद्वात्मक पक्ष को समझ लेने की अद्भुत क्षमता थी। इस परस्पर विरोधिता को न समझने पर कबीर का मर्म नहीं खुलता। जिसे जीना कहा जाता है, यह वस्तुतः जीवित रहने और मृत्यु की ओर निरंतर बढ़ते रहने की प्रक्रिया है। फिर भी लोग कुशल पूछते है और कुशल बताते है। लोग जीने का एक पक्ष देखते हैं दूसरा नहीं। कबीर इस पर व्यंग्य करते हैं, हँसते हैं और करुणा करते हैं –
“कुसल कुसल ही पूछते कुसल रहा न कोय।
जरा मुई न भय मुआ कुसल कहां ते होय।।”
कबीर विशाल गतिशील बिम्ब प्रस्तुत करते हुए आकाश और धरती को चक्की के दो पाट बताते हैं – “चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय / दो पाटन के बीच में, साबित बचा ना कोय।”
इसी तरह वे समाधि, सत्संग, गुरु उपदेश, हरिभजन आदि की सुखानुभूति का चित्रण उत्कृष्ट इंद्रिय बोधात्मक तीव्रता के साथ करते हैं – “सतगुर हमसू रीझ कर, कहा एक परसंग। बादर बरसा प्रेम का, भीज गया सब अंग।”
कबीर सादृश्य-विधान प्रायः अवर्ण जातियों के व्यवसाय के आधार पर खड़ा करते हैं। जुलाहा, माली, कुम्हार, लोहार, व्याघ्र, कलवार आदि के व्यवसायों का उपयोग वे प्रायः अंलकार योजना में करते हैं। यह भाव प्रायः सभी निर्गुण कवियों में पाया जाता है।
इस प्रकार भाषा, संवेदना, विचार प्रणाली – सभी दृष्टियों से कबीर शास्त्रीयता के समक्ष खाँटी देसीपन को महत्त्व देते हैं। ‘संसकिरित के कूपजल’ को छोड़कर वे भाखा के बहते नीर तक स्वयं पहुँचते है और सबको पहुँचाते है। संस्कृत से मुक्त लोक-संस्कृति को बनाने में उनका योगदान अप्रतिम है।
पंडित और मुल्ला यहाँ दोनों को वे एक साथ अप्रासंगिक करार देते हैं। मूलतः कवि होने के नाते शास्त्र की तुलना में वे अनुभव को प्रामाणिक मानते है। भाखापन को लेकर यह गहरा आत्मविश्वास-भाव उनके रचनाकार व्यक्त्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती है।
हिंदी भक्ति काव्यधारा के संत कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले कबीरदास जी का जन्म 1398 ई. में काशी में हुआ माना जाता है। इनके गुरु का नाम रामानंद था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। इनके पदों और साखियों में समाज-सुधारक की निडरता का स्वर सुनाई देता है। कबीरदास जी ने अपने समय में व्याप्त रूढ़ियों और धार्मिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा राम-रहीम की एकता पर बल दिया।
एक ओर धर्म के बाह्याडंबरों पर इन्होंने तीखा प्रहार किया, तो दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा के विरह मिलन के महत्त्वपूर्ण गीत गाए।
कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-साखी, सबद और रमैनी। इनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पंचमेल खिचड़ी’ भाषा कहा जाता है।
इन्होंने अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और वहीं 1518 ई. में उनका देहांत हो गया।
कबीर के साखियों की व्याख्या
पहली साखी
ऐसी बाँणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ ।।
शब्दार्थ – बाँणी – वाणी, बोली, वचन, आपा – अहंकार, खोइ-खो जाए, तन-शरीर, सीतल – शीतल, ठंडा औरन कौं – औरों को, दूसरों को।
भावार्थ – प्रस्तुत साखी में संत कबीरदास अहंकार और कड़वे वचनों को त्याग देने की बात कहते हैं । कबीर कहते हैं कि हमें अपने मन का अहंकार त्यागकर ऐसे मीठे वचन बोलने चाहिए, जिससे मुख से निकले मधुर वचनों से उनका अपना शरीर भी शीतल अर्थात् शांत और प्रसन्न हो जाए और साथ ही सुनने वालों को भी उससे सुख मिले। अतः हमें आपस में मीठे बोल बोलकर मधुर व्यवहार करना चाहिए।
काव्य सौंदर्य
(i) इस साखी में मधुर वाणी के महत्त्व को दर्शाया गया है।
(ii) ‘बाँणी बोलिए’ में ‘ब’ वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार है।
(iii) सधुक्कड़ी भाषा अर्थात् उपदेश देने वाली साधुओं की खिचड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है।
(iv) प्रस्तुत साखी में सरल एवं सहज भाषा का प्रयोग हुआ है और भाषा भावों की अभिव्यक्ति करने में पूर्णतः सक्षम है।
(v) दोहा छंद का प्रयोग हुआ है।
दूसरी साखी
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसै घटि-घटि रॉम हैं, दुनियाँ देखै नाँहि।।
शब्दार्थ – कस्तूरी – एक ऐसा सुगंधित पदार्थ, जो एक विशेष हिरण की नाभि में पाया जाता है, कुंडलि-नाभि, बसै – बसता है, रहता है, निवास करता है, मृग – हिरण, बन-वन, जंगल, माँहि – के भीतर, मध्य में, घटि-घटि – घट-घट में, कण-कण में, नाहिं – नहीं।
