अभिजात्यवाद क्या है | आभिजात्यवाद क्या है | Abhijatyavad Kya Hai | Classicism Kya Hai

हिंदी शब्द अभिजात्यवाद या आभिजात्यवाद अंग्रेजी शब्द क्लासिसिज्म [CLASSICISM] का पर्याय है। हिंदी में आभिजात्यवाद के अतिरिक्त शास्त्रवाद या श्रेण्यवाद आदि कई नाम इसके लिए प्रस्तावित किए गए हैं।

 

आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ने उसके लिए हिंदी  में श्रेण्यवाद शब्द प्रस्तावित किया किन्तु यह  शब्द प्रचलन में नहीं आ सका।

आभिजात्यवाद या क्लासिसिज्म की परिभाषा और व्याख्या समय-समय पर अनेक प्रकार से की गई है। वस्तुतः लैटिन शब्द क्लासिक का प्रयोग रोम के करदाताओं के सर्वोच्च वर्ग के लिए किया जाता था। बाद में सामान्य जनता से भिन्न अभिजात वर्ग या श्रेष्ठ वर्ग के साहित्य के लिए किया जाने लगा। परिणामतः क्लासिसिज्म (आभिजात्यवाद)क्लासिक (अभिजात) और क्लासिकल (अभिजात्य) ये तीनों शब्द सर्वश्रेष्ठ के लिए वाचक हो गए।

ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में क्लासिकका अर्थ अभिजात लेखक समझा जाता था, जो अल्पसंख्यक अभिजात (उच्च वर्ग) के लिए लिखता है।  कुछ समय बाद वह कृति क्लासिक कहलाने की अधिकारिणी मानी जाने लगी जिसमें ग्रीस और रोम की क्लासिक कही जाने वाली रचनाओं के गुण हों।

 शताब्दियों बाद उस कृति को क्लासिक कहा जाने लगा जिसमें स्थायी गुण हों।

 इर्विङ्ग बैविट के अनुसार क्लासिक वही है, जो वर्ग का प्रतिनिधित्व करे, पर वर्ग से उसका अभिप्राय उस लोकोत्तर इकाई से है, जो प्रमुख घटनाओं और विशिष्ट वस्तुओं के समूह की सामान्य विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करे।

 समय के साथ आभिजात्यवादपद का प्रयोग विशेष युग और उसकी प्रवृत्ति के  रूप में सीमित न रहकर सार्वकालिक और सार्वभौमिक हो चला।

आधुनिक युग में जब किसी कृति को क्लासिक कहा जाता है तो यह आवश्यक नहीं कि उसकी भाषा पुरानी ग्रीक या लैटिन हो या उसकी रचना प्राचीन युग में हुई हो। शेक्सपियर के नाटक, मिल्टन का पैराडाइज लास्टया इलियट की वैस्टलैण्डभी उसी प्रकार की अभिजात कालजयी रचनाएँ हैं जैसी होमर और वर्जिल की कृतियाँ।

इसी तरह वाल्मीकि की रामायण, कालिदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम्‘, तुलसीदास का रामचरित मानस, प्रसाद की कामायनीया निराला की राम की शक्ति पूजाविभिन्न युगों में रची जाने पर भी क्लासिक या अभिजात रचनाएँ मानी जाती हैं।

टी.एस. इलियट  की दृष्टि  में वही रचना क्लासिक है, जो पूर्ण विकसित सभ्यता की देन हो, जो  जाति की आत्मा का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते हुए भी कुछ सीमा तक सार्वभौम (विश्वविख्यात) हो, और मानव की गहन दार्शनिक समस्याओं पर प्रकाश डाले।

इस दृष्टि से होमर, प्लेटो, अरस्तू, वर्जिल, होरेस तथा  उनके आदर्शों पर लिखने वाले साहित्यिकों का युग, तथा उनसे प्रेरित आगस्टन युग के रोमी साहित्य को भी आभिजात्यवादी कहा जाएगा।

 मैथ्यू आर्नल्ड भी अभिजात्यवाद का समर्थक थे। वे मानते हैं कि क्लासिक उस समय संभव है, जब कवि प्राचीन कवि प्लेटो, अरस्तू, लौंजाइनस आदि से परिचित हो, क्योंकि उनका मस्तिष्क प्रौढ़ था, सभ्यता प्रौढ़ थी और साहित्य प्रौढ़ था।

