सम्राट महाराज पृथ्वीराज चौहान के सामंत और राजकवि के रूप में प्रसिद्ध है ।
माना तो यह भी जाता है कि चन्द
केवल पृथ्वीराज के राजकवि या सामंत ही नहीं बल्कि उनके परम मित्र भी थे। वे षडभाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंदशास्त्र, ज्योतिष, पुराण आदि अनेक विधाओं में पारंगत थे ।
एक प्रसिद्धि यह भी है कि चन्दवरदाई
और पृथ्वीराज चौहान दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ था और मृत्यु भी एक ही दिन ।
चन्दवरदाई की प्रसिद्धि का कारण
उनके द्वारा रचित ढाई हज़ार पृष्ठों का ग्रंथ ‘पृथ्वीराज
रासो’ है ।
‘पृथ्वीराज
रासो’ महाकाव्य में 69 समय (सर्ग या अध्याय) हैं तथा इसमें
68 छंदों का प्रयोग है । मुख्य छंदों में कवित्त, छप्पय, दूहा, त्रोटक, तोमर, गाहा, आर्य आदि हैं ।
‘पृथ्वीराज रासो’ में 69 समय
(सर्ग) हैं। ‘रेवा तट’ समय पृथ्वीराज
रासो का सत्ताइसवाँ समय (सर्ग) है। इसमें दिल्ली के महान् राजा पृथ्वीराज चौहान
तथा शहाबुद्दीन गोरी के रेवा तट पर होने वाले संघर्ष का वर्णन है।
जब शहाबुद्दीन को अपने गुप्तचरों द्वारा ज्ञात होता है कि पृथ्वीराज चौहान
रेवा (नर्मदा) तट के समीप वन आखेट में रत हैं, तो वह अपनी सेना सहित पृथ्वीराज
पर आक्रमण कर देता है, परन्तु पृथ्वीराज चौहान शीघ्र ही मोर्चा संभाल लेते हैं और उसकी सेना को
छिन्न-भिन्न करके उसे (शहाबुद्दीन) बन्दी बना लेते हैं।
अतः स्पष्ट है कि प्रस्तुत सर्ग
में युद्ध का वर्णन है, इसलिए कुछ विद्वान् इस अंश के नामकरण ‘रेवा तट’ पर आपत्ति उठाते हैं, लेकिन इस सर्ग में वर्णित पृथ्वीराज का रेवा तट के समीप किसी वन में
आखेटरत होना तथा शहाबुद्दीन के आक्रमण करने पर उत्साह के साथ उस पर पलटवार करना
आदि घटनाएं इस शंका का निराकरण कर देती है।
‘रेवा तट’ सर्ग
की कथा इस प्रकार है: पृथ्वीराज चौहान के
सेनापति चामण्ड राय द्वारा देवगिरि को जीतने के बाद कवियों ने पृथ्वीराज चौहान की
कीर्ति का बखान किया।
एक दिन चामण्ड राय ने पृथ्वीराज से कहा कि रेवा (नर्मदा नदी) के तट पर
ऐरावत हाथी के समान बहुत से हाथी पाए जाते हैं। अतः आप रेवा तट पर शिकार खेलने
चलें । तभी पृथ्वीराज चौहान ने कवि चन्द से पूछा कि ये देवताओं के वाहन पृथ्वी पर
कैसे आ गए।
कवि चन्दबरदाई ने उत्तर दिया कि हे महाराज! हिमालय के पास एक बहुत बड़ा वट
वृक्ष था, जोकि सौ योजन तक फैला था। एक दिन हाथियों ने विचरण करते हुए उस वृक्ष की
शाखाएँ तोड़ी और ऋषि दीर्घतपा का आश्रम उजाड़ डाला। इस बात से क्रोधित होकर ऋषि ने
मदान्ध हाथियों को श्राप दे दिया। इस कारण हाथी तब से गतिविहीन (धीरे-धीरे चलने
वाले) हो गए। तब मनुष्यों ने उन्हें अपनी सवारी बना लिया।
कवि चन्द ने आगे बताया कि अंगदेश
के एक वन में लोहिताक्ष सरोवर पर उन श्रापित हाथियों का झुण्ड क्रीड़ा करता था। उसी
वन में पालकाव्य ऋषि रहते थे, जिनकी हाथियों से अत्यन्त प्रीति (प्रेम) थी।
राजा पृथ्वीराज ने पूछा कि हे कविराज उन ऋषि की हाथियों से इतनी प्रीति का
कारण क्या था?