भावार्थ – कबीरदास कहते हैं कि जिस प्रकार कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की अपनी नाभि में ही होता है, पर वह उसकी सुगंध महसूस करके उसे पाने के लिए वनों में भटकता रहता है, किंतु वह उसे ढूंढ़ नहीं पाता। ठीक उसी प्रकार ईश्वर (राम) भी सृष्टि के कण-कण में तथा हम सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं, किंतु संसार में रहने वाले लोग अज्ञानतावश उसे देख नहीं पाते और परेशान होकर इधर-उधर ढूंढ़ते रहते हैं। इसलिए हमें ईश्वर को बाहर न खोजकर अपने भीतर ही खोजना चाहिए।
काव्य सौंदर्य
(i) बिम्ब और प्रतीक के प्रयोग द्वारा सामान्य भाषा में गूढ़ रहस्य अर्थात् ईश्वर के निवास को समझाने का प्रयास किया गया है।
(ii) ‘कस्तूरी कुंडलि’ तथा ‘दुनियाँ देखै’ में अनुप्रास अलंकार विद्यमान है, जबकि ‘घटि-घटि’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
(iii) सरल एवं सहज रूप में सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
(iv) हिरण का उदाहरण देकर कण-कण में ईश्वर के बसने के सत्य को बताया गया है।
तीसरी साखी
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि।
शब्दार्थ – मैं – अहम, मनुष्य का अहंकार, भक्तिरहित जीव, हरि – ईश्वर, अँधियारा- अंधेरा/अंधकार (अज्ञान का), मिटि-मिटना, समाप्त होना, दीपक -दीया, देख्या – देखना, माँहि-अंदर।
भावार्थ– कबीरदास कहते हैं कि मेरे अंदर ‘मैं’ अर्थात् अहंकार भरा हुआ था, उस समय तक मुझे ईश्वर नहीं मिल पा रहे थे। अब जब मुझे ईश्वर के दर्शन हो गए हैं, तो मेरे भीतर का ‘मैं’ अर्थात् अहंकार समाप्त हो गया है।
जैसे ही मैंने उस ज्योतिस्वरूप ज्ञान रूपी दीपक को मन में देखा, तो मेरा सारा अज्ञान रूपी अंधकार समाप्त हो गया, क्योंकि अंधकार (अज्ञान) और प्रकाश (ज्ञान) एक साथ कभी नहीं रह सकते। उसी प्रकार जब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, अज्ञानता बनी रहती है किंतु अब मुझे इस सत्य का दर्शन हो गया है कि अहंकार ही ईश्वर का शत्रु और घोर विरोधी है।
काव्य सौंदर्य
(i) इस साखी में बताया गया है कि ईश्वर के दर्शन होने पर अज्ञान रूपी अँधेरा दूर हो जाता है।
(ii) ‘मैं’ शब्द अहंभाव के लिए प्रयुक्त हुआ है।
(iii) ‘अंधियारा’ अज्ञान का और ‘दीपक’ ज्ञान का प्रतीक है।
(iv) ‘हरि हैं’ तथा ‘दीपक देख्या’ में अनुप्रास अलंकार है।
(v) सरल, सहज सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है।
चौथी साखी
सुखिया सब संसार है, खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै।।
शब्दार्थ – सुखिया सुखी, खाये – खाए, अरू – और, सोवै – सोना,
दुखिया – दुःखी, दास – परमात्मा का सेवक, ईश्वर का भक्त, जागे – जागना, रोवै-रोता है।
भावार्थ – कबीर संसार को दो भागों में बाँटते हैं, पहला भाग जिसमें सुखी लोग आते हैं तथा दूसरा जिसमें दुःखी लोग आते हैं।
सुखी लोग जो मौज-मस्ती में डूबे रहते हैं वे खाते हैं और सोते हैं। साथ ही अपनी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए जीवन बिताते हैं। सांसारिक सुखों को भोगना ही उनका उद्देश्य होता है तथा दूसरी ओर दुःखी लोग आते हैं, जो केवल जागते हैं और रोते हैं अर्थात् वे जीवन की नश्वरता को भली-भाँति पहचान गए हैं। जिसमें जागना उनके सचेत व सजग रहने का प्रतीक है तथा रोना उनका जीवन के प्रति क्रियाशील व प्रयत्नशील रहने की स्थिति (दशा) का प्रतीक है।
काव्य सौंदर्य
(i) प्रस्तुत साखी में बताया गया है कि भौतिक सुख के पीछे भागने वाले लोग संसार की नश्वरता से अनजान रहते हैं।
(ii) सरल एवं सहज रूप में सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है।
(iii) ‘सुखिया सब संसार’ तथा ‘दुखिया दास’ में अनुप्रास अलंकार है।
(iv) खायै अरु सोवै, जागै अरु रौवे में लयात्मकता है।
(v) कबीर की भाषा लोक व जन-जन की भाषा है।
पाँचवीं साखी
बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ ।।
शब्दार्थ – बिरह – बिछड़ना, मिलन न होना, वियोग, भुवंगम – साँप, भुजंग,
तन – शरीर, वसै – बसता है, रहता है, मंत्र – उपाय, युक्ति, तरीका, लागै-लगना, वियोगी – प्रेम में व्याकुल रहने वाला, जिवै – जीता, चौरा-पागल ।
भावार्थ – कबीरदास कहते हैं कि जिन व्यक्तियों के शरीर में परमात्मा (राम) का विरह (वियोग) रूपी साँप बस जाता है, उनके बचने की कोई आशा, कोई उपाय शेष नहीं रहता। वह राम के वियोग के बिना जीवित नहीं रह पाता और यदि किसी कारण से वह जीवित रह भी जाता है. तो परमात्मा को पाने के लिए वह पागलों की भाँति ही जीवन व्यतीत करता है। परमात्मा से मिलन ही इसका एकमात्र उपाय है।
