पाश्चात्य काव्य-चिंतन की परंपरा का विकास 5 वीं सदी ईस्वी पूर्व से माना जाता है। पतंतु पाश्चात्य आलोचना में भौतिक सिद्धान्तों का सर्वप्रथम प्रतिपादन प्लेटो द्वारा ही हुआ । इसी काल में पाश्चात्य अर्थात् ग्रीक आलोचना का क्रमबद्ध स्वरूप देखने को मिलता है ।
इसके पहले कतिपय यूनानी साहित्यकारों (होमर, पिण्डार, गार्जियस, अरिस्टोफनीस आदि) की कृतियों में हमें भले ही कुछ फुटकर आलोचना के सिद्धान्तों के दर्शन हों, किन्तु उनका कोई सारगर्भित और व्यवस्थित रूप हमें देखने को नहीं मिलता ।
एक व्यवस्थित शास्त्र के रूप में पाश्चात्य साहित्यालोचन की पहली झलक प्लेटो (427-347 ई.पू.) के ‘इओन’ नामक संवाद में मिलती है ।
प्लेटो का जन्म 427 ई.पू.में एथेंस में हुई और मृत्यु 347 ई.पू.में हुई। इनका मूल नाम अरिस्तोक्लिस था, लेकिन इनके गुरु ने इन्हें प्लातोन नाम दिया। आज हम इन्हें अरबी-फारसी में अफलातून और अंग्रेजी में प्लेटो के नाम से जानते हैं।
प्लेटो की महत्वपूर्ण रचनाएँ ईओन (Ion), विचार गोष्ठी (Symposium), गणतन्त्र (Republic) और लॉज (Laws) हैं ।
प्लेटो प्रत्ययवादी (Idealistic) या आत्मवादी दार्शनिक था ।
कला के मूल्य के संदर्भ में प्लेटों का दृष्टिकोण उपयोगितावादी और नैतिकतावादी था। प्लेटो का कला विषयक दृष्टिकोण विधेयात्मक या
मानकीय (Normative ) है, अर्थात् प्लेटो बताना चाहता है कि कला कैसी होनी चाहिए ।
प्लेटो के दर्शन में मुख्यत: निम्नलिखित पाँच विषयों का निरूपण है :
1. आदर्श राज्य
2. प्रत्यय सिद्धान्त
3. आत्मा की अमरत्व-सिद्धि
4. सृष्टि-शास्त्र
5. ज्ञान-मीमांसा
प्लेटो के समय तक यूनानी जीवन के राजनीतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक सभी क्षेत्रों में अराजकता फैल गई थी और उसके सांस्कृतिक वैभव का वेग से विघटन प्रारंभ हो गया था ।
प्रजातंत्र के नाम पर राजसत्ता कुछ अदूरदर्शी, स्वार्थी लोगों के हाथ में थी । ऐसी स्थिति में प्लेटो की विचारधाराओं ने यूनान की संस्कृति के उत्थान में अपना अत्यन्त महत्वपूर्ण और शक्तिशाली योग दिया ।
प्लेटो ने सर्वप्रथम साहित्य विषयक भौतिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया और इस प्रकार पश्चिम में समीक्षा शास्त्र की नींव पड़ी ।
प्लेटो के गुरु सुकरात ने साहित्यालोचन के क्षेत्र में नई उद्भावनाएँ प्रस्तुत नहीं की थी । उन्होंने कोई ग्रन्थ भी नहीं लिखा और न कभी अध्यापन किया । उनके रहन-सहन, तौर-तरीके रूढ़िवादी थे ।
सुकरात बुद्धि तथा तर्क के अतिरिक्त किसी भी बाह्य सत्ता का आदेश मानने को तैयार न थे । उनकी विचार-सरणी में भावना का स्थान नहीं था । वे ‘आत्मदीपो भव’ के प्रचारक थे ।
उनके अपूर्व मेधावी शिष्य प्लेटो ने निश्चित रूप से कलाओं के विषय में अपने विचार प्रकट किए । प्लेटो पर सुकरात का गंभीर प्रभाव पड़ा । प्लेटो की भव्य, उदात्त शैली बताती है कि वे मूलतः कवि थे । उनके लेखकीय जीवन का प्रारंभ हुआ भी नाटकों और कविताओं की रचना से, किन्तु सुकरात के प्रभाव में आने पर उन्होंने ललित कलाओं को नष्ट कर दिया ।
प्लेटो का दृष्टिकोण ही बदल गया । उनका दृष्टिकोण सुकरात की तरह दार्शनिक का दृष्टिकोण था और यही कारण है कि प्लेटो काव्य,
नाटक के प्रति न्याय करने में असमर्थ रहा ।
अपनी प्रसिद्ध कृति ‘रिपब्लिक’ में उसने काव्य और कवियों का घोर विरोध कर उन्हें हेय और निन्दनीय प्रमाणित किया । प्लेटो के अनुसार काव्य मनुष्य की वासना को उत्तेजित कर उसे विवेकहीन बनाता है ।
प्लेटो ने संभवतः तत्कालीन साहित्य को देखकर ही अपना यह मत व्यक्त किया था । वह संसार में एक ऐसे राज्य या समाज की स्थापना करना चाहता था, जो आदर्श हो ।
