अस्तित्ववाद मूल रूप से दर्शन के क्षेत्र का शब्द है । यह अंग्रेजी के एक्जिस्टेंशियलिज़्म (Existentialism) का हिंदी पर्याय हैअस्तित्ववाद का उन्मेष प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी में हुआ। तदुपरांत उसने फ्रांस और इटली होते हुए एशिया के देशों में भी अपना प्रभाव डाला।
इस सिद्धान्त ने साहित्य सृजन तथा आलोचना सिद्धान्त को गहराई से प्रभावित किया है । वर्तमान विश्व चिंताधारा निर्वैक्तिक विघटनकारी प्रवृत्तियों की ओर अधिक झुकी हुई है। व्यक्ति के विकास एवं निर्माण को समाज विभिन्न वर्जनाओं और निषेधों से अवरुद्ध करता है।धर्म और समाज की इन निषेधात्मक प्रवृत्तियों के विरोध में 19 वीं सदी में कुछ विद्वानों ने मनुष्य को उसके प्रकृत रूप में स्थापित एवं विकसित होने देने के लिए आवाज उठाई।
उन्होंने एक ऐसा दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जो उन तमाम परंपरागत मतवादों का विरोध करता था जो मानवीय सत्ता (Human Existence) की उपेक्षा करके मात्र विचारों तथा नैतिक मूल्य एवं मान्यताओं की स्थापना में संलग्न रहकर प्राचीन परंपराओं का पालन एवं उन्नयन कर रहे थे।
सभी पूर्व मान्य सामाजिक, धार्मिक एवं नैतिक परंपराओं के विरोध में सर्वप्रथम आवाज उठाने वाले डेनिश विद्वान एवं धार्मिक चिंतक
सारेन कीर्केगार्ड (1813-1855) थे ।
यूरोप की 19 वीं सदी की औद्योगिक क्रांति, वैज्ञानिक अनुसंधान एवं मशीनीकरण ने मनुष्य के अस्तित्व के सामने प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। मनुष्य मशीन का गुलाम बन कर रह गया था । भौतिक एवं वैज्ञानिक विकास की दौड़ में मानव-अस्तित्व का स्वत: कोई मूल्य नहीं रह गया था।
सारेन कीर्केगार्ड ने ऐसी बदली हुई परिस्थितियों में मनुष्य की वैयक्तिकता की वकालत की । उन्होंने पूर्व मान्यताओं तथा धर्म की नियंत्रणकारी प्रवृत्तियों का विरोध कर एक नितांत भिन्न जीवन दर्शन प्रस्तुत किया जिसका मूल उद्देश्य हर दशा में मानव को पूर्ण रुप से स्वच्छंद करना था । अस्तित्ववाद का मूल आधार ही वैयक्तिक स्वच्छंदता है ।
अस्तित्ववाद (existentialism) मूल रूप से दर्शन का सिद्धांत है। लेकिन अस्तित्ववाद ने साहित्य सृजन तथा आलोचना सिद्धांतों को भी प्रभावित किया है ।
अस्तित्ववाद संबंधी स्मरणीय बिन्दु
1. अस्तित्ववाद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के सामने विभिन्न संभावनाएं या रास्ते हैं । मनुष्य इन संभावनाओं या रास्तों में से में से एक या अधिक का वरण (चयन) करता है ।
2. इस वरण के लिए मनुष्य अपनीस्वतंत्रता का इस्तेमाल करता है ।
3. वरण की स्वतंत्रता के परिणामस्वरुप मनुष्य अपने अस्तित्व (existence) को न केवल प्रमाणित करता है बल्कि प्रामाणिक (authentic) भी बनाता है।
4. वरण के स्वतंत्र प्रयोग के कारण उसके सार (essence) का निर्माण होता है । अर्थात् सार से पूर्व अस्तित्व है । अस्तित्व के पूर्ववर्ती होने के कारण इसे अस्तित्ववाद की संज्ञा दी गई है ।
5. अस्तित्व मानव को परिभाषित नहीं करता क्योंकि मानव की कोई आदि मूल चिरंतन या शाश्वत प्रवृत्ति नहीं है ।