वस्तुतः आभिजात्यवादशब्द कला और साहित्य में उन विशेषताओं का वाचक  है जिनमें प्राचीन ग्रीस और रोम के साहित्य, कला और विचार पद्धति के प्रति निष्ठा दिखाई पड़ती है। इस दृष्टिकोण का सम्बन्ध उन मूल्यों से है जो प्राचीन ग्रीस की जीवन विषयक अवधारणाओं से सम्बन्धित है। ऐसे मूल्य जिनमें जीवन में वैशिष्ट्य और स्थायित्व को महत्त्व दिया जाता है।

 प्रो.  ल्यूकस ने यथार्थवाद, रोमांटिसिज्म, तथा आभिजात्यवाद में अन्तर बताते हुए लिखा है कि – हमारे पुराने संस्कार (impulses) हमें रोमांटिसिज्म (स्वच्छन्दतावाद) की ओर उन्मुख करते हैं, यथार्थ के प्रति रुचि यथार्थवाद की ओर और सामाजिक सुस्थिरता का भाव शास्त्रवाद या आभिजात्यवाद की ओर ले जाता है, जिसके अन्तर्गत हमें नियमों और परम्पराओं का सम्मान रखना पड़ता है।

 टी. ई. ह्यूम लिखते हैं कि – “क्लासिक मत को हम स्वच्छन्दतावादी मत से ठीक विरुद्ध मानते हैं। मनुष्य साधारण रूप से सीमित और निश्चित प्राणी है, उसकी प्रकृति पूर्णतः स्थायी है । परम्परा और व्यवस्था द्वारा ही उसमें अच्छाई उत्पन्न की जा सकती है।”

आभिजात्य की अवधारणा का क्रमशः विस्तार होता गया और यूरोप में इस शब्द का प्रयोग क्रमशः व्यापक अर्थ में श्रेष्ठ और युगप्रवर्तक साहित्य के लिए होने लगा।

इसकी परिधि में शेक्सपियर, मिल्टन, दांते, गेटे आदि की ही नहीं वर्ड्सवर्थ, शेली जैसे स्वच्छन्दतावादी कवियों की रचनाओं का भी समावेश किया जाने लगा जिसमें शास्त्रीय नियमबद्धता और वस्तुपरकता (विषयपरकता) के स्थान पर व्यक्ति स्वातंत्र्य तथा आत्मपरकता (अपने मन या आत्मा) को महत्त्व दिया जाता था जबकि आभिजात्यवाद इस प्रवृत्ति का समर्थन नहीं करता,  बल्कि उस साहित्य को मान्यता देता है नियमों के चौखटे में बँधा हो।

आभिजात्यवाद  (शास्त्रवाद) और नव्य आभिजात्यवाद (नव्यशास्त्रवाद)

नव्य आभिजात्यवादी युग (17वीं-18वीं शताब्दी) में साहित्यालोचन का केन्द्र इटली से हटकर फ्रांस बन गया। फ्रांस के कवि रोन्सार ने कवि विक्षेप (फेंकना या झटका देना) को काव्यसृजन के लिए आवश्यक माना था और वह कल्पनामयी प्रतिभा को पूर्ण स्वतंत्रता देने का समर्थक था। उसके इन विचारों के कारण काव्य जगत में एक अव्यवस्था फैल गई थी। इस अव्यवस्था को दूर करने का प्रयास बुअलो ने किया, उसी से नव्य आभिजात्यवाद या नव्य शास्त्रवाद की स्थापना हुई।

इस युग में विद्वत्ता, ज्ञान तथा नियमों के प्रति श्रद्धाभाव था। अतः साहित्य सृजन के नियम बने।  नव्य आभिजात्यवादी यह मानते थे कि उनके बनाए नियम शाश्वत, सार्वकालिक और सार्वदेशिक हैं।

अतः सभी के द्वारा उनका पालन होना चाहिए। किन्तु उनके नियम तर्क तथा अनुभव पर आधारित है।

नव्य आभिजात्यवादी एक ओर कला सृजन में भावना और कल्पना आदि का पूर्ण बहिष्कार नहीं करता और दूसरी ओर उसे अचेतन की प्रक्रिया भी नहीं मानता, उसके लिए चेतन प्रयत्न आवश्यक मानता है, विवेक, लक्ष्य और चुनाव पर बल देता है। कल्पना रूपी घोड़े के लिए विवेक रूपी लगाम को अनिवार्य समझता है।

कुल मिलाकर 17वीं-18वीं सदी के अंग्रेजी साहित्य-चिंतन में प्राचीन आभिजात्यवादी नियमों के अनुसार तर्क तथा बुद्धिपक्ष की प्रधानता तथा संयम, संतुलन एवं आदर्शवादी विचार मिलता है। आभिजात्यवाद या शास्त्रवाद से इसमें एक बड़ा अन्तर यह था कि इनकी दृष्टि मात्र अभिजात वर्ग अर्थात् उच्चवर्ग तक सीमित न रहकर जन सामान्य तक व्यापक हो गई थी।

