1960 के बाद लिखी गई कविता साठोत्तरी कविता के नाम से जानी जाती है। साठोत्तरी कविता ‘नई कविता’ का न तो विकास है और न उसका विकसित रूप।
साठोत्तरी कविता एक अलग किस्म की कविता है, जिसका अपना कथ्य और अपना शिल्य है। इसका स्वरूप नई कविता से सर्वथा पृथक् है।
वस्तुतः, साठोत्तरी कविता का अपना अलग अस्तित्व और चेहरा है। डॉ. लक्ष्मीकांत वर्मा लिखते हैं कि “साठोत्तरी पीढ़ी स्वप्न भंग की स्थिति में जन्मी और अपराजेय विवशता के बीच बढ़ी है, पनपी है। नई कविता की पीढ़ी से यह अनेक अर्थों में भिन्न है।”
छठे दशक के आसपास कविता की धारा अपने पूर्ववर्ती नई कविता से अलग कुछ नवीन ढर्रे की ओर उन्मुख और नई करवट लेती हुई दिखाई देती है।
धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, चंद्रकांत देवताले, केदार नाथ सिंह, प्रणब कुमार वंदोपाध्याय, डॉ. विनय, विजयेन्द्र सरीखे अनेक कवियों ने परंपरागत मूल्यों, नैतिक प्रतिमानों को दरकिनार करते हुए धर्म, समाज, नैतिकता, ईश्वर इत्यादि की खिल्ली उड़ाते हुए तत्कालीन राजनीतिक स्थिति, सामाजिक व्यवस्था, सत्तालोलुपता, स्वार्थपरता, क्षेत्रीयता, अनैतिक आचरण इत्यादि को बेनकाब करते हुए सठोत्तरी कविता में आमजन की पीड़ा, निराशा, क्षोभ इत्यादि को नए तेवर एवं नए शिल्प के साथ प्रकट किया गया है ।
1960 ई. के बाद हिंदी कविता के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की कविताओं एवं काव्य-आंदोलनों का प्रवेश हुआ । जो आंदोलन अपेक्षाकृत अधिक स्थिर एवं सुदृढ़ हो पाए, उन्हें तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है :
1. निषेधमूलक कविता : अकविता, अस्वीकृत कविता, ‘भूखी पीढ़ी’ काव्य
2. संघर्षमूलक या वाम कविता : युयुत्सावादी कविता, , नव प्रगतिशील काव्य, प्रतिश्रुत पीढ़ी, जनवादी कविता, आज की कविता
3. आस्थामूलक कविता : सनातन सूर्योदयी कविता, सहज कविता, विचार कविता, समकालीन कविता, कैप्सूल या सूत्र कविता, हास्य-व्यंग्य प्रधान कविता
साठोत्तरी हिंदी कविता की विशेषताएँ
1. समसामयिक दृष्टि
साठोत्तरी कविता में समसामयिक घटनाओं, तथ्यों, विसंगतियों, विडंबनाओं की पुरजोर अभिव्यक्ति हुई है।
साठोत्तरी कवियों ने रोटी, भूख, आवास की समस्या, भ्रष्टाचारी, पुलिस-तंत्र एवं शासन-व्यवस्था, राजनीतिज्ञों के कोरे एवं झूठे आश्वासनों, कानून की पतनोन्मुख एवं लचर व्यवस्था, ग्रामीण एवं शहरी दु्र्गंधाती व्यवस्था, जनसंख्या- वृद्धि, साम्प्रदायिकता की समस्या, पंचवर्षीय योजनाओं की विफलता की कहानी विधायकों एवं सांसदों की खरीद-फरोख्त, घिनौनी राजनीतिक गतिविधियों इत्यादि को अपने काव्य का प्रमुख वर्ण्य-विषय बनाया है।
साथ ही साथ, साठोत्तरी कविता की संवेदना के केंद्र में गाँवों से आकर महानगरों में बसे लोगों के जीवन मूल्यों में आये बदलाव, जीवन में आयी रिक्तता, अलगाव, स्वार्थपरता, अजनबीपन, ऊब, घुटन, एकरसता इत्यादि को भी प्रमुखता से स्थान मिला।
उदाहरण
1. धरती के अंदर का पानी, हमको बाहर लाने दो।
अपनी धरती अपना पानी, अपनी रोटी खाने दो।
रघुवीर सहाय (आत्महत्या के विरुद्ध)
2. मानवता भूखी-नंगी / भूगोल में पढ़ा था?