वस्तुतः वह श्रेष्ठ राज्य, श्रेष्ठ समाज और श्रेष्ठ आदर्शों की स्थापना करना चाहता था किन्तु उसने देखा कि तत्कालीन यूनानी सहित्य कामोत्तेजक और भावना प्रधान है । श्रेष्ठ राज्य और समाज की स्थापना में साहित्य और कला का तत्कालीन रूप सहयोग न कर उच्छृङ्खलता मात्र फैला रहा था ।
अतः उसने साहित्य और कला की घोर निन्दा करनी प्रारंभ कर दी । अपनी ‘रिपब्लिक’ के तीसरे भाग में वह होमर को परलोक की अन्धकारमय स्थिति का चित्रण करने के लिए दोषी ठहराता है ।
उसके अनसार ऐसे साहित्य पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक है । प्लेटो, होमर द्वारा वर्णित कतिपय घटनाओं की घोर निन्दा करते हुए उसे समाज में चारित्रिक दुर्बलता फैलाने का भागी ठहराता है । ऐसा साहित्य समाज में अनैतिकता फैलाकर मनुष्यों को इन्द्रियों का दास बना देता है ।
काव्य और कला के विषय में प्लेटो की मुख्य चिन्ता है- आदर्श राज्य में उनकी उपयोगिता । इस उपयोगिता का निर्णय करने के क्रम में उन्होंने कला की परिभाषा, कलाओं में काव्य का स्थान, काव्य का स्वरूप, काव्य की प्रेरणा, काव्य के विषय, काव्य के रूप, काव्य का
भावात्मक प्रभाव, काव्य और सत्य, काव्य और जीवन का सम्बन्ध आदि अनेक विषयों का स्पर्श किया है ।
इस सूची की परिव्याप्ति एक व्यवस्थित काव्य सिद्धान्त के पुनर्निर्माण की संभावना की ओर निश्चित रूप से संकेत करती है, भले ही प्लेटो के संवादों में किसी निश्चित क्रम का निर्वाह न हुआ हो ।
प्लेटो का अनुकरण सिद्धान्त एवं काव्य-सत्य
प्लेटो ने ‘मिमेसिस’ (Mimesis) अर्थात् ‘अनुकरण’ शब्द का प्रयोग दो संदर्भों में किया है :
(1) प्रत्यय या विचार जगत और दृश्यमान जगत के बीच सम्बन्ध की व्याख्या के लिए और
(2) वास्तविक जगत और कला जगत के बीच सम्बन्ध निरूपण के लिए ।
तात्विक दृष्टि से यह प्रश्न सत्य और असत्य का है और नैतिक दृष्टि से शुभ और अशुभ का ।
प्लेटो के प्रत्यय सिद्धान्त के अनुसार, “प्रत्यय या विचार (Idea) की चरम सत्य है है । वह शाश्वत और अखण्ड है तथा ईश्वर उसका स्रष्टा (Creator)है। यह वस्तु जगत प्रत्यय का अनुकरण है तथा कला, वस्तु जगत का अनुकरण है ।
इस प्रकार कला जगत अनुकरण का अनुकरण होने के कारण सत्य से तीन गुना दूर है, क्योंकि अनुकरण असत्य होता है ।”
प्लेटो ने यूनानी शब्द ‘मिमेसिस’ (Mimesis) अर्थात् ‘अनुकरण’ का प्रयोग अपमानजनक (Derogatory) अर्थ में किया है।उनके अनुसार अनुकरण में मिथ्या तत्व रहता है, जो हेय है । परंतु कला की अनुकरण मूलकता की उद्भावना (ideation or brain child) का श्रेय प्लेटो को दिया जाता है । वास्तव में प्लेटो ने अनुकरण में मिथ्या तत्व का आरोप लगाकर कलागत सृजनशीलता की अवहेलना की ।प्लेटो प्रत्ययवादी दार्शनिक हैं।उनकेअनुसार संसार में प्रत्येक वस्तु का एक नित्य रूप होता है जो प्रत्यय अर्थात् विचार (Idea) या धारणा में ही रहता है । यह रूप ईश्वर निर्मित हुआ करता है ।प्रत्यय अर्थात् विचार में विद्यमान उसी रूप के आधार पर किसी वस्तु का निर्माण होता है। प्लेटो द्वारा ‘रिपब्लिक’ के दसवें भाग में दिया गया दृष्टान्त लें ।प्लेटो का तर्क है कि-एक बढ़ई द्वारा बनाए गए पलंग की कल्पना कीजिए । यह पलंग जो कि अब तक एक ठोस पदार्थ के रूप में हमारे सामने है, उसे वह बढ़ई क्योंकर बना सका? उसका आकार कहाँ से उसके पास आया? अवश्य ही उस बढ़ई के मन में किसी आदर्श पलंग की कल्पना रही होगी ।
इस आदर्श पलंग की कल्पना उसे प्रत्यय या विचारों के जगत से प्राप्त हुई होगी । प्लेटो के अनुसार यह विचारों का जगत ही, जहाँ से समस्त कल्पना अथवा आभास प्राप्त होते हैं; अकेली वास्तविक सत्ता है । अतः पलंग नाम की वास्तविक सत्ता का निर्माता ईश्वर है, बढ़ई तो केवल वास्तविक सत्ता के आभास का निर्माण करता है ।बढ़ई द्वारा बनाया गया पलंग ईश्वर के