6. मनुष्य उसके सिवा कुछ नहीं जो अपने स्वतंत्र कर्म तथा वरण द्वारा बनता है । अर्थात कर्म से ही जीवन को अर्थ मिलता है यानी कर्म स्वर्ग और नरक का निर्माता है । अन्यथा मनुष्य अपनी प्रवृत्ति में न सत् है न असत्।
7. अस्तित्ववाद के केंद्र में जीवन की निस्सारता का दर्शन है ।
8. मोनियर ने अस्तित्ववाद की परिभाषा करते हुए लिखा है कि अस्तित्ववाद विचारों के दर्शन तथा वस्तु-यथार्थ के दर्शन की अति के विरुद्ध मानव के दर्शन की प्रतिक्रिया है।
9. संक्षेप में अस्तित्ववाद का अर्थ है जिसका संबंध अस्तित्व से है अर्थात जिसका मूल सरोकार मानव-अस्तित्व, मानव-स्थिति, संसार में मनुष्य का मकाम तथा प्रयोजन और मानवीय संबंधों की उपस्थिति और अनुपस्थिति से है।
अस्तित्ववाद की पृष्ठभूमि
यूं तो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में यूरोप के दर्शन में अस्तित्ववाद एक महत्वपूर्ण विमर्श रहा है लेकिन साहित्य में इसका आगमन वर्तमान सदी के तीसरे-चौथे दशक से माना जाता है। दूसरे महायुद्ध के दौरान और उसके पश्चात् कुछ वर्षों तक यह बहुत चर्चित रहा ।
साहित्य में अस्तित्ववाद के प्रभाव का कारण मानव की वह भयावह स्थिति थी जो फासीवाद के रक्तरंजित आतंक, साम्यवाद से मोह-भंग तथा द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका और अणु-विस्फोटों के मानव संहार से उत्पन्न हुई थी ।
चारों ओर निराशा एवं निस्सारता की लहर फैल गई । ऐसा दिखाई देने लगा कि मनुष्य किसी अंधी सुरंग में फँस गया है । फ्रांज़ काफ्का के शब्दों में-
“मैं एक ऐसी काल कोठरी में कैद हूँ, जिसके न दरवाजे हैं और न खिड़कियां और बाहर निकलने के तमाम रास्ते बंद हैं ।”
यूरोप की 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति, वैज्ञानिक अनुसंधान एवं मशीनीकरण ने मनुष्य के अस्तित्व के सामने प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। मनुष्य मशीन का गुलाम बन कर रह गया था। भौतिक एवं वैज्ञानिक विकास की दौड़ में मानव-अस्तित्व का स्वत: कोई मूल्य नहीं रह गया था।
सारेन कीर्केगार्ड ने ऐसी बदली हुई परिस्थितियों में मनुष्य की वैयक्तिकता की वकालत की । उन्होंने पूर्व मान्यताओं तथा धर्म की नियंत्रणकारी प्रवृत्तियों का विरोध कर एक नितांत भिन्न जीवन दर्शन प्रस्तुत किया जिसका मूल उद्देश्य हर दशा में मानव को पूर्ण रूप से स्वच्छंद करना था ।
वे हीगेल के आदर्शवादी दर्शन के विरोधी थे । वे हर तरह के आदर्श से मुक्त कर मानव को पूर्णत: स्वच्छंद बनाना चाहते थे। अस्तित्ववाद का मूल आधार ही वैयक्तिक स्वच्छंदता है ।
कीर्केगार्ड के बाद 19वीं सदी के उत्तरार्ध में अस्तित्ववादी विचारधारा के प्रबल समर्थक और व्याख्याता जर्मन दार्शनिक नीत्शे (Frendrich Nietzscher, 1844-1900) माने जाते हैं ।
नीत्शे ने सामाजिक तथा नैतिक धरातल पर प्रचलित तत्कालीन एवं परंपरावादी धारणाओं का कट्टर विरोध किया। नीत्शे की धारणा थी कि सामाजिक एवं नैतिक मान्यताएं मानव-व्यक्तित्व को बौना बना देती हैं, अतः वे निरर्थक हैं। यही नहीं व्यक्ति-स्वातंत्र्य के आधार पर नीत्शे ने अति मानवीय-गुणों से संपन्न ‘सुपर मैन’ की कल्पना की है।
नीत्शे अनीश्वरवादी थे । उन्होंने घोषित किया कि ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है । “God is dead”.
