आई ए रिचर्ड्स का संप्रेषण सिद्धान्त | I A Richards ka Sampreshan Siddhant

आई.ए.रिचर्ड्स  (1893-1979) 20 वीं शताब्दी के सर्वाधिक प्रभावशाली अंग्रेजी-आलोचकों में से हैं। रिचर्ड्स की  आलोचनात्मक कृतियों में – Principles of Literary Criticism (1924), Science and Poetry (1925), Practical Criticism (1929), Coleridge on Imagination और The Philosophy of Rhetoric (1936) प्रमुख हैं । तो आइये अब हम I A Richards ka Sampreshan Siddhant विस्तार से समझने का प्रयास करते हैं ।

रिचर्ड्स साहित्य से पूर्व मनोविज्ञान एवं अर्थ-विज्ञान के क्षेत्रों में भी कार्यरत रह चुके हैं । अतः उन्होंने मनोविज्ञान एवं अर्थ-विज्ञान को भी साहित्य में कार्यान्वित किया है । साहित्य आलोचना को रिचर्ड्स की सबसे महत्वपूर्ण देन संप्रेषण सिद्धांत है।

अनुभूतियों को दूसरों तक पहुँचाना मानव के लोक-व्यवहार का अभिन्न अंग है। सामान्य जन भी अपनी भावनाओं का संप्रेषण करते हैं, और कलाकार भी। प्रेम, करुणा, दया, क्रोध, राग-द्वेष आदि पारस्परिक संप्रेषण के प्रतिफल हैं। कलाकार और जनसाधारण की अनुभूति में काफी अंतर नहीं होता है लेकिन यह अंतर अनुभूति की अभिव्यक्ति में होता है। अपने प्रभावी अभिनय और अभिव्यंजना के द्वारा यह काम सक्षम कलाकार द्वारा संभव होता है।

रिचर्ड्स के अनुसार, संप्रेषण अनुभूति का यथावत् अंतरण नहीं है और न ही दो व्यक्तियों के बीच अनुभूति का तादात्म्य । बल्कि कुछ अवस्थाओं में विभिन्न मनों की अनुभूतियों की अत्यंत समानता ही संप्रेषण है।

रिचर्ड्स ने कला माध्यमों के संप्रेषण पर विचार किया है। उनके अनुसार संप्रेषण कला का तात्विक धर्म है। प्रभावी अभिव्यंजना ही संप्रेषण है और संप्रेषण में समर्थ व्यक्ति कलाकार है। सार्थक और सचेतन अनुभूतियाँ ही अभिव्यक्त होकर संप्रेषण का विषय बन जाती हैं। संप्रेषण का सर्वाधिक उपयोग कला में होता है। रिचर्ड्स के अनुसार “कलाएँ हमारी संप्रेषणात्मक क्रिया के उत्कृष्टतम रूप हैं।“ (प्रिंसपल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म, पृष्ठ 17) किसी कलाकार की प्रतिभा की कसौटी संप्रेषण ही है। संप्रेषण किसी कलाकार का मुख्य उद्देश्य होता है। कवि, नाटककार, मूर्तिकार, चित्रकार- सभी कलाकारों की कोशिश यही होती है कि उनके अनुभव उसकी कला में ढलकर संप्रेषित हो जाएँ। कुशल एवं अनुभवी कलाकार अपने अनुभव एवं विचारों को अपनी कृति के माध्यम से प्रेषणीय बनाता है। संप्रेषण की प्रक्रिया तभी पूरी होती है जब कलाकार सहृदय तक पहुँच जाता है।

ध्यातव्य है कि संप्रेषण की प्रक्रिया सायास या सचेतन नहीं है। कलाकार की अचेतन में विद्यमान संप्रेषणीयता का भाव एक सहज मानसिक प्रक्रिया है। रिचर्ड्स के अनुसार संप्रेषण की प्रक्रिया वहाँ घटित होती है जहाँ अलग-अलग व्यक्तियों की अनुभूतियों में समानता पाई जाती है (प्रिंसिपल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म, पृष्ठ 136)। वे आगे लिखते हैं  कि जब एक मन अपने परिवेश के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करता है तो दूसरा मन उससे प्रभावित होता है और कुछ दूसरे मन में ऐसी अनुभूति उत्पन्न होती है जो प्रथम अनुभूति के समान और अंशतः उसके कारण उत्पन्न होती है (प्रिंसिपल ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म पृष्ठ 137)।  रिचर्ड्स संप्रेषण का संबंध भाव और अनुभूति से जोड़ते हैं। पाठक के मन में निष्पन्न वृत्तियों (उत्पन्न भावनाओं) के संतुलन और सामंजस्य में संप्रेषण का मूल्य निहित है। कला द्वारा संप्रेषित अनुभूति को रिचर्ड्स सामान्यीकृत अनुभूति कहते हैं ।