ध्रुव पर छमाही रात के बाद/होता छह महीने का दिन /
यहाँ तो इंसान की जिंदगी में/ बस, रात ही रात है/ दिन कभी नहीं।
डॉ. तपेश्वरनाथ (सूर्य ग्रहण)
3. यह बस्ती है / इंडिया गेट पर बसी सरकारी कार्यालयों की
पाँच बजते ही यहाँ / थकन, घुटन और ऊब की/बाढ़ आती है।
और सरकारी बसों में लदकर / सारे शहर में फैल जाती है।
रमेश दिविक (एक चित्र)
2. राजनीतिक, सामाजिक यथार्थपरक दृष्टि
साठोत्तरी कविता राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त अमानवीयता, क्रूरता, मूल्यहीनता, निर्ममता, स्वार्थपरता, भ्रष्टाचार इत्यादि का एक बहुरंगी चलचित्र है, जिसका स्वरूप अमानवीय, क्रूर एवं भयावह है।
साठोत्तरी कविता में सामाजिक अंतर्वस्तु की चेतना शोषण, संघर्ष, जिजीविषा इत्यादि के घरातल पर सृजित हुई है तो राजनीतिक संदर्भ की अभिव्यक्ति के अंतर्गत समूचे शासनतंत्र का नंगा नाच, देश का बिखरा हुआ चेहरा, राजनीतिक स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार और उसके विकृत रूप की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
मुक्तिबोध, चंद्रकांत देवताले, रमेश गौड़, रघुवीर सहाय, धूमिल, श्रीकांत वर्मा, राजकमल चौधरी, लीलाधर जगूड़ी इत्यादि अनेक कवियों की रचनाओं में राजनीतिक एवं सामाजिक संदर्भों की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
उदाहरण
1. बच्चे भूखे हैं/माँ के चेहरे
पत्थर/पिता जैसे काठः अपनी ही आग में/जले है ज्यों सारा घर।
धूमिल (कल सुनना मुझे)
2. न कोई प्रजा न कोई तंत्र है, यह आदमी के खिलाफ
आदमी का खुला सा षडयंत्र है।
सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र
3. सिंहासन ऊँचा है सभाध्यक्ष छोटा
अगणित पिताओं के एक परिवार के मुँह बाय बैठे हैं
लड़के सरकार के लूले काने विविध प्रकार के हैं
रघुवीर सहाय
3. पारिवारिक विघटन
साठोत्तरी कविता के फलक में पारिवारिक विघटन के चित्र भी नग्न यथार्थवादी धरातल पर चित्रित किये गये हैं।
संयुक्त परिवार के विघटन और एकल परिवार की प्रवृत्ति के फलस्वरूप साठोत्तरी कविता में पारिवारिक सौहार्द का अभाव, भाई-भाई में रक्तपात, पति-पत्नी संबंधों में तनाव, विवाह की अर्थहीनता, उन्मुक्त भोग की पक्षधरता, पातिव्रत और नैतिकता का ह्रास, विवाह का एक लाइसेंस मात्र बनकर रह जाना इत्यादि का चित्रण बहुल रूप में हुआ है।
जगदीश चतुर्वेदी ने पति-पत्नी के सार्थक संबंधों के स्थान पर आये बदलाव के औपचारिक संबंध को इस प्रकार वाणी दी है-
हर शादीशुदा मर्द कायर है/ हर शादीशुदा नारी फ्रस्ट्रेडेड है
क्योंकि वे एक दूसरे को प्यार नहीं करते…..