मन में विद्यमान वास्तविक पलंग की छाया मात्र है । अतः बढ़ई द्वारा निर्मित पलंग वास्तविक सत्ता न होकर अनुकरण या नकल मात्र है ।
प्लेटो के कथन का सारांश निम्न है :
(1) प्रत्यय-जगत् यथार्थ है; ईश्वर उसका स्रष्टा (Creator) है ।
(2) वस्तु-जगत् यथार्थ का अनुकरण है; बढ़ई (कारीगर) उसका निर्माता (Maker) है।
(3) कला-जगत्, वस्तु-जगत् का अर्थात् अनुकरण का अनुकरण है; कलाकार उसका अनुकर्ता (Imitator) है । (Example : Photocopy of photocopy) प्लेटो
के अनुसार यह समस्त दृश्यमान संसार, जो इन्द्रियों द्वारा पहिचाना जाता है, वास्तविक न होकर एक भ्रम है, वह अन्य वास्तविक सत्ताओं की, जो कि ईश्वर के मन ही में विद्यमान है, अनुकरण अथवा छायामात्र है ।
अतः प्लेटो समस्त दृश्यमान संसार को भ्रम मानता है । उसकी दृष्टि में विचार रूप जगत ही सत्य है, यह संसार असत्य है ।तो अब हम फिर बढ़ई द्वारा बनाए पलंग की ओर लौट चलें । वह पलंग वास्तविक न होकर आदर्श पलंग की, जो कि ईश्वर के मन में है,अनुकरण मात्र है। बढ़ई के पश्चात् चित्रकार आता है जो कि पलंग का चित्र प्रस्तुत करता है ।
चित्रकार द्वारा निर्मित पलंग का यह चित्र बढ़ई के पलंग की अनुकृति है या नकल है । किन्तु बढ़ई का पलंग भी तो वास्तविक पलंग की अनुकृति ही था । अतः चित्रकार का पलंग अनुकृति की अनुकृति हुआ।
प्लेटो के अनुसार समस्त कला (काव्य, चित्र, संगीत आदि) अनुकृति की अनुकृति अर्थात् नकल की नकल है । वह वास्तविक होना तो दूर रही, वास्तविकता की अनुकृति भी नहीं है। नहीं है । वह तो एक ऐसे की अनुकृति है जो स्वयं अनुकृति, छाया अथवा आभास (Appearance) है ।
दूसरी बात यह है कि प्लेटो काव्य को एक प्रकार का उन्माद मानता है । प्लेटो ने अपने ‘ईओन’ नमक संवाद में काव्य-सृजन प्रक्रिया या काव्य-हेतु की चर्चा की है । उसने ईश्वरीय उन्माद को काव्य-हेतु स्वीकार किया है ।
प्लेटो के अनुसार कवि काव्य-सृजन दैवी शक्तियों से प्रेरित होकर करता है। काव्य देवी को प्लेटो ने ‘म्यूजेज़’ की संज्ञा से अभिहित किया है । अर्थात् कवि कविता करते समय उन्माद या पागलपन की दशा में रहता है, वह अपने को किसी दैवी शक्ति द्वारा प्रेरित प्रतीत करता है । किन्तु वह उस समय यह नहीं जानता कि वह क्या कह रहा है । अतः उसके शब्दों पर ध्यान नहीं दिया जा सकता क्योंकि वहाँ विवेक और तर्क का कोई नियंत्रण नहीं ।इस भावुक आवेश का परिणाम यह होता है कि वह अनैतिकता का प्रचार करने लगता है।
यही कारण है कि कवि प्रायः देवी-देवताओं के विषय में भी अनैतिक घटनाओं का वर्णन करने लगते हैं । इन देवी-देवताओं का चरित्र क्रूर, नृशंस और अधम चित्रित किया जाता है ।प्लेटो इस प्रकार एक वर्तुलाकार मार्ग द्वारा यह प्रमाणित करता है कि कला की प्रेरणा दैवी नहीं कहीं जा सकती। अतः कला की रचना वस्तुतः केवल भावुक आवेश के वशीभूत होकर ही होती है ।
उपर्युक्त कारणों से प्लेटो कला को आदर्श राज्य से बहिष्कृत कर देना चाहता है । वह कला जो मिथ्या और अनाचार का प्रचार करती है, कभी भी समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकती ।
तीसरी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बात यह है कि प्लेटो के अनुसार-समस्त दृश्यमान संसार एक अन्य वास्तविक संसार का अनुकरण मात्र है। यह वास्तविक संसार अनेक सत्ताओं, विचारों, अथवा सिद्धान्तों का संसार है । ये सिद्धान्त हैं—शिव, न्याय, सत्य और सुन्दर ।इन्हें प्लेटो आर्की टाइप्स (