काव्य सौंदर्य
(i) सांसारिक मोह-माया त्यागकर तथा ईश्वर से वैराग्य के कारण प्राणी पागल जैसा दिखाई देता है।
(ii) ‘बिरह भुवंगम’ में रूपक अलंकार विद्यमान है।
(iii) सर्प को विरह का प्रतीक बताया गया है।
(iv) सरल, सहज एवं सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग किया गया है।
छठी साखी
निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ ।।
शब्दार्थ – निंदक – निंदा करने वाला, नेड़ा-करीब, पास में, राखिये-रखिए, ऑगणि-आँगन, कुठी-कुटिया, वैधाइ – बनवाकर, सावण-साबुन, निरमल-पवित्र, साफ, करें-करेगा, सुभाइ-स्वभाव, चरित्र, मन।
भावार्थ – कबीरदास कहते हैं कि जो व्यक्ति हमारी निंदा करता है, हमें उस व्यक्ति को सदा अपने पास में ही रखना चाहिए। यदि संभव हो तो उसके लिए अपने घर के आँगन में ही एक कुटिया बना देनी चाहिए, जिससे वह हमारे करीब ही रहे। वह हमारे बुरे कार्यों की निंदा करता रहे ताकि हम अपने स्वभाव में अच्छे गुणों का प्रवेश करते रहें तथा अवगुणों को दूर कर सकें। क्योंकि ऐसा व्यक्ति हमारे स्वभाव को बिना साबुन और पानी के अत्यंत स्वच्छ व निर्मल बना देता है तथा हम सभी अपने स्वभाव को दोष रहित बना लेते हैं।
काव्य सौंदर्य
(i) प्रस्तुत साखी में बताया गया है कि निंदक हमारी निंदा करके हमें आत्मसुधार करने का अवसर प्रदान करता है।
(ii) सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है।
(iii) ‘निंदक नेड़ा’ में अनुप्रास अलंकार है।
(iv) भाषा सरल एवं सहज है तथा भावों की अभिव्यक्ति में पूर्णतः सक्षम है।
(v) राजस्थानी व पंजाबी शब्दों का अत्यंत सुंदर प्रयोग किया गया है।
सातवीं साखी
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
ऐकै अषिर पीव का, पढ़ें सु पंडित होइ।।
शब्दार्थ – पोथी – ग्रंथ, धार्मिक पुस्तक, पढ़ि-पढ़ि – पढ़-पढ़कर, जग – संसार, मुवा – मर गया, पंडित – ज्ञानी व्यक्ति, भया – हुआ, बना, ऐकै – एक ही,
अषिर – अक्षर या शब्द, पीव – प्रियतम, परमात्मा, सु – वह।
भावार्थ – कबीरदास कहते हैं कि इस संसार में लोग धार्मिक पुस्तकें व शास्त्र पढ़-पढ़कर इस संसार से चले गए, किंतु कोई भी ज्ञानी नहीं बन सका। इसके विपरीत जो मनुष्य प्रियतम यानी परमात्मा या ब्रह्म के प्रेम से संबंधित एक भी अक्षर पढ़ या जान लेता है, वह सच्चा ज्ञानी अर्थात् पंडित हो जाता है।
अर्थात् जिसके मन में सभी के प्रति प्रेम व आदर का भाव जन्म ले लेता है, वह सच्चे अर्थों में ज्ञानी हो जाता है। इसलिए सर्वश्रेष्ठ ज्ञान वह है, जो मनुष्य जाति को प्रेम करना सिखाता है तथा उनकी अहम की भावना का नाश करता है। भाव यह है कि जिसने परमात्मा को जान लिया, वही सच्चा ज्ञानी हो जाता है।
काव्य सौंदर्य
(i) इस साखी में परमात्मा को जानने वाले को सच्चा ज्ञानी बताया है।
(ii) इस पद में ज्ञानी वर्ग पर व्यंग्य किया गया है।
(iii) ‘पोथी पढ़ि-पढ़ि’ में अनुप्रास अलंकार विद्यमान है।
(iv) भाषा सरल, सहज एवं सधुक्कड़ी है, जो भावाभिव्यक्ति में पूर्णतः सक्षम है।
(v) पढ़ि-पढ़ि में पुनरुक्ति प्रकाश अंलकार का प्रयोग हुआ है।
आठवीं साखी
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चले हमारे साथि।।
शब्दार्थ – हम – मैंने, जाल्या – जलाया, आपणों – अपने, मुराहा – जलती हुई लकड़ी, हाथि – हाथ, जालों – जलाऊँ, तास का – उसका, जे – जो, साथि-साथ।
भावार्थ – कबीरदास कहते हैं कि मैंने विरह और ईश्वर-भक्ति से जलती हुई मशाल को हाथ में लेकर अपने घर को जला लिया है अर्थात् मैंने भक्ति में भरकर अपनी सांसारिक विषय-वासनाओं को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है। अब जो-जो भक्त मेरे साथ भक्ति के मार्ग पर जाने को तैयार हों, मैं उनका सांसारिक विषय-वासनाओं का घर भी जला डालूँगा और उनके हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम की भावना जगा दूँगा।
काव्य सौंदर्य
(i) प्रस्तुत साखी की शैली प्रतीकात्मक है। ‘घर’ एवं ‘मशाल’ क्रमशः सांसारिकता एवं ज्ञान के प्रतीक हैं। इसमें सासांरिक विषय वासनाओं को नष्ट करने की बात कही गई है।
(ii) सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है।
(iii) सरल एवं सहज भाषा का प्रयोग हुआ है, जो भावाभिव्यक्ति में पूर्णतः सक्षम है।
(क) प्रायः पूछे जाने वाले प्रश्न
प्रश्न 1. मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?