कवि ने बताया कि एक बार एक ब्रह्मर्षि को घोर तपस्या में रत देखकर देवराज
इन्द्र डर गए और उनकी तपस्या को भंग करने के उद्देश्य से उन्होंने रम्भा (अप्सरा)
को ऋषि के पास भेजा। ऋषि ने क्रोधित होकर रम्भा को हथिनी होने का श्राप दे दिया।
एक दिन सोते हुए एक मुनि का वीर्यपात हो गया, जिसे उस हथिनी ने खा लिया और
पालकाव्य मुनि का जन्म हुआ। पालकाव्य मुनि इसी कारण हाथियों से प्रीति रखते थे।
पालकाव्य ऋषि और वे श्रापित हाथी एक-दूसरे से बड़ी प्रीति रखते थे। एक दिन
उस वन में राजा रोमपाद शिकार खेलने आया और हाथियों को पकड़कर चम्पापुरी ले गया।
हाथी पालकाव्य से बिछुड़ने के कारण दुर्बल होते चले गए, उनके दीर्घकाय शरीर कृशकाय हो
गए फिर पालकाव्य ऋषि वहाँ आए और उनकी काफी सेवा-सुश्रूषा की कोंपल, पराग, पत्ते, छाल, शाखाएँ आदि खिलाकर ऋषि ने उन्हें स्वस्थ कर दिया, जिससे
सभी हाथी पुनः हृष्ट-पुष्ट हो गए।
कवि चन्द का हाथियों के विषय में यह वृत्तान्त सुनकर राजा पृथ्वीराज को
बड़ा हर्ष हुआ। तभी चामण्ड राय ने पृथ्वीराज से कहा कि हे राजन्! रेवा तट पर बड़े
दाँतों वाले हाथियों के साथ-साथ मार्ग में सिंह भी मिलेंगे। आप उनका भी शिकार कर
सकते हैं। चामण्ड राय ने आगे कहा कि वहाँ पहाड़ों और जलाशयों पर कस्तूरी मृग, कबूतर व अन्य पक्षी भी रहते हैं
और दक्षिण दिशा का सौन्दर्य तो और भी अवर्णनीय है।
यह सुनकर पृथ्वीराज चौहान ने सोचा
कि मेरे वहाँ जाने से जयचन्द को तो ईर्ष्या होगी ही, साथ ही स्थान भी रमणीक है। अतः
चौहान ने रेवा तट की ओर प्रस्थान कर दिया।
वहाँ के सभी राजाओं ने पृथ्वीराज का स्वागत किया और पृथ्वीराज ने भी वहाँ
खूब शिकार का आनन्द लिया। उसी समय लाहौर के शासक चन्द पुण्डीर दाहिम का पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि शहाबुद्दीन
गोरी ने चौहान पर आक्रमण करने के लिए एक बड़ी सेना तैयार की है। चन्द पुण्डीर के
पत्र को पढ़कर चौहान लाहौर की ओर चल दिए।
पृथ्वीराज ने सभी सामन्तों से मन्त्रणा करके गोरी से युद्ध की घोषणा कर दी।
चन्द पुण्डीर ने अपनी सेना को लाहौर में गोरी की सेना को रोकने के लिए सावधान कर
दिया।
पृथ्वीराज ने सामंतों को युद्ध के लिये तैयार किया और लाहौर की ओर कूच
किया। गोरी ने जब चिनाब नदी पार की (8 हज़ार हाथी और 18 लाख घोड़ों के साथ) तब वहाँ चन्द पुंडीर उसे रोकने लिये तैयार खड़ा था।