Arche types) अथवा मौलिक सिद्धान्त कहता है । इस संसार का सत्य, शिव और सुन्दर इन्हीं मूल सताओं का अनुकरण है ।प्लेटो के अनुसार
‘सुन्दर’ की स्वतंत्र स्थिति नहीं । सुन्दर होने के लिए यह आवश्यक है कि वह साथ में सत्य और शिव भी हो । प्लेटो के कला के प्रति दृष्टिकोण के हमें दो पक्ष दिखाई पड़ते हैं-
( 1 ) कला अपने निकृष्ट रूप में मिथ्या और अनाचार का प्रचार करती है, अतएव उसका बहिष्कार ही वांछनीय है । (
2) कला अपने उच्चतम रूप में सत्य, शिव और सुन्दर तक पहुँचने का साधन हो सकती है ।
प्लेटो इस प्रकार कला के सौन्दर्य को दर्शन के सत्य और समाज के कल्याण से पृथक् नहीं करता । सच्ची कला वही है जिसमें सत्य अर्थात् वास्तविक मौलिक सत्ता तक पहुँचाने का प्रयास हो । प्लेटो के कला-सिद्धान्त का यह दूसरा पक्ष कला को नैतिकता की अनुगामिनी बना देता है । साहित्य वही है जो सत् साहित्य हो अन्यथा वह मिथ्या और अनाचार का माध्यम बन जाता है ।
वही साहित्य ग्राह्य है , जो सत्य, शिव और सुन्दर को व्यक्त करे ।इस प्रकार प्लेटो ने कला को (1) दर्शन और (2) प्रयोजन के आधार पर अग्राह्य माना है ।
प्लेटो के अनुसार काव्य का सत्य नैतिकता है । जिससे समाज और व्यक्ति के नैतिक जीवन को बल मिले और उसका उत्थान हो, वही सत्य है, इसके विपरीत जो कुछ है असत्य है । उसके अनुसार आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाली हर काव्य वस्तु अग्राह्य है । वह अन्योक्तिमूलक काव्य को भी असत्य मानता है । प्लेटो लिखता है कि “कला की प्रकृति अनुकरणात्मक है अतः असत्यमूलक है । उसमें सत्य का अंश केवल शुभ के रूप में रहता है ।”
अतः कविता का सत्य इसी में है कि वह जीवन के शुभ का अनुकरण करे ।
प्लेटो की दृष्टि में काव्य और नाटक का प्रभावप्लेटो की सभी या प्रमुख कृतियों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह एक ऐसा दार्शनिक था जिसमें न केवल जीवन और सृष्टि के सत्य को पा लेने की उत्कण्ठा थी, वरन् साथ ही उसमें समाज के उत्थान की उत्कट आकांक्षा भी थी ।
अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रिपब्लिक’ में उसने समाजोत्थान के सभी संभव साधनों और उसके बाधक तत्वों की बड़ी तत्परता और जागरूकता के साथ परीक्षा एवं विवेचना की है ।वह काव्य को स्वीकार करता था किन्तु सभी काव्य को नहीं। प्लेटो के समय का यूनानी साहित्य कामोत्तेजक एवं भावोद्वेलन प्रधान था।अतः सामाजिक हित की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध नहीं होता था ।
इसलिए प्लेटो ने काव्य एवं नाटक के सम्बन्ध में कई आपत्तियाँ उठायी हैं :
1. काव्य और नाटक भाव से उद्भूत होते हैं, तर्क से नहीं। भाव पर आधारित होने के कारण काव्य और नाटक में तर्क का अवकाश नहीं रहता, इसलिए वह अग्राह्य है ।
2. भावप्रधान होने से काव्य भाव को ही जाग्रत करता है तर्क को नहीं, अर्थात् वह हृदय को प्रभावित करता है, बुद्धि को नहीं । काव्य मनोवेगों का पोषण और सेचन करता है जिससे सत्य और शिव का ज्ञान नहीं हो पाता । भावातिरेक संयम और संतुलन को भी बाधित करता है । यह स्थिति व्यक्ति को न केवल दुर्बल एवं अशक्त बनाती है, अपितु उसे कुमार्ग की ओर भी अग्रसर करती है ।इसलिए प्लेटो की स्पष्ट घोषणा है कि कविता का बहिष्कार करना होगा और कवियों को राज्य से निकाल देना होगा ।
3. नाटकों में बुरे पात्रों का लगातार अनुकरण करने से अभिनेताओं में भी उसकी बुराइयाँ आ जाती हैं । वे भी कायर, लम्पट, धूर्त, वंचक बन जाते हैं और उनका स्वभाव बदल जाता है । इस प्रकार समाज में अच्छाइयों के बदले बुराइयाँ फैलती हैं ।