उत्तर – मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख इस प्रकार प्राप्त होता है कि लोग आदर और सम्मान भरे वचनों को सुनकर सुखी होते हैं। इसी प्रकार मीठी वाणी बोलने वाला व्यक्ति बातचीत करते हुए जब अहंकार का त्याग कर देता है, तो उसके तन को भी शीतलता प्राप्त होती है।
प्रश्न 2. दीपक दिखाई देने पर अँधियारा कैसे मिट जाता है? साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – यहाँ दीपक का अर्थ भक्तिरूपी ज्ञान तथा अंधकार का अर्थ अज्ञानता से है। जिस प्रकार दीपक के प्रकाश से अंधकार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार अहंकार नष्ट होने तथा ईश्वर के प्रेम रूपी प्रकाश को पाने से मन के सारे भ्रम, कलेश, परेशानियाँ, संदेह, प्रश्न आदि समाप्त हो जाते हैं, जिससे मनुष्य का सारा अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाता है।
प्रश्न 3. ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?
उत्तर – ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे इसलिए नहीं देख पाते, क्योंकि हम अज्ञानी, अविश्वासी और अहंकारी हैं। हमारा अज्ञान, अविश्वास एवं अहंकार हमें ईश्वर तक पहुँचने नहीं देता और हम केवल सांसारिक आडंबरों में फँसकर रह जाते हैं और हम उस ईश्वर का दर्शन नहीं कर पाते, जो हर प्राणी के अंदर मौजूद है।
प्रश्न 4. संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुःखी कौन? यहाँ ‘सोना’ और ‘जागना’ किसके प्रतीक हैं? इनका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – संसार में सुखी व्यक्ति वह है, जो ईश्वर के प्रति प्रेम न रखकर तन-मन से सांसारिक सुखों को भोगता है और अपना जीवन सुख-समृद्धि आदि के बीच व्यतीत करता है। संसार में दुःखी व्यक्ति वह है, जो ईश्वर के प्रेम में पड़कर दिन-रात उससे मिलने के लिए जागता और तड़पता रहता है।
यहाँ ‘सोना’ शब्द प्रतीक है-ईश्वर के प्रति उदासीनता का, जबकि ‘जागना’ शब्द प्रतीक है- ईश्वर के प्रति आस्था रखने और उसे पाने के प्रयास में लगे रहने का।
कबीरदास ने ईश्वर के प्रति उदासीन लोगों के भौतिक संसार के सुखों को व्यर्थ बताते हुए उन्हें ‘सोया’ हुआ बताया है। उनके अनुसार, ईश्वर के प्रति भक्तों की तड़प में ही जीवन और जागरण उपस्थित है।
प्रश्न 5. अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?
उत्तर – अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने उपाय सुझाते हुए बताया है कि हमें निंदा करने वाले मनुष्य को सदा अपने पास रखना चाहिए और उनकी बातों पर ध्यान देना चाहिए। इससे हम अपने स्वभाव और चरित्र को निर्मल बना सकते हैं।
प्रश्न 6. ‘ऐकै अधिर पीव का, पढ़े सु पंडित होड।’ – इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर – इस पंक्ति द्वारा कवि ने प्रेम की महत्ता को बताया है। ईश्वर को पाने के लिए एक अक्षर प्रेम का अर्थात ईश्वर को पढ़ लेना ही पर्याप्त है। बडे-बडे पोथे या ग्रंथ पढ़कर कोई पंडित नहीं बन जाता। केवल परमात्मा का नाम स्मरण करने से ही सच्चा ज्ञानी बना जा सकता है।
प्रश्न 7. कबीर की उद्धृत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कबीर की भाषा में सधुक्कड़ी प्रभाव दिखाई देता है। उन्होंने ब्रज,
पंजाबी, अवधी, राजस्थानी, फ़ारसी, अरबी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है।
उन्होंने संस्कृत, तद्भव तथा देशी शब्दों के अद्भुत मेल (‘शीतल’ का ‘सीतल’, ‘वियोगी’ का ‘बियोगी’ आदि) को प्रस्तुत किया है।
उनकी साखियों में मुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है। उन्होंने समाज में चेतना जागृत करने के लिए जनसामान्य में बोली जाने वाली भाषा का ही प्रयोग किया। साथ ही, अनुप्रास एवं रूपक अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें ‘भाषा का डिक्टेटर’ कहा है। उनके अनुसार, कबीर ने अपनी बात को जिस रूप में प्रकट करना चाहा, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा दिया।
(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए:
प्रश्न 1. “बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।”
उत्तर- इस पंक्ति का भाव है कि जिस व्यक्ति के हृदय में ईश्वर के प्रति प्रेम रूपी विरह का सर्प बस जाता है, उस पर कोई मंत्र असर नहीं करता है अर्थात् भगवान के विरह में कोई भी जीव सामान्य नहीं रहता है। उस पर किसी बात का कोई असर नहीं होता है। अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति ही इसका स्थायी समाधान है।
प्रश्न 2. “कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।”
उत्तर – इस पंक्ति में कबीरदास कहते हैं कि कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ हिरण की अपनी नाभि में ही होता है, किंतु वह उसे पाने के लिए परेशान होकर वन-वन भटकता फिरता है। उसी प्रकार ईश्वर भी सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं, किंतु लोग अज्ञानतावश उन्हें इधर-उधर ढूंढते रहते हैं। जबकि ईश्वर हमारे मन में ही हैं।
प्रश्न 3. “जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।”
उत्तर – इस पंक्ति द्वारा कबीर का कहना है कि जिस समय मेरे अंदर ‘मैं’ अर्थात् अहंकार भरा हुआ था, उस समय मुझे ईश्वर नहीं मिल पा रहे थे। अब मुझे ईश्वर के दर्शन हो गए हैं, क्योकि मेरे भीतर का अहंकार समाप्त हो गया है।
प्रश्न 4. “पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।”
उत्तर – कबीरदास कहते हैं कि इस संसार में लोग धार्मिक पुस्तकें पढ़-पढ़कर मर गए, किंतु कोई भी ज्ञानी नहीं बन सका अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति नहीं कर पाया। लेकिन जिसने परमात्मा को जान लिया, वही सच्चा ज्ञानी है। सांसारिक और धार्मिक ज्ञान से कोई ज्ञानी नहीं बन सकता।
(ग) विषयवस्तु का ज्ञान, बोध, अभिव्यक्ति पर आधारित प्रश्न
प्रश्न 1. मनुष्य की वाणी में मिठास कब आती है?