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 यह सही है कि वस्तुओं एवं घटनाओं का अनुभव सभी को होता है लेकिन अपने विशिष्ट गुणों के कारण कलाकार अर्थात् एक कवि उसे अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम होता है। इस प्रकार सफल संप्रेषण कलाकार का आवश्यक गुण है। कलाकार के पास विशद (निर्मल) मूल्यवान सौंदर्यानुभव होते हैं।  रिचर्ड्स के अनुसार, कवि “अनुभूति के विविध तत्वों में संबंध स्थापित करने में अधिक सफल और स्वतंत्र होता है।” (प्रिंसिपल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म पृष्ठ 140 )।  रिचर्ड्स संप्रेषण के लिए कवि या कलाकार में जागरूक निरीक्षण शक्ति का होना आवश्यक मानते हैं। (वही पृ.142) सफल संप्रेषण के लिए कवि के पास अतीत का अनुभव और साधारणता (normality) का गुण भी होना चाहिए। (वही पृष्ठ 148 )

संप्रेषण के दो पहलू हैं। एक तरफ जहाँ कलाकार में प्रभावशाली अभिव्यंजना जरूरी है। वहीं भावक या पाठक में विशिष्ट ग्राहिका शक्ति सफल संप्रेषण के लिए अनिवार्य शर्त है। (वही पृ. 137)

कृति के वस्तुतत्व (Content-विषयवस्तु) के प्रभावशाली होने के साथ-साथ संप्रेषण के सहायक तत्व के रूप में लय, छंद, रूपरेखा आदि जरूरी है।

काव्य भाषा में रूपक (metaphor) (अर्थालंकार का एक भेद जिसमें समानता के आधार पर प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आरोप किया जाता है) को रिचर्ड्स विशेष महत्व देते हैं। उन्होंने रूपक को लाक्षणिकता (लक्षणा शक्ति पर आधारित) के पर्याय के रूप में देखा है। लाक्षणिक भाषा (मेटाफोरिकल लैंग्वेज़) के द्वारा कवि सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को प्रकट करने में समर्थ होता है तथा कई बार विरोधी वस्तुओं में सामंजस्य ला सकता है। अपनी कल्पनाशीलता के द्वारा लाक्षणिक भाषा का विलक्षण प्रयोग कवि कर सकता है।

रिचर्ड्स ने संप्रेषण को अचेतन प्रक्रिया का हिस्सा बताया जबकि कई आलोचकों का यह मानना है कि सृजन एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें विषय चयन से लेकर सृजन की परिणति तक सचेतन लेखकीय प्रतिभा सक्रिय रहती है। विषयवस्तु का चयन, उसकी प्रस्तुति, अलंकार योजना इत्यादि अनायास घटित होने वाली प्रक्रियाएँ नहीं हैं। शब्द चयन, बिंब-विधान आदि को अचेतन प्रक्रिया का हिस्सा मानना उचित नहीं है।

टी. एस. इलियट ने लिखा है कि संभवत किसी कृति के सृजन में कृतिकार के श्रम का अधिक हिस्सा आलोचनात्मक श्रम का होता है। छांटने, मिलाने, संरचना देने, काटने, सुधारने, जाँचने का बहुत ही परेशान कर देने वाला श्रम जितना आलोचनात्मक होता है उतना ही रचनात्मक।

साधारणीकरण और संप्रेषण सिद्धांत 

भारतीय काव्यशास्त्र में रस निष्पत्ति (रस की उत्पत्ति) की प्रक्रिया को साधारणीकरण कहते हैं। साधारणीकरण की प्रक्रिया भाव (भावना या विचार) योग से संपन्न होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “जब तक किसी भाव का कोई विषय इस रूप में नहीं लाया जाता कि वह सामान्यतः सबके उसी भाव का आलंबन (भाव का आधार) हो, तब तक उसमें रसोद्बोधन (रस जागृत करना) की पूर्ण शक्ति नहीं आती। इस रूप में लाया जाना हमारे यहाँ साधारणीकरण कहलाता है।” (चिंतामणि भाग 1, पृ.155) कवि की अनुभूति एवं सामान्य व्यक्ति की अनुभूति में अंतर है। सामान्य व्यक्ति की अनुभूति राग-द्वेष (प्रेम और ईर्ष्या) से युक्त रहती है। लेकिन कवि अपनी अनुभूति को संप्रेषणीय बनाने के लिए उसे लोक सामान्य की भाव भूमि पर ले जाता है।