4. त्रासदी (Tragedy) या दुःखांत नाटकों में कलह, हत्या, विलाप आदि और सुखांत (Comedy) नाटकों में अभद्रता, मसखरापन आदि देखने-सुनने से दर्शक और श्रोता के मन में निकृष्ट भाव उदित होते हैं । इससे अनुशासन में कमी आती है।
प्लेटो के अनुसार, “होमर के काव्य में हम बेचारे नायक को एक लम्बे कथन में अपना शोक प्रदर्शित करते हुए, रोते हुए और अपनी छाती पीटते हुए पाते हैं । जीवन में हम अपना दुःख न प्रकट करने में गौरव मानते हैं, क्योंकि हममें एक विवेक बुद्धि होती है जो हमें इन क्षुद्रताओं की ओर जाने से रोकती है । त्रासदी (Tragedy में विवेक की उपेक्षा की जाती है। रोने बिलखने से समाज में वीर भाव लुप्त हो जाता है ।”
5. कोई व्यक्ति जीवन में गंभीरता से काम करे और नाटक में हलकेपन से, यह असंगत है । साथ ही वही व्यक्ति ट्रेजेडी और कामेडी दोनों में अभिनय करे और सफलता प्राप्त करे, यह संभव नहीं, क्योंकि दोनों भिन्न प्रकार के अभिनय होते हैं।
6. नाटककार लोकप्रियता अर्जित करने के लिए हलके और ओछे भावों का ही चित्रण पसंद करते हैं । इससे समाज में हल्कापन और ओछेपन का प्रसार होता है।
7. होमर के काव्यों (इलियड और ओडेसी) में जिन देवताओं का चरित्र चित्रण किया गया है वह असत्य भी है और अनुचित भी । उसमें न तो देवों का चरित्र आदर्श है, न वीरों का। उनसे मनुष्यों को कोई सत्प्रेरणा नहीं मिलती ।इसलिए होमर-काव्य में वर्णित देव युद्धों को हमारे समाज में कोई स्थान नहीं मिलना चाहिए, भले ही उनका कोई अन्योक्तिमूलक अर्थ हो।
क्योंकि अपरिपक्व मस्तिष्क वाले अन्योक्ति और तथ्योक्ति में अन्तर नहीं समझ सकते हैं ।देवयुद्धों के वर्णन से बच्चों के सामने यह तथ्य प्रस्तुत होता है कि जब देवता युद्ध करते थे तो युद्ध करना ठीक है । वास्तव में वह युद्ध काल्पनिक युद्ध है किन्तु बच्चे उसे सत्य समझ लेंगे । इससे उनके सामने गलत आदर्श उपस्थित होगा ।
इतिहास पुराणों में अन्योक्तिपरक ढंग से वर्णित देवयुद्धों के दुष्प्रभाव को ध्यान में रखकर ही तुलसीदास ने जहाँ अवसर मिला है वहाँ देवों की निन्दा की है यथा-ऊँच निवास, नीच करतूती, देखि न सकहिं पराइ विभूती ।इन्द्र की उपमा में तुलसीदास ने कौवे को प्रस्तुत किया है—
‘काग समान पाकरिपु नीती ।”
8. प्लेटो का कथन है कि होमर और हेसियाड के काव्यों में ऐसे स्थल आए हैं, जो पाठकों, श्रोताओं के मन में भय उत्पन्न करते हैं, इसलिए उन्हें वीर और साहसी के बदले भीरू और कापुरुष बनाते हैं । जबकि काव्य ऐसा होना चाहिए, जो नवयुवकों में शौर्य और पराक्रम की भावना का संचार करे ।
9. जिन कहानियों को मैं हानिप्रद मानता हूँ उनका अवगुण है असत्य कथन या काल्पनिक कथन । काल्पनिक कथन देवों और मनुष्यों के लिए हेय होता है ।
उपर्युक्त प्लेटो के मंतव्यों को देखकर जरा भी संदेह नहीं रहता कि प्लेटो काव्य और नाटक के घोर विरोधी हैं । किन्तु प्लेटो केवल उस काव्य और नाटक का विरोध करता है जो नागरिकों में भीरुता, निर्बलता और अनैतिकता का संचार करता है, जो उन्हें सत्य से हटाकर असत्य और अशिव की ओर ले जाता है ।
क्रोचे के अनुसार, “विचारों के इतिहास में कला के महान निषेध का इतना बड़ा विचारक एक भी नहीं हुआ ।”
किन्तु प्लेटो का निषेध भी असाधारण था और वे अपने निषेध में भी महान थे ।
प्लेटो के संवादों से यह तथ्य सहज ही लक्षित किया जा सकता है प्लेटो काव्य का गहरा प्रेमी और स्वयं कवि हृदय संपन्न था । उसके
सभी संवाद कवित्व से अनुप्राणित हैं। जब कभी सामाजिक कल्याण को सर्वोपरि महत्व प्रदान करके कोई विचारक काव्य का परीक्षण करता है, तो उसे समझने में प्राय: भ्रम हो जाने का डर बना रहता है ।
कारण यह कि समाज के उत्थान में जब कोई प्रवृत्ति बाधा पहुंचाने लगती है तो सामाजिक कल्याण की स्थापना के लिए उसके बाधक प्रभाव को निन्दा आवश्यक हो जाती है ।