दोनों दलों में भयंकर युद्ध हुआ। पुंडीर वंशी पाँच वीरों के गिरने के बाद (शहीद
होने के बाद) चन्द पुंडीर ने समर्पण कर दिया, और गोरी चिनाब
से आगे बढ़ गया।
इसी दौरान पृथ्वीराज चौहान के दूतों ने उसे बताया कि तातार मारूफ खाँ (गोरी
का प्रधान सेनापति) लाहौर से केवल पाँच कोस की दूरी पर ही है। यह सुनकर पृथ्वीराज
क्रोधित हो उठे और गोरी को फिर से बाँध लेने की प्रतिज्ञा की।
पंचमी तिथि मंगलवार को पृथ्वीराज ने गोरी पर चढ़ाई की। नगाड़ों के बजते ही
हाथियों के घण्टे घनघना गए। चौहान की सेना के लोहे के बाणों को देखकर गोरी की सेना
घबरा गई। दोनों ओर की सेनाएँ भिड़ गईं।
दोनों ओर से
भयंकर युद्ध शुरू हो गया। समरसिंह, जैत पवार, चामंडराय, हुसैन खाँ आदि गोरी की सेना को
छिन्न-भिन्न कर रहे थे। पृथ्वीराज की सेना चक्रव्यूह बनाकर लड़ रही थी। पहले दिन
सूर्यास्त के बाद युद्ध रुक गया। दूसरे दिन प्रातः कल फिर युद्ध आरंभ हुआ ।
अप्सराएँ देव-लोक छोड़कर युद्ध भूमि पर आईं और मरे हुए वीरों का वरण करने लगीं।
चौहान पक्ष के साथ-साथ गोरी पक्ष के भी अनेक वीर योद्धा मारे गए। रावर
सँभरसिंह, सोलंकी माधवराय, गरुअ गोइंद, पतंग-जयसिंह, चन्द पुण्डीर, कूरम्भ, आहुट्ठ,
लखन, लोहाना आदि बहुत से वीर मारे गए।
चार दिन तक युद्ध निरन्तर चलता रहा। चौथे दिन चौहान के एक योद्धा गुज्जर
(रघुवंशी राम) ने गोरी को पकड़ लिया। सुल्तान गोरी को हाथी पर बाँधकर दिल्ली ले
गया।
वह एक माह और तीन दिन तक पृथ्वीराज की कैद में रहा। शहाबुद्दीन के अमीरों
ने पृथ्वीराज से गोरी को छोड़ने की विनती की और दण्डस्वरूप नौ हजार घोड़े, सात सौ ऐराकी घोड़े, आठ सफेद हाथी, बीस ढली हुई ढालें, गजमुक्ता और अनेक माणिक्य दिए । तत्पश्चात् पृथ्वीराज चौहान ने गोरी से
सन्धि कर ली और पहिना-ओढ़ाकर उसे उसके घर भेज दिया। यहीं ‘रेवा
तट’ सर्ग की कथा समाप्त हो जाती है।
******
उल्लिखित स्थान :
1.
कनवज्ज (कन्नौज), 2. गजनी
(अफगानिस्तान), 3. ढिल्ली (दिल्ली)
4.
देवगिरि (देवगिरि), 5. लाहौर, 6. रेवा (नर्मदा नदी)
नोट : रंभा तथा मेनका (अप्सराएँ) के मध्य
संवाद का भी उल्लेख है।
प्रयुक्त छंद : 1. दूहा (दोहा), 2. कवित्त, 3..अरिल्ल, 4.
गाथा, 5. साटक
6.
कुण्डलिया, 7. छंद कंठशोभा, 8. छंद दंडमाली, 9. छंद मोतीदाम
10.
भुजंगी, 11. छंद रसवाला
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