औपचारिकता
के परिवेश में / सोचते रहते हैं एक दूसरे को /
जहर देने की बात।
4. यौन-संबंधों का खुला चित्रण
साठोत्तरी कविता यौन-संबंधों का एक खुला दस्तावेज है, जिसमें जंघाओं, स्तनों, योनियों, लिंगों, संभोगों इत्यादि का खुल्लम-खुल्ला
चित्रण मिलता है।
‘बीट’ और ‘हिप्पी’ पीढ़ी में भोगवाद, आत्मरति, यौनाकर्षण, समलैंगिकता और परमसुख भोग की जो प्रवृत्ति थी, उसे साठोत्तरी कविता में
प्रमुखता से चित्रित किया गया। यौन-व्यापारों को घृणित शब्दावली देने में अकविता के कवियों ने रिकार्ड बनाया।
यौन-संबंधों के कुछ उदाहरण देखें-
1. सुबह से दिन डूबने तक /
मैं इंतजार करती हूँ रात का/
जब हम दोनों एक ही कोने में सिमटकर /
एक दूसरे को कुत्ते की तरह चाटेंगे।
मणिका मोहिनी
2. औरतें कुतियों की तरह बिछ जायेंगी सड़कों पर/
जिस्म नुचवाने के लिए, उन्हें साँड़ खूदेंगे हॉफते हुए /
पूरा शहर उस मैथुन-रत/
चील के आर्त्तनाद में डूब जायेगा।
चंद्रकांत देवताले, दृश्य
3. इक्कीसवीं शताब्दी के/ इस बेरौनक गोचर
लोकतंत्र में जब जीना है /
तो वेश्या की सार्वजनिक योनि से संभोग करना है।
लीलाधर जगूड़ी
5. विसंगतियों एवं विडंबनाओं का चित्रण
साठोत्तरी कविता परिवेश से उपजी हुई वह कविता है, जो विसंगति एवं विडंबनापूर्णता की कहानी है।
श्रीकांत वर्मा, दूधनाथ सिंह, चंद्रकांत देवताले, सौमित्र मोहन, धूमिल इत्यादि ने अपनी कविताओं में समाज की भयावह यथार्थ विसंगतियों एवं विडंबनाओं का लेखा-जोखा अनुभूति के धरातल पर प्रस्तुत किया है।
धूमिल संघर्षशील एवं जुझारू कवि हैं तभी वह विसंगतियों विडंबनाओं से टकराते हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :
1.एक ही संविधान के नीचे / भूख से
रिरियाती फैली हुई हथेली का नाम/
बिहार है और भूख से तनी हुई /मुट्ठी का नाम नक्सलबाड़ी।
‘पटकथा’ – धूमिल
2. बुद्ध की आँखों से खून चू रहा था/नगर के मुख्य चौरासते पर /
शोक प्रस्ताव पारित हुए/हिजडों ने भाषण दिए/लिंग बोध पर/
वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ीं / आत्मशोध पर।
‘कल सुनना मुझे’ – धूमिल
रघुवीर सहाय ने ‘अभिनेत्री’ शीर्षक कविता में स्त्री की विडंबना को इस प्रकार वाणी दी है, जो उसे पूँजीवादी एवं पुरुषप्रधान समाज ने दी है-
इस समाज में औरत की विडंबना
हरबार उसे मरना होता है
टूटा हुआ बचाती है
वह अपने भीतर टूट-फूट के बदले नया रचाती है।
6. विद्रोहात्मक स्वर
साठोत्तरी हिंदी कविता में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, शासनतंत्र में जड़ता-निष्क्रियता, विसंगतियों, विडंबनाओं इत्यादि के विरुद्ध आक्रोश एवं विद्रोह का तेवर बड़ी तल्खी के साथ प्रकट हुआ है।
धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, वेणु गोपाल, कमलेश, विष्णु खरे, देवेन्द्र कुमार, श्याम विमल इत्यादि साठोत्तरी कवियों ने विद्रोह एवं आक्रोश की जो आग साठोत्तरी कविता में अभिव्यक्त की है, वह एक विशिष्ट प्रवृत्ति है।
उदाहरण
1. क्या आजादी
सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है,
या इसका कोई खास मतलब
होता है।
– धूमिल
2. उदास लोगों, उठो और फैसला दो उठो
और जिसने कल तुम्हें कुचला था उसे घोड़े की नाल बना दो।
– लीलाधर जगूड़ी
3. कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा न
