मार्क्सवादी साहित्य और कला-चिन्तन | Marxvadi Sahitya aur Kala Chintan | Marxvadi Sahitya Chintan

मार्क्सवादी कला और साहित्य-चिन्तन मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित है। इसके दो प्रमुख आधार हैं- एक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और दूसरा ऐतिहासिक भौतिकवाद।

 


द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद
एक विकास का सिद्धान्त है जो क्रिया, प्रतिक्रिया और समन्वय के द्वारा आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। इसका संबंध प्रकृति और जगत के नियमों की व्याख्या से है ।

 

 ऐतिहासिक भौतिकवाद मनुष्य के सम्पूर्ण इतिहास की व्याख्या है । मानव-समुदाय का मूल प्रयत्न आर्थिक या उत्पादन-परक है। इसी के लिए वह श्रम का आधार ग्रहण करता है। इन्हीं तत्त्वों के आधार को ग्रहण कर कला और साहित्य का निर्माण होता है। अतः कला और साहित्य भी मानव के व्यापक कार्यकलाप का अंग है। वह उसके श्रम को मधुर बनाता है और उत्पादन के उपरान्त प्राप्त सफलता के आधार पर आगे के निर्माण और विकास की कल्पना प्रदान करता है और उसका मार्ग प्रशस्त करता है।

 

इस प्रकार मार्क्सवाद साहित्य और कला के सम्बन्ध में एक भौतिक वस्तुवादी एवं सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर सामने आया। धीरे-धीरे इस दृष्टिकोण का एक व्यापक प्रभाव पड़ा।


कार्ल मार्क्स (Karl Marx) (1818 -1883 ई.)

मार्क्स का जन्म 5 मई 1818 को जर्मनी के प्रशिया क्षेत्र के राइनप्रान्त के अन्तर्गत स्थित ट्रायर नगर में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। ये यहूदी-वंश में उत्पन्न हुए थे और इनके पिता एक वकील थे जो प्रोटेस्टैण्ट ईसाई हो गये थे। इस धर्म-परिवर्तन का मार्क्स के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ा और वे सभी धर्मों से मुक्त हो  गये।

 

इनकी आरम्भिक शिक्षा ट्रायर में हुई। 1835 में इन्हें बॉन (Bonn) युनिवर्सिटी से मैट्रीकुलेशन का प्रमाणपत्र मिला। इस समय इन्होंने दर्शन और इतिहास का अध्ययन किया।

 

 1836  में कानून और दर्शन पढ़ने के  लिए ये बर्लिन युनिवर्सिटी में दाखिल हुए। इस समय हीगेल के से इनका परिचय हुआ।

 

आगे चलकर उन्होंने समझा कि ईसाई धर्म-कथाओं में ऐतिहासिकता नहीं, वरन् वे कपोल कल्पनाएँ हैं।

अपने क्रान्तिकारी लेखों और वक्तव्यों के कारण इन्हें जर्मनी छोड़कर पेरिस जाना पड़ा और आगे वहाँ से हालैण्ड
और लन्दन।

 

 ब्रुसेल्स में रहकर इन्होंने अनेक क्रान्तिकारी लेख लिखे। इनका परिचय लन्दन में फ्रेडरिख ऐंजिल्स से हुआ। दोनों ने मिलकर कम्यूनिस्ट मैनीफेस्टो 1847 में लिखा, जो आगे साम्यवादियों के लिए बाइबिल सिद्ध हुआ।

 

इसी बीच पॉवर्टी  ऑफ फिलॉसफी (Poverty of Philosophy) की भी रचना हुई।

 

1867 में मार्क्स की दास कैपिटल (Das Kapital) पुस्तक प्रकाशित हुई जिसने विश्वभर में तहलका मचा दिया। यह मजदूर वर्ग के लिए धर्मग्रन्थों की भांति अत्यंत महत्वपूर्ण और अनुकरणीय सिद्ध हुई। आजकल कतिपय संशोधनों के साथ यह पुस्तक सारे साम्यवादी संसार की मार्गदर्शक है।