इस तरह अस्तित्ववाद अपने वर्तमान अर्थ में 19वीं सदी के मध्य की उपज है, जिसने प्रथम विश्व युद्ध (1914–1919) के बाद व्यापक रूप धारण किया और जिसकी पृष्ठभूमि में औद्योगिक क्रांति जनित वह भौतिकता थी, जो मनुष्य के अस्तित्व की अवहेलना कर रही थी।
कीर्केगार्ड और नीत्शे के विचारों का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उनके समर्थन में अनेक दार्शनिकों और लेखकों ने अपना स्वर मिलाया।
सार्त्र के बाद पश्चिम के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अस्तित्ववादी लेखक तथा विचारक नोबेल पुरस्कार विजेता अल्बर्ट कामू हैं ।
उपन्यास तथा नाटकों के अलावा उन्होंने दर्शन के क्षेत्र में भी कई ग्रंथ लिखे हैं। अधिकांश अस्तित्ववादी लेखक साहित्यकार होने के साथ-साथ महत्वपूर्ण दार्शनिक भी हैं।
अस्तित्ववादी, व्यक्ति का अस्तित्व किसी बाह्य सत्ता के अधीन नहीं मानते। उनके अनुसार मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता तथा
अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी स्वयं है ।
अस्तित्ववादियों के अनुसार सच्चे अर्थों में मनुष्य अपने अस्तित्व का बोध दुख एवं त्रास; यहाँ तक कि मृत्यु के अहसास के क्षणों में ही कर सकता है और बिना अस्तित्वबोध के मनुष्य सच्चे अर्थों में स्वच्छंद भी नहीं हो सकता।
अस्तित्ववाद की दो धाराएं
अस्तित्ववादी दर्शन की दो मुख्य धाराएं हैं – (1) ईश्वरवादी अस्तित्ववाद (आस्थावादी) तथा (2) अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद (अनास्थावादी)।
1. ईश्वरवादी अस्तित्ववाद (आस्थावादी) अर्थात् आध्यात्मिक, धार्मिक पराभौतिक : इस धारा में ईसाइयत का प्रभुत्व है । इस धारा में ईश्वर केंद्र में है। मनुष्य की मीमांसा ईश्वर के संदर्भ में ही संभव है।
ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के अनुसार इस संसार में निरर्थक जीवन को सार्थक तथा सारपूर्ण बनाने के लिए निष्ठा तथा ईश्वर में आस्था अनिवार्य है। मनुष्य की गति ईश्वर की शरण के बिना संभव नहीं।
ईश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रवर्तकों में सोरेन कीर्केगार्ड (1813-55) तथा गेब्रियल मार्सल (1889-1973) के नाम उल्लेखनीय हैं ।
2. अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद (अनास्थावाद) : इसमें मनुष्य इस संसार में निस्सहाय है । वह बिल्कुल अकेला है।
फ्रेडरिक नीत्शे (1840-1900) के अनुसार ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है।
ज्यां पाल सार्त्र (1905-80) के कथनानुसार संघर्ष में ही मानव की गति है । जब ईश्वर ही नहीं तो मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए स्वयं उत्तरदाई है।
अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रमुख प्रवर्तकों में मार्टिन हाइडेगर (1889-1978) और ज्यां पाल सार्त्र शामिल है ।
अनीश्वरवादी (अनास्थावादी) वर्ग की प्रधानता है। इस वर्ग का प्रतिनिधित्व नीत्शे और सार्त्र करते हैं । नीत्शे ने कहा था ‘ईश्वर मर गया है’।