रिचर्ड्स बताते है कि संप्रेषण वह स्थिति है जहाँ विभिन्न मस्तिष्कों में कमोवेश एक जैसी अनुभूति का जन्म हो। वे कला द्वारा प्रेषित अनुभूति को सामान्यीकृत अनुभूति कहते है। संप्रेषण के सामने निर्वाह के लिए लेखक की मानसिकता और पाठक की मानसिकता में एकरूपता आवश्यक है।

रिचर्ड्स ने बताया कि मानव मन में प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक दोनों आवेग पाए, जाते हैं। कविता या कला के लिए प्रवृत्तिमूलक आवेगों का महत्व है। वे आवेग अधिक महत्वपूर्ण है जो दूसरों की क्षति पहुंचाए बिना अपना विकास करते हैं। मानव मन की सर्वोत्तम स्थिति वह है जिसमें मानसिक क्रियाएं बेहतरीन संगति में रहती है तथा आवेगों में संघर्ष और विघटन कम होता है। कविता और कला के अन्य रूप आवेगों के बीच ऐसा संतुलन स्थापित करते हैं जिससे हमारी अनुभूतियों एवं संवेदनाओं को व्यापकता मिलती है।  

आवेगों के लिए एक साझा भाव-भूमि तैयार होती है। इससे मानव-मानव के बीच संवेदनात्मक एकत्व स्थापित होता है। यह प्रक्रिया भारतीय काव्यशास्त्र में वर्णित साधारणीकरण की तरह है। अंतर यह है कि भारतीय काव्यशास्त्र में काव्यास्वाद के साधारणीकरण को ब्रह्मानंद सहोदर माना गया है। लेकिन रिचर्ड्स का सिद्धांत इहलौकिक (सांसारिक) है। इसीलिए उन्होंने इस अनुभूति को लोकोत्तर (असाधारण, विलक्षण) मानने से इनकार किया। वे कलात्मक अनुभूति को मानवीय अनुभूति मानते थे। इसमें साधारणत्व (normality) को विशेष महत्व देते थे।

निष्कर्ष

साधारणीकरण और संप्रेषण सिद्धांत- दोनों का उद्देश्य कला या कविता का पाठक तक का संप्रेषण है। इसीलिए साधारणीकरण और संप्रेषण सिद्धांत में काफी निकटता है। दोनों का संबंध कलात्मक भाव या अनुभूति से है। दोनों का आधार कवि या कलाकार की रचनात्मक अनुभूतियों का भावक या पाठक में प्रसार है।  I A Richards ka Sampreshan Siddhant आज भी हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है ।

दोनों जगह अनुभूतियाँ व्यक्तिगत स्वार्थ बंधनों से मुक्त होकर जनसामान्य की भावभूमि पर प्रतिष्ठित होती है। अपरिचय की अवस्था में संवाद या संप्रेषण संभव भी नहीं होता। रिचर्ड्स के अनुसार ‘आत्म’ को छिपा देने वाली स्वार्थपरक एकाकी वृत्तियों को विराम मिल जाता है और पाठक या सहृदय अपने अस्तित्व के प्रति सचेत हो जाता है। यह अवस्था कुछ-कुछ मुक्तिबोध की परम अभिव्यक्ति की तरह है। रिचर्ड्स के सहयोगी विद्वान सी. के. ऑग्डेन और जेम्स वुड इसे समानुभूति (empathy) कहते हैं। इस अवस्था के बारे में थियोडोर लिप्स ने बताया कि इसमें आत्म (myself) और वस्तु (object) के बीच विरोध का शमन हो जाता है।

रिचडर्स के अनुसार, कवि की अनुभूति एवं सामान्य व्यक्ति की अनुभूति में अंतर है।

सामान्य व्यक्ति की अनुभूति राग-द्वेष से युक्त रहती है लेकिन कवि अपनी अनुभूतियों को सहृदय सुलभ बनाने के लिए जनसामान्य की भाव भूमि पर ले जाता है। 

हृदय की अनुभूति को संप्रेषणीय बनाने के लिए किया गया व्यापार ही साधारणीकरण है।

 यह सही है कि रिचडर्स जिसे संप्रेषण कह रहे हैं उसे ही भारतीय काव्यशास्त्र में साधारणीकरण कहा जाता है। लेकिन रिचर्ड्स के संप्रेषण सिद्धांत की तुलना में भारतीय साधारणीकरण की प्रक्रिया अधिक जटिल एवं व्यापक है। साधारणीकरण की प्रक्रिया में आनंद का निषेध नहीं है। रिचर्ड्स के लिए सौंदर्यानुभूति आनंदानुभूति नहीं है। वैसे भारतीय परंपरा का ‘आनंद’ पश्चिम का ‘प्लेज़र नहीं है। आनंद की अवस्था में व्यक्तित्व बद्धदशा से मुक्त होकर भाव-व्यापार में सक्रिय होता है। 

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