 

मार्क्स जितने बड़े दार्शनिक और विचारक थे, उतने ही बड़े कर्मठ व्यक्ति भी थे। उनका सारा चिन्तन संसार को एक व्यावहारिक समानता और खुशहाली की ओर ले जाने में लगा था। उनका सारा जीवन इसी कार्य में लगा, यहाँ तक कि उनका पारिवारिक जीवन भी प्रायः समाप्त हो गया था।

उन्होंने अपने विचारों से एक नई दुनिया का निर्माण किया। विश्व की अर्थ-व्यवस्था पर उनके विचार मौलिक और
क्रान्तिकारी हैं।

 

मार्क्स की मृत्यु लन्दन में 14 मार्च सन् 1883 ई. में हुई। मार्क्स और ऐंजिल्स ने प्रायः अनेक विषयों पर साथ-साथ मिलकर लिखा है। उनके साहित्य और कला-सम्बन्धी विचार लिटरेचर एण्ड आर्ट नामक ग्रन्थ में प्रकट हुए हैं जो उनके ए कण्ट्रीब्यूशन टु दि क्रिटिक ऑफ पोलिटिकल इकोनॉमी नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना का अंश है।

 

इसमें साहित्य-सम्बन्धी प्रमुख मार्क्सवादी स्थापनायें निम्नलिखित हैं-

 

 1. साहित्य एवं कला, विचारधारा का एक ही रूप है (ये विचार उस परम्परा से नितान्त भिन्न हैं, जो साहित्य और कला को सहज ज्ञान या आनुभूतिक तत्त्व के रूप में स्वीकार करते हैं।)

 

 2. साहित्य और कलायें समाज के आर्थिक-भौतिक जीवन से उत्पन्न होतीं और उसी पर स्थित और आधारित रहती हैं।

 

 3. आर्थिक और भौतिक धरातल पर परिवर्तन होने के साथ साहित्य, कला अथवा विचारधारा के अन्य
रूपों में थोड़ा-बहुत उसी तेजी के साथ परिवर्तन हो जाता है।

 

 4. ऐसे परिवर्तनों पर विचार करते समय हमें उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों-जिन्हें पदार्थ-विज्ञान की भाँति ठीक से आँका जा सकता है एवं विचारधारा के रूपों-जिनमें मनुष्य इस संघर्ष के प्रति सचेत रहता है, के बीच भेद करना चाहिए।

 

  5.  साहित्य एवं कला-केवल परिस्थितियों से प्रभावित ही नहीं, होतीं; वरन् कभी-कभी और प्रायः उन्हें प्रभावित भी
करती हैं। सामाजिक क्रान्ति एवं समाज के पुनर्निर्माण में भी कला एवं साहित्य महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।

 

 6. कला के उद्भव और विकास में श्रम की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है; क्योंकि उसके ही द्वारा उन
हाथों में शक्ति और क्षमता आती है जो कला का निर्माण करते हैं
, साथ ही उससे जीवन का अनुभव प्राप्त होता है जो साहित्य का सृजन करने में सहायक होता है।

 

 7. अन्य प्राणियों – पशुओं, पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों से मनुष्य की शक्ति और प्रतिभा तथा दृष्टि भिन्न है। अन्य प्राणी केवल अपने या अपने बच्चों के लिए काम करते हैं, जबकि मनुष्य अपने या अपनी जाति के लिए ही नहीं, वरन् सबके लिए काम करता है। दूसरे के लिए उत्पादन, स्वतः सौन्दर्य-रचना के नियमों की पूर्ति करता है।

 

 8. शैली मानव – व्यक्तित्व का पर्याय है, पर यह तभी सम्भव है, जब वह स्वतन्त्र लेखन के साथ हो, किसी दबाव या विवशता की स्थिति में किये गये सृजन के साथ नहीं।

 