वस्तुतः अस्तित्ववादियों का ईश्वर से उतना बैर नहीं है, जित धार्मिक, नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों और मान्यताओं से है, क्योंकि ये सभी पूर्व स्थापित मूल्यों एवं मनुष्य की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं।
सार्त्र ईश्वर के अस्तित्व को इसीलिए मिटाना चाहते हैं, ताकि धर्म एवं नीति संबंधी कोई भी मूल्य या आदेश भी ऐसा ना बचे जो मनुष्य के स्वच्छंद एवं सहज चरित्र विकास में बाधक हो।
अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद (अनास्थावाद) में मनुष्य इस संसार में निस्सहाय है। वह बिल्कुल अकेला है। फ्रेडरिक नीत्शे (1840-1900) के अनुसार ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है। ज्यां पाल सार्त्र (1905-80) के कथनानुसार संघर्ष में ही मानव की गति है । जब ईश्वर ही नहीं तो मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म के लिए स्वयं उत्तरदाई है। अनीश्वरवादी अस्तित्ववाद के प्रमुख प्रवर्तकों में मार्टिन हाइडेगर (1889-1978) और ज्यां पाल सार्त्र शामिल है ।
अनीश्वरवादी (अनास्थावादी) वर्ग की प्रधानता है। इस वर्ग का प्रतिनिधित्व नीत्शे और सार्त्र करते हैं सार्त्र ईश्वर के अस्तित्व को इसीलिए मिटाना चाहते हैं, ताकि धर्म एवं नीति संबंधी कोई भी मूल्य या आदेश भी ऐसा ना बचे जो मनुष्य के स्वच्छंद एवं सहज चरित्र विकास में बाधक हो।
सार्त्र ने लिखा है – “Indeed, everything is permissible if God does not exist……. If it does not exist, we find no values or commands to turn to which legitimate our conduct.”
अर्थात् सचमुच यदि ईश्वर का अस्तित्व ना रहे तो मनुष्य को किसी भी तरह का बंधन नहीं रह जाएगा…… यदि ईश्वर का अस्तित्व ना हो तो हम पाएंगे कि हमारे आचरण को नियंत्रित करने वाले मूल्य या बुनियादी आधार खत्म हो गए।
अस्तित्ववादी विचारक ज्ञान-विज्ञान को भी महत्वहीन मानते हैं । उनके लिए वह सभी कुछ व्यर्थ है, जिससे अस्तित्व-बोध में सहायता नहीं मिलती। वे मात्र मानव-स्थिति (Human Condition) जानने के आग्रही हैं, क्योंकि उससे अस्तित्व-बोध में सहायता मिलती है ।
मानव-स्थिति के ज्ञान के लिए किसी भी पूर्व प्रचलित परंपरा, सामाजिक, वैज्ञानिक, आर्थिक एवं धार्मिक विश्वास अथवा किसी भी नियम-सिद्धान्त आदि के सहारे की आवश्यकता नहीं है । यदि आवश्यकता है तो मात्र कष्ट अथवा वेदनानुभूति की, क्योंकि मानव-स्थिति अनिवार्य रूप से वेदनामय है ।
अस्तित्ववादी सुख की लालसा को ही निरर्थक मानते हैं। उनके लिए किसी प्रकार की भी सामाजिक, धार्मिक, नैतिक, राजनीतिक, दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक उन्नति मनुष्य को न तो पूर्णत: संतुष्ट कर सकती है और ना ही सुखी । फलत: इन क्षेत्रों में किए जाने वाले सभी सामाजिक अथवा वैयक्तिक प्रयास निरर्थक हैं और उन प्रयासों को करने वाले तथाकथित महापुरुषों का योगदान व्यर्थ एवं भ्रामक है।