आभिजात्यवाद और नव्य आभिजात्यवाद दोनों ने ही सभी स्तरों पर प्राचीन साहित्य के अनुकरण को काम्य (इच्छित, सुंदर एवं सुखद) माना तथा साहित्य रूपों के अनिवार्य तत्त्वों का निर्धारण प्राचीन रचनाओं और सिद्धान्तों के आधार पर ही किया।

 दोनों में ही प्राचीन मूल्यों के प्रति निष्ठा के कारण नए प्रयोगों का विरोध होता रहा है। अनुकरण और रूढ़िबद्धता की प्रवृत्ति जहाँ कृति में संतुलन और अनुशासन लाती है वहाँ वैयक्तिक प्रतिभा और सर्जनशीलता के मार्ग में बाधक होती है।

इसी कारण नव्यशास्त्रवाद में रचना परंपरा के अनुकरण के बजाय मूल्यों और आदर्शों के अनुकरण को प्राथमिकता दी गई।

आभिजात्यवाद और नव्य आभिजात्यवाद दोनों में ही वैशिष्ट्य (एक्सिलेंस) तथा चिरंतता (परमानेंस) के मूल्यों को ही साहित्य का शाश्वत मूल्य माना गया।

 दोनों में ही वैयक्तिकता के स्थान पर सार्वभौमिकता (सबके प्रति समान भाव वाला सिद्धान्त) का पक्ष प्रधान रहा। कवि के लिए उन्होंने आवश्यक माना कि वह देशकाल से निरपेक्ष होकर सही और गलत, उचित और अनुचित के प्रत्ययों  (ideas) (विश्वासमय दृढ़ धारणा या विचार) का सार्वभौम (व्यापक) स्तर पर विवेचन करे।

आभिजात्यवाद और नव्य आभिजात्यवाद दोनों ही अभिजात वर्ग या सुशिक्षित वर्ग से जुड़ा था। इस साहित्य में भावना की अपेक्षा बुद्धि और तर्क प्रधान थे।

दोनों ने अपनी रचनाओं में ऐसे पात्रों को रखने की बात कही, जो सार्वभौम हो, किसी देश या काल की सीमाओं में आबद्ध न हों। यह सार्वभौमिकता का सिद्धान्त उन्होंने इसलिए प्रस्तुत किया ताकि उनकी कृतियाँ सर्वत्र पसंद की जा सकें।

परिणामस्वरूप कुरूप, भयानक, निम्न आदि का बहिष्कार करने की बात कही। कवियों को उनका निर्देश था कि वे लोभ, परनिन्दा, वासना, क्रूरता और गरीबी का चित्रण न करें।

आभिजात्यवादी और नव्य आभिजात्यवादी दोनों ने ही कलाकार की रुचि, उसकी आदर्श-सम्बन्धी कल्पना, सौन्दर्य-सम्बन्धी दृष्टिकोण, अन्तर्दृष्टि आदि तत्त्वों पर भी बल दिया। उन्होंने काव्यगत न्याय (Poetic Justice) का सिद्धान्त अपनाया जिसमें कृति के अंत में अपराधी को दंड पाने और निरपराध तथा सज्जन को अपने गुणों का सुफल पाते दिखाए।

 दोनों का मत था कि काव्य का प्रयोजन आनंद प्रदान करना है, पर अधिकांश का यह विचार था कि नैतिक उपयोगिता ही उसका परम लक्ष्य है।

आभिज्यात्यवाद की प्रवृत्तियाँ

अध्ययन की सुविधा के लिए आभिजात्यवाद की प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित रूप में निर्धारित की जा सकती है-

 1. प्राचीन साहित्य के प्रति आकर्षण – आभिज्यात्यवादी मानते थे कि प्राचीन विद्वानों की कृतियाँ सर्वश्रेष्ठ थी और आधुनिक साहित्यकार उनके अनुकरण के अनुपात में ही सफलता प्राप्त कर सकेंगे। सभ्य और सुसंस्कृत होने के लिए अरस्तू तथा होरेस द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का पालन आवश्यक है। इस प्रकार आभिज्यात्यवादियों ने प्राचीन ग्रीक कृतियों के अनुकरण पर नयी कृतियों के सृजन की प्रेरणा दी और उनमें बाह्य रूपाकार की गठन, भव्यता, अनुपात आदि तत्त्वों को आवश्यक माना।