 9.  उनका यह भी विचार है कि कलात्मक प्रतिभा कुछ व्यक्तियों में ही सीमित तभी होती है, जब श्रम विभाजन असन्तुलित होता है। साम्यवादी समाज में विसंगतियाँ न होने से सभी लोग अन्य कार्यों के साथ कलाकार भी होंगे।

 

मार्क्स का विश्वास था कि जो वर्ग सामाजिक शक्तियों का नियमन करता है, राजनीतिक शक्ति का भी अधिष्ठाता (नियामक, देखभाल करने वाला) होता है।

 

 जिस प्रकार राज्य-शासन जनता को भौतिक रूप से शोषित करता है, उसी प्रकार धर्म भी जनता को मानसिक रूप से भयग्रस्त बनाता है। धर्म जनता की स्वतन्त्र चेतना को नष्ट कर देता है। वह अफीम के समान है जिसके सेवन से उसकी मति भ्रष्ट हो जाती है।

 

साहित्य भी अर्थ- व्यवस्था से ही नियमित और संचालित होता है, क्योंकि साहित्यकार भी एक सामाजिक प्राणी है, अतः समाज की आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था उसका भी निर्माण करती है तथा उसकी प्रतिभा और कल्पना को प्रभावित करती है।

 

साहित्य भी युगीन अर्थव्यवस्था एवं उससे संचालित सामाजिक तन्त्र की अभिव्यक्ति होता है। फिर भी मार्क्स का विचार था कि साहित्य, सामाजिक स्थिति का यथार्थ चित्र होते हुए भी उसमें इतनी शक्ति होती है कि वह समाज-व्यवस्था को बदल सकता है। वहसामाजिक क्रान्ति उपस्थित कर सकता है।

 

साहित्य, सामाजिक परिवर्तन का अमोघ (अचूक, सफल) साधन है। पूँजीपति, साहित्य की इस शक्ति को जानता है, अतः वह साहित्य का इस प्रकार से संचालन करता है कि शोषण और प्रतिक्रियावादी (विरोधी) प्रवृत्तियाँ पोषित हो सकें। इसके विपरीत क्रान्तिकारी वर्ग, साहित्य का उपयोग क्रान्ति की अवधारणा के लिए करते हैं और उसे प्रगति का साधन बना देते हैं।

 

मार्क्स के विचार से कला-सृजन व्यक्तिगत चेतना का परिणाम नहीं है, वरन् वह सामाजिक चेतना का प्रतिफलन है। मार्क्स इस विचार को नहीं मानते कि कला की सृजन-प्रक्रिया अचेतन और यान्त्रिक होती है। उनका विचार है कि व्यक्ति अपनी शारीरिक और जैविक आवश्यकताओं से ऊपर उठकर कला की सृष्टि कर सकता है। वास्तव में वह प्रकृति की पुनः सृष्टि करता है और जागरूक रहकर सौन्दर्य और मूल्यों की रचना करता है।

 

 ऐंजिल्स के विचार

 

ऐंजिल्स के विचार भी मार्क्स के समान ही हैं। प्रायः उन दोनों ने एकसाथ मिलकर ही लिखा। वे भी धर्म और दर्शन को जनता को बहकानेवाली बातें संमझते हैं। धर्म एक निरर्थक कल्पना पर आधारित है। इससे जनता का कोई कल्याण नहीं होता।

धर्म रूढ़ि और अन्धविश्वास को जगाता है। जो साहित्य, धर्म पर ही आधारित होता है, वह थोड़े समय बाद सारहीन हो जाता है। वे साहित्य को समाज का दर्पण नहीं मानते। इसी प्रकार साहि

सिद्धान्तों के समावेश से प्रचारवादी साहित्य ही बन सकता है
, श्रेष्ठ साहित्य नहीं। ऐंजिल्स  का विचार था कि सिद्धान्त के आरोपण से कलाकृति निस्सार हो जाती है। उसे स्वतःस्फूर्त होना चाहिए।

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