इन क्षेत्रों में गई उन्नति ने मात्र एक ही कार्य किया है और वह है मनुष्य की स्वच्छंदता को बाधित करने का काम।
अस्तित्ववादियों की यह पूर्ण स्वच्छंदता भले ही उन्हें घोर अराजकता, अशांति और यहां तक कि मृत्यून्मुख ही क्यों न कर दे, इसकी उन्हें परवाह नहीं, क्योंकि मृत्यु को वे जीवन का अनिवार्य अंश मानते हैं।
वे पूर्ण स्वच्छंदता में जीकर अंत में मृत्यु को ‘अस्तित्व’ का अनिवार्य अंश मानकर उसका साहसपूर्वक वरण करना चाहते हैं।
अस्तित्ववाद के मूल तत्व
(1) मानव रचना : मानव रचना के मूल में कोई प्रयोजन नहीं। वह स्वयं जो निर्धारित करता है उसके अलावा बिना किसी प्रयोजन के उसकी इच्छा के बगैर फेंक दिया गया है। जो वह स्वयं निश्चित करता है सिवाय उस उद्देश्य या गंतव्य के वह इस संसार में भटकने के लिए विवश है । वह किसी सहारे या सहायता के बगैर निरंतर गर्दिश में है।
(2) मानव प्रकृति : मानव प्रकृति एक अर्थहीन शब्द है। मानव की कोई प्रवृत्ति नहीं केवल इतिहास है । मानव प्रकृति को स्वीकार करने का अर्थ है मानवेतर (दैवी) शक्ति में विश्वास अर्थात् ऐसी परम शक्ति को स्वीकार करना जो मनुष्य के अस्तित्व से पूर्व पैदा हुई है या मौजूद थी।
(3) मानव आदतें: मानव प्रकृति के बने-बनाए पूर्व निश्चित नियम नहीं होते। बल्कि कुछ आदतें हैं। इसमें से कोई भी किसी भी दिन बदल सकती है।
यह विचार इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि ‘कोई ईश्वर नहीं । कोई नस्ल या जाति नहीं। कोई आदिम पाप नहीं। कोई परिवेश नहीं। कोई पिता नहीं। कोई माता नहीं। कोई कोई शिक्षक नहीं । कोई प्रवृत्ति, रुझान या ग्रंथि नहीं । बचपन का प्रशिक्षण नहीं। मनुष्य स्वतंत्र है ।
मनुष्य अपनी संभावनाओं तथा जिम्मेदारियों में घिरा हुआ इस संसार में धकेल दिया गया है।
(4) मानव स्थिति : यह वह स्थिति है जिसमें मनुष्य अलगाव (एलियेनेशन) और एकाकीपन का जीवन व्यतीत करने पर विवश है। हाइडेगर का कथन है- “मनुष्य संसार में अकेला, थका हुआ निराश और भयभीत है।” मानव की यह निरुद्देश्य, प्रयोजनहीन, अलगाव तथा संत्रास स्थिति इस दुनिया कोविसंगतियों का रंगमंच बना देती है ।
(5) मानव नियति : अस्तित्ववाद ने यह प्रश्न किया कि मानव की इस विषम परिस्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है । ईश्वर, धर्म, राज्य, व्यवस्था, सभ्यता, संस्कृति, नैतिकता, राजनीति, विज्ञान या स्वयं मनुष्य।
अस्तित्ववाद के अनुसार मानव अपनी विषम परिस्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार है । (याद रहे मार्क्सवाद के तहत मनुष्य भौतिक-ऐतिहासिक नियतिवाद का गुलाम है ।
सिगमंड फ्रायड के अनुसार वह अवचेतन यौन प्रवृत्ति का दास है। विभिन्न धर्मों के अनुयायी इसे ईश्वर या किसी देवी शक्ति द्वारा परिचालित मानते हैं ।)