 2. कलाकृति सायास निर्मिति है – आभिजात्यवादी यह मानते हैं कि कला स्वतः स्फूर्त नहीं है वह सायास निर्मिति है। वे कला में बुद्धि और भावना के संतुलन को प्राथमिकता देते हैं। रचना के अन्तरंग पक्ष में मर्यादित औदात्य, आत्मा की गरिमा, स्वच्छता और प्रशान्ति पर बल दिया जाता है तथा विचारों में व्यवस्था और स्पष्टता पर। अभिव्यक्ति में सादगी, संतुलन और सानुपातिक संरचना इन रचनाकारों का लक्ष्य होती है।

 3. वस्तुनिष्ठता के पक्षधर – भिजात्यवादी स्वच्छन्दतावाद की आत्मनिष्ठता (स्वयं की आत्मा या मन से संबंधित) के स्थान पर कला में वस्तुनिष्ठता (विषयवस्तु से संबंधित) का समर्थन करते हैं। व्यक्ति मन की आन्तरिकता और आत्मप्रियता के बजाय जीवन की ठोस वास्तविकता आभिजात्यवादी समर्थकों की विषय वस्तु होती है।

 4. भाव-संयम और भाव-व्यवस्था – आभिजात्यवादी कलाकार अनुभूति या भावना का निषेध तो नहीं करते क्योंकि उसके बिना कला की सृष्टि संभव नहीं है किन्तु जैसा कि वर्ड्सवर्थ ने माना था कि काव्य भावावेगों की अभिव्यक्ति है, उसका समर्थन नहीं करते। वे भावावेग के स्थान पर भाव-संयम और भावव्यवस्था पर बल देते हैं।

 5. निर्वैयक्तिकता का समर्थन – स्वच्छन्दतावाद काव्य को कवि की निजी भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्ति मानता है। इस प्रकार स्वच्छन्दतावाद में वस्तु के स्थान पर व्यक्ति को महत्त्व दिया गया किन्तु आभिजात्यवादी कला में व्यक्ति की अपेक्षा काव्य की विषयवस्तु को महत्त्व देते हैं। इन्होंने सार्वभौमता का सिद्धान्त इसलिए प्रस्तुत किया कि कला को यथासंभव अधिकाधिक निर्वैयक्तिक बनाएँ।

 6. परम्परा के प्रति श्रद्धा का भाव – स्वच्छन्दतावादी जहाँ कल्पना के उड़ान के सहारे नित नए लोकों में भ्रमण करना और आकाश की ऊँचाइयों का स्पर्श करना चाहता है वहाँ आभिजात्यवादी कलाकार के पाँव दृढ़ता से धरती से बँधे रहते हैं और वह अपनी परंपरा, अपनी विरासत के प्रति पूर्णतः सजग सचेत रहता है।

 7. अनुकरण – आभिजात्यवादी सिद्धान्त का केन्द्र बिन्दु है- प्रकृति का अनुकरण (imitation of nature)

कुछ आभिज्यात्यवादियों ने अनुकरण का अर्थ  लगाया यथार्थवाद, वास्तविकता का पुनः सृजन। उसी यथार्थवाद के प्रति मोह के कारण उन्होंने नाटक में संकलनत्रय (Three unities) पर बल दिया। इसी आधार पर इन्होंने अविश्वसनीय और असंभव को काव्य के प्रांगण से बहिष्कृत करने की बात कही है और अति मानवीय तत्त्वों (Super natural elements) के बहिष्कार की बात कही है।

 निष्कर्ष

आभिजात्यवाद के सिद्धान्तों को, यदि उनका पुनराख्यान (पुनः वर्णन) किया जाय, तो आज भी संगत ठहराया जा सकता है। इलियट के निर्वैयक्तिकता, परंपरा और वस्तुनिष्ठता के सिद्धान्त को आभिजात्यवाद या क्लासिसिज्म की ही पुनरावृत्ति कहा जा सकता है। उनका बौद्धिकता, तर्क आदि का आग्रह भी आभिजात्यवाद के सिद्धान्तों से मिलता-जुलता है। शब्दों की मितव्ययिता, कला सौष्ठव तथा वक्तृत्व-कला के प्रति बढ़ता हुआ आकर्षण भी आभिजात्यवाद की ओर रुझान माना जा सकता है।

 किन्तु आभिजात्यवाद और आधुनिक सिद्धान्तों में उतना ही अन्तर है जितना अठारहवीं और बीसवीं शताब्दी में। अतः आज के आलोचना सिद्धान्तों को आभिजात्यवाद की पुनरुक्ति (कही गई बात को फिर से कहना) नहीं कहा जा सकता। 

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