तुलसीदास ने खलों की बन्दना की किन्तु ‘कृष्ण’ की प्रतिमा के आगे झुकने में उन्हें हिचक थी। इसलिए नहीं कि वे कृष्ण की उपासना को ही हानिकर मानते थे, वरन उन्हें हिचक इसलिए थी कि उन्होंने स्पष्ट देख लिया था कि उसका प्रभाव समाज के चरित्र गठन के लिए भयावह है ।
प्लेटो की स्थिति भी ऐसी ही थी । यदि किसी काव्य में सत्य और ज्ञान की पूर्ण प्रतिष्ठा है तो वह ऐसे काव्य का स्वागत करेगा ।
प्लेटो प्रथम विचारक थे जिन्होंने कविता की रहस्यमयी शक्ति और अक्षय जीवंतता को पहचाना । कविता की शक्ति के सन्दर्भ में उन्होंने ‘चुंबक’ के बिम्ब जैसा काव्यात्मक प्रयोग किया है ।
उससे स्पष्ट है कि वे कविता में निहित जादुई आकर्षण शक्ति से पूरी तरह अवगत थे और मानते थे कि कविता गायक के साथ ही श्रोता को भी रूपांतरित कर देती है ।
प्लेटो राज्य में सत्य, सदाचार और न्याय की प्रतिष्ठा करना चाहते थे, इसी आदर्श राज्य की परिकल्पना के सन्दर्भ में कविता पर विचार करते हुए उन्होंने इस बात पर बल दिया कि कविता मनोरंजन मात्र की वस्तु नहीं है ।
अपनी सामाजिक आवश्यकता प्रमाणित करने के लिए उसे आनंद सिद्धान्त से आगे बढ़कर मंगल विधान की ओर भी अग्रसर होना पड़ेगा ।
इस प्रकार प्लेटो वस्तुतः काव्य या नाटक का निन्तात विरोधी नहीं था और न सच्चे कवियों को राज्य से बाहर करने के पक्ष में था । वह केवल उसी कला की निन्दा करता है जो अपने कर्तव्य को या तो समझती नहीं या गलत समझती है ।
अपने द्वितीय कोटि के आदर्श गणराज्य में (Second best state ) वह उन कुछ शर्तों के साथ त्रासदी (Tragedy को भी स्वीकार करता है और उस कामदी (Comedy)के पक्ष में भी है जिसमें ऐसे व्यक्तियों का चित्रण किया जाता है जिन्हें हम अच्छा नहीं समझते । कुल मिलाकर उसकी कलात्मक उत्कृष्टता के मूल्यांकन का मानदंड शिव और सत्य की अनुकूलता है ।
काव्य रचना की प्रक्रिया
प्लेटो के अनुसार काव्य की रचना प्रक्रिया एक प्रकार के ईश्वरीय उन्माद का परिणाम है ।
अपने ग्रन्थ ‘फेद्रुस‘ में सुकरात के मुंह से प्लेटो कहलवातेहैं- “तीसरे प्रकार का उत्पाद उनका है जो काव्य देवी से आविष्ट होते हैं । काव्यदेवी कोमल और निर्मल आत्मा को अपने अधिकार में लेकर और उसमें उन्माद जगाकर प्रगीत तथा अन्य कविताओं को उत्पन्न करती है ।”
प्लेटो की मान्यता है कि सभी समर्थ कवि चाहे वे महाकाव्य के रचयिता हो या प्रगीत काव्य के किसी दैवीशक्ति से प्रेरित एवं अभिभूत
होकर लिखते हैं । उनके मतानुसार ईश्वरीय अनुकंपा के बिना कोई कवि नहीं हो सकता ।
काव्य रचना की प्रक्रिया को प्लेटो ने एक सुचिंतित कलात्मक प्रयास नहीं माना । कविता उनके लिए शिल्प नहीं है ।
प्लेटो के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि कवि में रचना प्रक्रिया की क्षमता का प्रादुर्भाव ईश्वरीय शक्ति के रूप में होता है, कलात्मक सिद्धि के रूप में नहीं । कवि तो निष्क्रिय माध्यम होता है, वास्तविक रचयिता या गायक स्वयं ईश्वर है ।
कवि को कविता का निमित्त कारण मानकर प्लेटो ने उसे सभी दायित्वों से मुक्ति दे दी । कहा जा सकता है कि सृजन-क्षण में कवि पूर्णतः अवश हो जाता है। वह कविता के प्रति इस हद तक समर्पित हो जाता है कि कविता उसके द्वारा नहीं होती, स्वयं फूट पड़ती है । यहाँ तक कि विधा का चयन भी कवि के अधिकार में नहीं है । कवि किस विधा में काव्य रचना करेगा, इसका निर्धारण भी काव्य-देवी करती है ।