(6) मानव वरण तथा स्वतंत्रता : अस्तित्ववाद में मनुष्य अपने कर्म तथा निर्णय के लिए स्वयं उत्तरदायी है। इस कर्म तथा निर्णय के लिए उसे वरण (चयन) करना पड़ता है । वरण के लिए स्वतंत्रता मूल शर्त है। ईश्वर, राज्य या कोई अन्य व्यवस्था या व्यक्ति उसके लिए वरण नहीं कर सकता ।
इस स्वतंत्रता के बोझ से भयभीत होकर वह धर्म, राज्य या नैतिकता की शरण लेता है । अर्थात स्वतंत्रता का बोझ सहन न कर पाने के कारण वह पलायन करता है।
(7) चिंता एवं संत्रास : वरण की स्वतंत्रता की स्थिति चिंता (ऐंग्स्ट) तथा संत्रास (ड्रेड) उत्पन्न करती है। (मूल जर्मन शब्द ‘ऐंग्स्ट’ में मानसिक परिताप (चिंता) और भय (संत्रास) दोनों शामिल हैं।)
(8) प्रामाणिक व्यक्ति तथा जीवन : सच्चा व्यक्ति वही है-
- जो स्वतंत्रता के बोझ को स्वीकार कर लेता है ।
- जो वरण करने में संकोच नहीं करता ।
- जो स्वेच्छा से निर्णय लेता है ।
- जो इस निर्णय के लिए संताप के लिए तत्पर है ।
- जो अपने प्रत्येक कर्म के लिए उत्तरदायी है और उसकी सजा भुगतने के लिए तैयार है।
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ऐसा व्यक्ति प्रामाणिक व्यक्ति है । अन्य लोग झूठी आस्था (बैड फेथ) वाले होते हैं ।(9) मूल्य का प्रश्न :
प्रत्येक व्यक्ति स्थितियों के अलग-अलग होने के बावजूद अलग-अलग वरण करता है । अतः हर व्यक्ति का अर्थ-बोध दूसरे व्यक्ति के अर्थ-बोध से भिन्न होता है । इसलिए कोई व्यापक या सामान्य मूल्य या अर्थ संभव नहीं।
यह प्रश्न बार-बार पूछा जाता है कि क्या हम सही वरण करते हैं या हम इसके योग्य हैं या नहीं। अस्तित्ववाद का उत्तर है कि मानव की ‘मानवता’ वरण की अच्छाई में नहीं बल्कि सच्चाई में है । मूल्य का प्रश्न वरण के बाद पैदा होता है। क्योंकि सार अस्तित्व के बाद का है। अस्तित्व सार से पूर्ववर्ती है।
अस्तित्ववाद का सार
इन मूल विचार-बिंदुओं से स्पष्ट है कि अस्तित्ववाद के अनुसार ऐसे मनुष्य का ही अस्तित्व है जो वरण करता, स्वतंत्रता का प्रयोग करता है, चिंता तथा संत्रास से गुजरता है । अपने संकल्प तथा कर्म के लिए उत्तरदायित्व स्वीकार करता है और हर मूल्य चुकाने के लिए तैयार है। यह ही उसके अस्तित्व की शर्ते हैं। शेष सब अ-मानव हैं । उनका कोई अस्तित्व नहीं।
अस्तित्व के बगैर कोई सार नहीं । अस्तित्व सार से पूर्ववर्ती होता है । अतः पूर्व-निश्चित मूल्य या आदर्श या कोई बाह्य शक्ति (ईश्वर समेत) मनुष्य के अस्तित्व का निर्माण नहीं करती ।
यह है वह विसंगति जिसमें मनुष्य अपनी स्वतंत्रता और वरण द्वारा मनुष्य होने यानी अस्तित्व को अर्थ देता है। जीवन की स्थितियां मनुष्य को ऐसी अवस्था में ले आती हैं कि उसे अपने अनुभव की सीमाएं और दिशाएं निर्धारित करनी पड़ती हैं। उसे अपनी समस्त क्षमता तथा शक्ति को प्रयोग में लाना पड़ता है। इस संकट की स्थिति की अनिश्चितता के कारण उसे अपने अस्तित्व की गहराई का बोध होता है और उसका अस्तित्व अपना संकल्प होता है।
चयन की स्वच्छंदता अथवा वैयक्तिक स्वच्छंदता ही चूँकि अस्तित्ववादी दर्शन का प्राणतत्व है, इसलिए उनके साहित्य में घोर अराजकता, उन्मुक्त भोग, यौनाचार, नास्तिकता, असामाजिकता विज्ञान-विरोधिता आदि अनेक अनाचारी एवं अवांछनीय तत्वों की बहुलता पायी जाती है ।