उत्तर – मनुष्य की वाणी में मिठास तब आती है. जब उसके अंदर का अहंकार समाप्त हो जाता है और वह सभी मनुष्यों को एक ही ईश्वर की संतान मानकर उनसे एक समान व्यवहार करता है। इसके साथ ही जब मनुष्य कड़वे वचनों का त्याग कर सभी प्राणियों के साथ शांत एवं प्रसन्नचित्त होकर बात करता है तब उसकी वाणी में मिठास आ जाती है।
प्रश्न 2. कबीर ने सच्चा भक्त किसे कहा है?
उत्तर – कबीर ने सच्चा भक्त उस व्यक्ति को कहा है, जिसने ईश्वर के प्रेम का अनुभव किया हो और वह ईश्वर को सच्चे हृदय से प्रेम करता हो तथा अपना कर्त्तव्य पूरी निष्ठा के साथ पूर्ण करता हो।
प्रश्न 3. कबीर के अनुसार, विरही जीवित क्यों नहीं रहता?
उत्तर – कबीर के अनुसार, विरही जीवित इसलिए नहीं रहता क्योकि परमात्मा का विरह रूपी साँप उसके मन में बस जाता है। जिसके परिणामस्वरूप वह परमात्मा से मिलने के लिए दिन-रात तड़पता रहता है। उसे स्वयं अपने बचने की कोई उम्मीद या उपाय नजर नहीं आता। सांसारिक सुखों की प्राप्ति की भी उसे कोई इच्छा नहीं रहती। अतः परमात्मा के वियोग में विरही का जीवित रहना असंभव है।
प्रश्न 4. ‘पोथी पढ़ि-पढ़ि’ तथा ‘घटि-घटि’ में कौन-सा अलंकार है?
उत्तर – ‘पोथी पढ़ि-पढ़ि’ में ‘प’ वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार तथा ‘घटि-घटि’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
प्रश्न 5. कबीर के अनुसार, निंदा क्यों उपयोगी है?
उत्तर – कबीर के अनुसार, निंदा इसलिए उपयोगी है, क्योकि यदि कोई मनुष्य अपनी निंदा को सहन कर उससे सीख ले, तो वह स्वयं में बहुत से सुधार लाकर सदाचारी और निर्मल बन सकता है।
प्रश्न 6. ‘मन का आपा खोने’ का आशय बताइए।
उत्तर – ‘मन का आपा खोने’ का आशय अपने मन से अहंकार भाव को विलीन कर देने से है।
कबीर कहते हैं कि मनुष्य को अपने मन का अहंकार त्यागकर, अमृत के समान पवित्र एवं मीठे वचन बोलने चाहिए, जिससे स्वयं के साथ-साथ अन्य प्राणियों के हृदय को भी सुख एवं शान्ति प्रदान की जा सके तथा आलौकिक आनंद का अनुभव किया जा सके। अतः प्रत्येक मनुष्य को मीठे वचन बोलकर सभी प्राणियों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए।
प्रश्न 7. कबीर की भाषा को किन नामों से जाना जाता है और क्यों?
उत्तर – कबीर की भाषा को पंचमेल खिचड़ी और सधुक्कड़ी आदि नामों से जाना जाता है। इनके काव्य की भाषा में मुख्य रूप से ब्रज, अवधी एवं खड़ी बोली का मिश्र रूप दिखाई पड़ता है, जिसमें कहीं-कहीं भोजपुरी, पंजाबी एवं राजस्थानी भाषा के तत्त्व भी सरलता से देखे जा सकते हैं।
चूंकि कबीर का ज्ञान विस्तृत था तथा उन्होंने बहुत-से स्थानों की यात्रा भी की है. इसलिए उनकी काव्य भाषा में विभिन्न भाषाओं का मिश्रण होना स्वाभाविक है। इन्हें भाषा का डिक्टेटर भी कहते हैं।
प्रश्न 8. कबीर के अनुसार, मैं और हरि में क्या विरोध है?
उत्तर – कबीर के अनुसार, मैं और हरि एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं।
यहाँ ‘मैं’ का अर्थ मनुष्य का अहंकार है. जबकि ‘हरि’ के द्वारा ईश्वर को संबोधित किया गया है।
कबीर कहते हैं कि जब तक मनुष्य के मन में ‘मैं’ अर्थात् अहंकार रहता है, तब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह अहंकार दूर होने के बाद ही संभव है। निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति का अहंकार उसके हरि मिलन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
प्रश्न 9. कबीर निंदक को अपने निकट रखने का परामर्श क्यों देते हैं? या
प्रश्न 9. कबीर ने निंदक को पास रखने की सलाह क्यों दी? क्या यह सलाह आपको उचित प्रतीत होती है? कारण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कबीर निंदक को अपने निकट रखने का परामर्श इसलिए देते हैं. क्योकि निंदक अपने स्वभाववश दूसरों के दोष प्रकट करता रहता है।
इस प्रकार वह हमें स्वयं का निरीक्षण करने और स्वयं में सुधार करने का अवसर देता है। इससे बिना साबुन और पानी के ही हमारा स्वभाव स्वच्छ और निर्मल बन जाता है।
प्रश्न 10. पोथी पढ़-पढ़कर भी ज्ञान प्राप्त न होने से कबीर का क्या तात्पर्य है?