प्लेटो के अनुसार कवि की काव्य चेतना एक बांसुरी है जिसमें स्वर फूंकने का काम ईश्वर करता है अथवा एक वीणा है जिसके तार ईश्वर के स्पर्श से झंकृत हो उठते हैं । बांसुरी या वीणा में संगीत-लहरी उत्पन्न करने वाली शक्ति तो है किन्तु वादक के अभाव में वह मूक, नीरव पड़ी रहती है । यही स्थिति कवि की है । उसमें विद्यमान काव्य-रचना की शक्ति तब तक रचना में प्रवृत्त नहीं होती जब तक ईश्वरीय प्रेरणा नहीं होती ।
प्लेटो द्वारा काव्य को केवल ईश्वरीय प्रेरणा द्वारा प्रसूत मानने में कई आपत्तियाँ हैं। काव्य रचना में ईश्वरीय प्रेरणा ही सब कुछ नहीं है, कवि के सचेत कलात्मक योगदान का भी पर्याप्त महत्त्व है । विषय के चयन से लेकर रचना की समाप्ति तक कवि का कलात्मक प्रयास
जागरूक तथा सक्रिय रहता है और इसीलिए कोई काव्य उत्कृष्ट और कोई निकृष्ट होता है ।
दूसरी बात यह है कि काव्य रचना ईश्वरीय प्रेरणा का ही परिणाम है तो प्लेटो काव्य की निन्दा क्यों करता है और अपने आदर्श राज्य से कवि के निष्कासन का प्रस्ताव क्यों करता है ।
अतः प्लेटो की यह मान्यता अपने देश की रचनाओं के संबंध में ठीक हो सकती हैं किन्तु सार्वभौम सिद्धान्त के रूप में इसे स्वीकार करना संभव नहीं हैं । कवि के उन्माद, आत्मविस्मृति आदि को भी केवल लाक्षणिक रूप में ही ग्रहण करना उचित है । न तो कवि को पागलपन का दौरा पड़ता है, न उस पर भूत चढ़ता है, न वह होश-हवास खोता है ।
यह सब कहने का अर्थ इतना ही है कि सर्जन के क्षणों में कवि का मन सर्वथा एकाग्र होता है अर्थात् एक प्रकार से वह आत्मलीन हो जाता है ।
प्लेटो कवि के पागलपन, आविष्टता आदि के द्वारा इसी चित्त की एकाग्रता को उजागर करना चाहता है ।
काव्य का प्रयोजन
प्लेटो के अनुसार काव्य का मुख्य प्रयोजन शिक्षा देना है या उपदेश देना है । किन्तु वह यह नहीं मानता कि काव्य प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा दे, वरन् आत्मा में जो कुछ सर्वोत्तम तत्व सुप्तावस्था में पड़ा है, उसे जाग्रत कर पाठकों को सही मार्ग का बोध कराए ।
उसका मत था कि काव्य चरित्र का निर्माण और सुधार तो करता है, किन्तु इसके लिए वह नीति शास्त्र की शिक्षा नहीं देता, यह काम तो नीति शास्त्र का है ।
काव्य पाठकों को मूल्यों का सही बोध कराता है । भारतीय मत में “कान्ता सम्मिततयोपदेश युजे” कहकर यही अभिप्राय स्पष्ट किया गया है । काव्य प्रत्यक्ष उपदेश नहीं देता, वरन् वह अपने प्रभाव से पाठक में ऐसा ज्ञान जाग्रत कर देता है कि वह स्वयं अपना हित समझ सकता है ।
काव्य का विषय
काव्य के विषय के सम्बन्ध में प्लेटो की निश्चित धारणा है कि वह धार्मिक तथा नैतिक होना चाहिए । उसमें देवताओं और राष्ट्रवीरों का वर्णन होना चाहिए । उसने कवियों को परामर्श दिया है कि वे देवताओं के चरित्र के सद्गुणों, शील और और दृढ़ता का ही वर्णन करें।
काव्य की शक्ति
प्लेटो के समकालीन यह मानते थे कि त्रासदी (Tragedy और कामदी (Comedy) काव्य सृजन की शक्तियाँ अलग-अलग होती हैं। किन्तु प्लेटो ने यह माना कि कवि की विभिन्न शक्तियाँ मूलतः एक हैं । अर्थात् कवि की शक्ति एक होती है और वह अविभाज्य होती है।
जो कामदी (सुखान्त-Comedy) लिख सकता है वह त्रासदी (दुखांत Tragedy) भी लिख सकता है । हिंदी में तुलसी और प्रसाद ऐसे ही साहित्यकार माने जाएँगे । किन्तु सभी साहित्यकारों की शक्ति में यह सामर्थ्य नही है । प्रेमचन्द की शक्ति बहुमुखी थी किन्तु प्रेमचन्द महाकाव्य नहीं लिख सके ।
काव्य हेतु
प्लेटो के अनुसार काव्य सृजन के तीन हेतु हैं-
(1 प्राकृतिक शक्ति
(2) आवश्यक नियमों का ज्ञान और
(3)अभ्यास ।
इनमें सर्वप्रमुख है प्राकृतिक शक्ति। अन्त में अभ्यास का महत्व है । भारतीय आचार्यों ने भी सर्वसम्मति से प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य हेतु माना है ।