वस्तुत: अस्तित्ववादी जीवन-दृष्टि में मनुष्य की समस्या ही सर्वोपरि है। उसका ठोस अस्तित्व, उसकी व्यक्तिगत स्वच्छंदता तथा अपने कार्यकलापों के निर्माण एवं उत्तरदायित्व का स्वतंत्र अनुभव ही वे स्तम्भ हैं, जिन पर अस्तित्ववादी जीवन दर्शन का महल खड़ा है।
साहित्य में यह जीवन-दृष्टि पूर्णत: व्यक्तिवादी, आत्मकेंद्रित अंतर्मुखी एवं आत्मनिष्ठ विचारधारा है ।
अस्तित्ववादियों के अनुसार चूँकि जीवन निरर्थक है, इसलिए जीवन की निरर्थकता के प्रति विद्रोह करने वाले ही सच्चे अर्थों में मुक्त हैं। जीवन के प्रति विद्रोह अथवा जीवन की निरर्थकता के प्रति विद्रोह से अस्तित्ववादियों का तात्पर्य जीवन के परंपरागत मूल्यों, समाज, धर्म, नीति आदि से संबंधित धारणाओं एवं विचारों के प्रति विद्रोह से है।
अस्तित्ववादी मानव-स्थिति को पूर्णत: दु:खद मानते हैं। इस दृष्टि से वे घोर निराशावादी हैं । पीड़ा, दु:ख, संत्रास, एकाकीपन अथवा आत्मनिर्वासन से युक्त जीवन जीना मनुष्य की अनिवार्य स्थिति है।
अस्तित्ववादी मृत्यु को मानवीय स्थिति (Human Condition) की सीमा मानते हैं । उनकी दृष्टि से मृत्यु की उपयोगिता है, वह जीवन का शुद्ध तथ्य है, क्योंकि मृत्यु ही मानव-जीवन की वह अंतिम सीमा है, जहां मनुष्य में निरासक्ति का भाव पैदा होता है तथा अपने अस्तित्व का सही ज्ञान भी ।
निष्कर्ष
अस्तित्ववाद विशुद्ध साहित्यिक प्रवृत्ति या आलोचना सिद्धान्त नहीं है। लेकिन इसने साहित्य को अत्यधिक गहराई से प्रभावित किया। ज्या पाल सार्त्र, सीमोन द बिउआ और अल्बेयर कामू जैसे रचनाकारों ने अस्तित्ववाद से प्रभावित होकर कई श्रेष्ठ कृतियाँ साहित्य को दी हैं।
इसके अतिरिक्त, कई अन्य लेखकों को भी इस धारा में समाहित किया जा सकता है, जिनमें फियोडोर दोस्तोएवस्की और फ़्रांज काफ्का के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं ।
अस्तित्ववाद का प्रभाव रंगमंच पर भी पड़ा, एब्सर्ड नाटक की अवधारणा के मूल में अस्तित्ववादी दर्शन ही है । इस रंगमंच को ‘एण्टी-थिएटर’ भी कहा जाता है । भुवनेश्वर द्वारा लिखित नाटक ‘तांबे के कीड़े’ एब्सर्ड नाटक का उत्कृष्ट उदाहरण है ।
हिंदी की नई कविता पर अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव है। धर्मवीर भारती, दुष्यंत कुमार, भारतभूषण अग्रवाल, कुँवर नारायण, अज्ञेय आदि कवियों में अनास्था, अस्तित्वबोध, मृत्यु-बोध, वैयक्तिक स्वच्छंदता, पीड़ा, निराशा, उन्मुक्त भोग आदि अस्तित्ववादी प्रवृत्तियों की अनुगूँज सुनाई पड़ती है ।
धर्मवीर भारती का काव्य-नाटक ‘अंधायुग’, मोहन राकेश का नाटक ‘आधे-अधूरे’ अज्ञेय के ‘अपने-अपने अजनबी’ तथा कुँवर नारायण की ‘आत्मजयी’ में अस्तित्ववाद का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है ।

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