उत्तर – पोथी पढ़-पढ़कर भी ज्ञान प्राप्त न होने से कबीर का तात्पर्य यह है कि केवल ग्रंथों को पढ़ लेने मात्र से कोई ज्ञानी नहीं हो जाता।
ज्ञानवान होने के लिए ‘प्रेम’ की परिभाषा को जानना अधिक महत्त्वपूर्ण है, जो व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के मनुष्य के अस्तित्व को मानते हुए एक-दूसरे से प्रेम का भाव रखता है, वही सही मायनों में ज्ञानी है।
प्रश्न 11. ‘साखी’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर – ‘साखी’ शब्द का तद्भव रूप है- ‘साक्षी’ जो ‘साक्ष्य’ शब्द से निर्मित हुआ है और जिसका अर्थ है- प्रत्यक्ष ज्ञान। यही साक्षी शब्द बिगड़ते-बिगड़ते साखी बन गया।
कबीरदास ने जिन बातों को अपने अनुभव से जाना तथा सत्य पाया, उन्हें साखी के रूप में प्रस्तुत किया। ये साखियाँ सत्य की प्रतीक है।
प्रश्न 12. कबीर की भक्ति-भावना का वर्णन अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कबीरदास निराकार भक्ति के उपासक थे, जिन्होंने सगुण भक्ति मूर्ति पूजा का खंडन एवं धर्म के झूठे दिखावे करते हुए, निर्गुण भक्ति के महत्त्व को उजागर किया है। कबीर ने ईश्वर भक्ति के लिए मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे आदि संस्थानों पर जाना अनुचित माना है तथा ईश्वर को स्वयं में खोजने पर बल दिया है।
कबीर कहते हैं :
“मोको कहाँ ढूँढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास रे
ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।।”
प्रश्न 13. कबीर ने ईश्वर का निवास कहाँ बताया है?
उत्तर – कबीर ने ईश्वर का निवास सृष्टि के कण-कण में बताया है। वे किसी विशेष स्थान पर नहीं रहते हैं, बल्कि उनका निवास प्रत्येक प्राणी के हृदय में है।
कबीर का मानना है कि ईश्वर कण-कण में निवास करते हैं, किंतु इस संसार में रहने वाले लोग अज्ञानतावश उन्हें देख नहीं पाते और परेशान होकर इधर-उधर ढूँढ़ते रहते हैं।
प्रश्न 14. विरह रूपी सर्प कबीर के अनुसार कौन है और ‘मंत्र’ किसे कहा गया है?
उत्तर – कबीर के अनुसार, ईश्वर से मिलन न हो पाने की दशा में साधक के जीवन में विरह व्याप्त हो जाता है।
यह विरह उस सर्प की तरह अपना विष शरीर में छोड़ता है, मानो वह शरीर में ही रहता हो। इस विष का कोई निदान नहीं सूझता। यहाँ ‘मंत्र’ उपाय को कहा गया है।
प्रश्न 15. कबीर ने किस प्रकार के ब्रह्म की आराधना की है?
उत्तर – कबीर भक्तिकाल की निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि संत कवि हैं। वे निराकार ब्रह्म में विश्वास करते हैं। उनका ब्रह्म फूलों की सुगंध से भी पतला, अजन्मा और निर्विकार है।
उनका मत है कि ईश्वर धरती के कण-कण में रचा-बसा है। ईश्वर (राम) जीव के अंदर समाया हुआ है, उसे इधर-उधर खोजने की आवश्यकता नहीं है। उसे हमें अपने भीतर ही खोजना चाहिए।
प्रश्न 16. “सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै ।” में कबीर ने किस तथ्य पर प्रकाश डाला है?
उत्तर – कबीर ने प्रस्तुत पंक्तियों में बताया है कि संसार की नश्वरता से अनजान मनुष्य सांसारिक सुख-साधनों के पीछे भागता रहता है और उनमें ही डूबा रहता है। ऐसे लोगों की ब्रह्म के प्रति आसक्ति नहीं है, लेकिन कबीर संसार की नश्वरता को देख चिंतित होकर रोते हैं।
प्रश्न 17. अपने अंदर का दीपक दिखाई देने पर कौन-सा अँधियारा कैसे मिट जाता है? कबीर की साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – ‘दीपक’ प्रकाश फैलाने का माध्यम है। इससे अंधकार का नाश होता है। कबीर ने अपनी साखी में ‘दीपक’ को ज्ञान के प्रतीक के रूप में रखा है। ज्ञान मन के भीतर बस दोषों को नष्ट करता है।
मनुष्य के अवगुण अंधकार के समान ही है। ज्ञान की ज्योति से अंधकार का मिटना मनुष्य को एक नई पहचान देता है। ईश्वरीय ज्ञान मनुष्य को आंतरिक अंधकार के कारण नहीं हो पाता। इस अंधकार के समाप्त होते ही मनुष्य का ईश्वर से एकाकार हो जाता है।
अपने अंदर का दीपक दिखाई देने पर अपने पराए का भेद मिट जाता है। जिस प्रकार दीपक के प्रकाश से अंधकार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार जब मनुष्य का ईश्वर के प्रेम रूपी प्रकाश से साक्षात्कार होता है तो उसके मन के सारे प्रश्न, भ्रम, संदेह समाप्त हो जाते हैं, और अज्ञान रूपी अंधकार मिट जाता है।
प्रश्न 18. ‘साखी’ शब्द को स्पष्ट करते हुए कबीर द्वारा रचित साखियों के केंद्रीय भाव को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर – साखी शब्द से अभिप्राय साक्षात् ज्ञान अर्थात् मनुष्य अपने अनुभवों से जो ज्ञान प्राप्त करता है वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण जीवन के भोगे हुए यथार्थ पर निर्भर करता है।
कबीर अपने दोहों द्वारा भक्ति मार्ग, प्रेममार्ग व नीति मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। वे सदैव मनुष्य मात्र को निडर व सबल बनने की सीख देती है।
भक्ति मार्ग में आने वाले बाह्य आडंबरों, मूर्ति पूजा
आदि का पुरजोर विरोध करते हैं तथा प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ने मात्र से व्यक्ति ज्ञानी से भी सर्वश्रेष्ठ बन जाता है।