प्लेटो का यह भी मत था कि कवि को मनुष्यों की प्रकृति का पूरा बोध होना चाहिए । कला के मूल्य के संदर्भ में प्लेटों का दृष्टिकोण उपयोगितावादी और नैतिकतावादी था।
काव्य के प्रमुख भेद
प्लेटो के अनुसार काव्य तीन प्रकार के होते हैं :
(1) अनुकरणात्मक प्रहसन और दु:खांतक (नाटक) प्राकृतिक शक्ति
(2) वर्णात्मक डिथिरैम्ब (प्रगीत)
(3) मिश्र महाकाव्यप्लेटों के अनुसार प्रगीत के तीन अंग होते हैं (1) शब्द, (2) माधुर्य तथा (3) लय
काव्य की शैली और भाषा
काव्य की शैली के सन्दर्भ में प्लेटो का मत है कि “शैली कवि के चरित्र का प्रतिबिम्ब है (Reflexion of character) ।”
भारतीय समीक्षकों ने भी माना है कि “शैली मनुष्य है । (style is the man) अर्थात् शैली कवि का वैशिष्ट्य है ।
“यत् स्वभाव कविः तदनुरूपं काव्यं” अर्थात् कवि का जैसा स्वभाव होगा, उसी के अनुरूप उसका काव्य होगा ।
काव्य की भाषा के सन्दर्भ में प्लेटो ने कहा है कि “भाषा परिवर्तनशील और गुणाश्रित है ।”
दण्डी, वामन आदि भारतीय आचार्यों ने भी इन गुणों की पर्याप्त विवेचना की है ।
समीक्षक के गुण
प्लेटो के अनुसार समीक्षक में शिक्षा और गुण (Education & virtue) दोनों का उत्कृष्ट होना आवश्यक है । सच्चे समीक्षक के लिए साहस का होना भी आवश्यक है क्योंकि इसके अभाव में वह चाहकर भी सच्ची बात नहीं कह पाएगा।
कला शिल्प का ज्ञान
प्लेटो का मत है कि किसी भी कलाकार को चाहे वह चित्रकार हो, गृह निर्माता हो या कवि हो, उसे अपनी सामग्री का चुनाव और उपयोग बिना समझे-बूझे नहीं करना चाहिए। सच्चे कलाकार का बराबर यही प्रयत्न रहता है कि उसकी रचना को एक निश्चित और प्रभावपूर्ण स्वरूप मिले ।
इसलिए उसे कलाशिल्प की पूरी जानकारी होनी चाहिए । कलाकार को अध्ययन और अभ्यास द्वारा कला का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। प्लेटो ने लिखा है कि “हमारे कलाकार ऐसे होने चाहिए, जिनमें सौन्दर्य और लालित्य की सच्ची प्रकृति देखने की क्षमता हो, तभी हमारे युवक स्वस्थ भूमि में, निर्मल दृश्यों तथा मनोहर ध्वनियों के बीच रह सकेंगे और प्रत्येक वस्तु में अच्छाई देख सकेंगे।”
प्लेटो के दोष
(1) प्लेटो ने काव्य को हृदय का व्यापार नहीं माना। भाव एवं कल्पना के स्थान पर अनुकरण को महत्व दिया ।
(2) प्लेटो कला में निहित सर्जनशीलता को नहीं समझ पाया ।
(3) कला को कला की दृष्टि से न देखकर समाज कल्याण की दृष्टि से परखा है । उसने कला में सुन्दर से अधिक ‘शिव’ पर बल दिया है जो सौन्दर्य शास्त्र की दृष्टि नहीं है ।
(4) प्लेटो ने दर्शन और काव्य के शाश्वत विरोध की बात कहीं है, जबकि दर्शन और काव्यालोचन एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं।
(5) प्लेटो के कलाविषयक विवेचन में पर्याप्त पुनरुक्ति है किन्तु यह पुनरुक्ति संवादों के कारण है लेखक की मर्जी से नहीं ।
निष्कर्ष
प्लेटो के कुछ महत्वपूर्ण विचार इस प्रकार हैं:
(1) काव्य एवं कला के स्वरूप, प्रयोजन तथा प्रभाव से संबद्ध अनेक विचारों के प्राचीनतम उद्भावक प्लेटो हैं ।
(2) प्लेटो की दृष्टि में कला और साहित्य का प्रयोजन एवं मूल्य उसकी सामाजिक उपयोगिता है ।
(3) अनुकरण सिद्धान्त की उद्भावना का श्रेय प्लेटो को है ।
(4) प्लेटो ईश्वरीय प्रेरणा को काव्य की रचना प्रक्रिया का अनिवार्य साधन मानते हैं। व्युत्पत्ति, अभ्यास आदि का महत्व उनकी दृष्टि में नितान्त गौण
(5) विरेचन सिद्धान्त के संकेत भी उनके कथनों में विद्यमान है ।
(6) साहित्य में काव्यगत न्याय (Poetic Justice) के सिद्धान्त के प्रतिष्ठाता प्लेटो हैं।
(7) प्लेटो की तार्किकता प्रखर, अभिव्यंजना प्रांजल तथा शैली आकर्षक है ।

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