कबीर जी के दोहे सधुक्कड़ी अर्थात् पंचमेल खिचड़ी में लिखे गए, जिनमें सभी भाषाओं का पुट है।
प्रश्न 19. कबीरदास की साखियों के मुख्य उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कबीरदास की साखियों के मुख्य उद्देश्य निम्न है
(i) मनुष्य को ईश्वर की प्राप्ति के लिए अच्छे कार्य करने हेतु प्रेरित करना एवं सच्चे मार्ग पर चलने पर जोर देना।
(ii) सांसारिक सुखों और सामाजिक ढोंगों को छोड़कर अपने अहंकार को त्यागकर मधुर वचन बोलना।
(iii) मीठे वचन बोलकर ईश्वर भक्ति में लगे रहना।
(iv) अपनी निंदा को सकारात्मक अर्थ में लेते हुए स्वयं के व्यक्तित्व व स्वभाव में सुधार करना।
(v) ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्हें अपने भीतर टटोलना अर्थात् अपनी आत्मा में ईश्वर के अंश का साक्षात्कार करना।
प्रश्न 20. कबीर की साखियों से हमें क्या शिक्षा मिलती है?
अथवा
प्रश्न 20. कबीर की किसी साखी के आधार पर बताइए कि कबीर किन जीवनमूल्यों को मानव के लिए आवश्यक मानते हैं?
उत्तर – महान् संत कवि कबीर की साखियों से हमें नैतिकता एवं ज्ञान की शिक्षा मिलती है। उनकी साखियों में अहंकार से दूर रहने, मीठे वचन बोलने, सच्चे मन से ईश्वर को याद करने, सामाजिक रूढ़ियों को दूर करने आदि संबंधी शिक्षा मिलती हैं।
उपर्युक्त साखियाँ मनुष्य को नीति संबंधी शिक्षा भी प्रदान करती हैं। बाहरी ढोंग से दूर रहने, आपसी वैर भाव एवं धार्मिक मतांतरों को भूलने तथा जीवन के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने संबंधी प्रेरणा देने के अतिरिक्त ये साखियाँ आत्म-सुधार की प्रेरणा भी देती हैं। पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा व्यावहारिक ज्ञान उपयोगी है।
वास्तव में, जनमानस में व्याप्त सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों एवं कुरीतियों को दूर करना तथा आध्यात्मिक एवं नैतिक उन्नति करने में सहायता करना ही कबीर का लक्ष्य था, जिसके लिए उन्होंने अपनी साखियों को माध्यम बनाया।
प्रश्न 21. कबीर के दोहे के आधार पर कस्तूरी की उपमा को स्पष्ट कीजिए। मनुष्य को ईश्वर प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
प्रश्न 21. कबीर ने कस्तूरी मृग का उदाहरण देकर क्या स्पष्ट करने का प्रयास किया है?
अथवा
प्रश्न 21. कबीर ने अपने दोहे में ‘हिरण’ का उदाहरण किस संदर्भ में दिया है? क्या आप भी कबीर के विचार से सहमत हैं? अपना उत्तर स्पष्ट से लिखिए।
उत्तर – कबीर का कहना है कि जिस प्रकार ‘कस्तूरी’ (कस्तूरी नामक सुगंधित पदार्थ) मृग की नाभि में ही होता है, लेकिन अज्ञानतावश वह इसे पाने के लिए वन में भटकता रहता है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर का निवास भी मनुष्य के हृदय में ही है, लेकिन मनुष्य को इसका ज्ञान नहीं होने के कारण वह ईश्वर को अन्यत्र खोजता फिरता है।
अपने कथन की सटीक पुष्टि के लिए ही कबीर ने ईश्वर के संदर्भ में कस्तूरी मृग की उपमा दी है।
हाँ मैं कबीर के इस विचार से पूर्ण रूप से सहमत हूँ, क्योकि हम सभी ईश्वर का ही एक अंश है। कबीर के अनुसार, ईश्वर
कण-कण में व्याप्त है, किंतु हमारी अज्ञानता, अविश्वासी प्रवृत्ति और अहंकारी स्वभाव ईश्वर की प्राप्ति में बाधक बनता है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य केवल सांसारिक विषय-वासनाओं और आडंबरों में ही फंसा रह जाता है।
अतः मनुष्य को ईश्वर प्राप्ति के लिए अज्ञानता, अविश्वास और अहं भाव को त्यागकर ईश्वर के प्रति भक्ति भाव रखना चाहिए। इस प्रकार ईश्वरीय ज्ञान के बल पर तथा ईश्वर पर अटूट विश्वास रखकर तथा मधुर व्यवहार के द्वारा ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
प्रश्न 22. कबीर ने अपने दोहे में निंदक को समीप रखने की सलाह दी है। क्या आप भी अपने निंदक को पसंद करते हैं? निंदक के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए उससे होने वाले लाभों के बारे में लिखिए।
उत्तर – कबीर ने अपने दोहे में निदंक को समीप रखने की सलाह दी है, क्योंकि यदि कोई मनुष्य अपनी निंदा को सहन करना सीख ले, तो वह स्वयं में बहुत से सुधार लाकर सदाचारी और निर्मल बन सकता है। यही कारण है कि मैं भी अपने निंदक को पसंद करता हूँ।
जब मैं कोई कार्य करता हूँ, तो बहुत से निंदक मेरे समीप होते हैं और वे मेरे द्वारा किए गए कार्यों में से कमियों को निकालते हैं।
इन कमियों को मैं गंभीरता से लेते हुए सुधार के प्रयास करता हूँ और उसी कार्य को और अधिक मेहनत के साथ करते हुए पहले वाली गलतियों में सुधार करता हूँ।
यदि मेरे समीप निंदक नहीं होगा, तो मेरी कमियों को उजागर करने वाला कोई नहीं होगा। इस कारण मैं एक ही गलती को बारंबार दोहराता रहूँगा। अतः कहा जा सकता है कि हमें निंदक को अपने ही समीप रखकर उसकी निंदा से लाभ उठाना चाहिए।
प्रश्न 23. ‘ऐकै अषिर पीव का पढ़े सु पंडित होय’ पंक्ति का आप क्या अर्थ समझते हैं? प्रेम का एक अक्षर सभी ग्रंथों से किस प्रकार भारी है?
उत्तर – इस पंक्ति द्वारा कबीरदास ने प्रेम की महत्ता को प्रकाशित किया है। ईश्वर को पाने के लिए एक अक्षर प्रेम का अर्थात् ईश्वर को पढ़ लेना ही पर्याप्त है। बड़े-बड़े पोथे या ग्रन्थ पढ़कर कोई पंडित नहीं बन जाता। वे कहते हैं प्रेम का एक अक्षर जो पढ़ लेता है, वह पंडित हो जाता है। केवल भगवान का नाम याद करने से ही वह सच्चा ज्ञानी बन सकता है। केवल परमात्मा का नाम स्मरण करने से ही सच्चा ज्ञानी बना जा सकता है।
प्रेम का ज्ञान एक प्रकार का व्यावहारिक ज्ञान होता है, जो हमें मनुष्य से जोड़ने में सहायता प्रदान करता है; परन्तु पोथि पढ़ कर जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसमें अहंकार पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है।
निष्कर्ष
हिंदी भक्ति काव्यधारा के संत कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले कबीरदास जी का जन्म 1398 ई. में काशी में हुआ माना जाता है। इनके गुरु का नाम रामानंद था। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। इनके पदों और साखियों में समाज-सुधारक की निडरता का स्वर सुनाई देता है। कबीरदास जी ने अपने समय में व्याप्त रूढ़ियों और धार्मिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाई तथा राम-रहीम की एकता पर बल दिया।
एक ओर धर्म के बाह्याडंबरों पर इन्होंने तीखा प्रहार किया, तो दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा के विरह मिलन के महत्त्वपूर्ण गीत गाए।
कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-साखी, सबद और रमैनी। इनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ या ‘पंचमेल खिचड़ी’ भाषा कहा जाता है।
इन्होंने अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और वहीं 1518 ई. में उनका देहांत हो गया।
ऊपर उल्लिखित कबीर द्वारा रचित ‘साखी’ पाठ में कबीरदास द्वारा रचित कुछ महत्त्वपूर्ण साखियों को संकलित किया गया है। साखी शब्द से अभिप्राय प्रत्यक्ष या साक्षात् ज्ञान से है। कबीर ने प्रस्तुत साखियों में दैनिक जीवन के महत्त्वपूर्ण पहलुओं को अभिव्यक्त किया है।
प्रथम साखी में कबीर ने मधुर वाणी बोलने के महत्त्व को बताया है।
दूसरी साखी में मृग के उदाहरण के माध्यम से मनुष्य की अज्ञानता की ओर संकेत किया गया है।
तीसरी साखी में बताया गया है कि यदि मन में अहंकार का वास है, तो ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है।
चौथी साखी में कबीर ने संसार को दो भागों में बाँटते हुए बताया है कि एक भाग में विषय-वासना में लिप्त सुखी जीवन व्यतीत करने वाले लोग आते हैं तथा दूसरे भाग में ईश्वर भक्त आते हैं, जो ईश्वर की प्राप्ति के लिए दिन-रात उपासना करते रहते हैं।
पाँचवी साखी में कबीर ने बिछड़ने के दुःख को सर्प के विष के समान बताया गया है।
छठी साखी में निंदक व्यक्ति के साथ निर्मल (कोमल) बनने की बात कही गई है।
सातवीं साखी में पुस्तक ज्ञान की अपेक्षा प्रेम का महत्त्व व सभी विकारों से युक्त होने को सच्चा ज्ञानी कहा गया है।
आठवीं साखी में जो विकारों से मुक्ति पाना चाहते हैं, उन लोगों को कबीर ने अपने साथ चलने के लिए आमंत्रित किया गया है।

नमस्कार ! मेरा नाम भूपेन्द्र पाण्डेय है । मेरी यह वेबसाइट शिक्षा जगत के लिए समर्पित है। हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य और अनुवाद विज्ञान से संबंधित उच्च स्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना मेरा मुख्य उद्देश्य है । मैं पिछले 20 वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहा हूँ ।
मेरे लेक्चर्स हिंदी के छात्रों के द्वारा बहुत पसंद किए जाते हैं ।
मेरी शैक्षिक योग्यता इस प्रकार है : बीएससी, एमए (अंग्रेजी) , एमए (हिंदी) , एमफिल (हिंदी), बीएड, पीजी डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन (गोल्ड मेडल), यूजीसी नेट (हिंदी), सेट (हिंदी)
मेरे यूट्यूब चैनल्स के नाम : Bhoopendra Pandey Hindi Channel, Hindi Channel UPSC