टूटे न टूटे तिलस्म सत्ता का
मेरे अंदर एक कायर टूटेगा टूट
मेरे मन टूटे एक बार सही तरह।
– रघुवीर सहाय
वस्तुतः, साठोत्तरी कविता का परिवेश विद्रोह का परिवेश रहा है, जिसके फलस्वरूप साठोत्तरी कविता में सामाजिक, राजनीतिक,
आर्थिक परिवेश के प्रति विद्रोहात्मकता का उग्र भाव है।
7. व्यंग्यात्मकता
सठोत्तरी हिंदी कविता में व्यंग्य की धार अत्यंत उग्र एवं पैनी है । सठोत्तरी कविता में कचहरी, नेता, व्यवस्था, पूँजीपति, राजनीति, साहित्यकार, रुपए के अवमूल्यन, राजनीतिक भ्रष्टाचार इत्यादि विभिन्न विषयों को व्यंग्य का विषय बनाया गया है ।
व्यंग्य की पृष्ठभूमि पूर्ववर्ती काव्यों में भी मिलती है किन्तु सठोत्तरी काव्य में व्यंग्य की ऐसी पैनी धार है कि वह तिलमिला देने वाला है ।
साठोत्तरी कविता में विविध पक्षों पर किए गए व्यंग्य के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं –
1. कचहरी एक ऐसी उपजाऊ जमीन है
जहाँ लाकर एक काठ डाल दो और कुछ समय बाद
उसमें अंखुए फूट निकलेंगे।
– धूमिल
2. संसद तेल की वह घानी है, जिसमें आधा तेल और आधा पानी है।
– धूमिल
3. जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है।
– धूमिल
4. एक जमाना था जब एक कवि ने गोबर से गणेश बनाया था
मैं इस आदमी को कैसे बनाऊँ ?
क्या मैं इस पर नेता का चेहरा लगा दूँ।
‘नाटक जारी है’ – लीलाधर जगूड़ी
8. साठोत्तरी हिंदी कविता की शिल्पगत विशेषताएँ
सठोत्तरी हिंदी कविता की शिल्पगत विशेषताएँ निम्नानुसार हैं :
(1) भाषा
साठोत्तरी काव्य में परंपरागत भाषा को जड़, अर्थहीन और अपर्याप्त मानते हुए सर्वथा नयी भाषा की वकालत की गई है।
रघुवीर सहाय ने कहा कि भाषा कोरे और झूठे वायदों से भ्रष्ट हो गई है। धूमिल ने भी पुरानी एवं पेशेवर भाषा को व्यर्थ बताया है।
समकालीन कविता कवियों के अनुभव की आंच से तपकर निकली कविता है, इसलिए साठोत्तरी कविता की भाषा रोजमर्रा की चालू भाषा है, जिसमें साफगोई और सपाटबयानी की अद्भुत विशेषता है।
अशोक वाजपेयी ने सपाटबयानी का नामकरण ‘फिलहाल’ में किया है – “नयी कविता के अतिशय बिंबों, शब्दाडम्बरों के भार से कविता दबती जा रही थी और उसी की रक्षा हेतु सपाटबयानी आयी। सपाटबयानी भाषा जीवन के गंभीर सत्य को बड़ी ईमानदारी के साथ सरल भाषा में प्रकट करती है किन्तु उसका प्रभाव बड़ा पैना, अक्रामक एवं तीव्र होता है।” यथा –
करछुल/बटलोही
से बतियाती है और चिमटा /
तवे से मचलता है/ चूल्हा कुछ नहीं बोलता /
चुपचाप जलता है और जलता रहता है।
किस्सा जनतंत्र – सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’
(2) मुहावरा
साठोत्तरी कवियों ने अपने काव्य की रोजमर्रा की चालू भाषा में मुहावरों का गहरा रंग भरकर भाषा को सपाट, खुरदरी एवं प्रहारक बनाया है। यह साठोत्तरी काव्यभाषा की महत्तम उपलब्धि है।
साठोत्तरी कविता के मुहावरों में लोकरंगों की भी अजब छटा है। धूमिल के काव्य में मुहावरों का नवीन रूप देखते ही बनता है तभी तो डॉ. नामवर सिंह का मत है कि धूमिल के मुहावरों पर शोध किया जाना चाहिए।
धूमिल के कुछ नवीन मुहावरे इस प्रकार हैं-
1. महुए के फूल पर मूतना।
2. घास की सट्टी में छोड़ना।
3. फटे हुए दूध-सा सेना।
4. भाषा को हींकना इत्यादि।
(3) सूक्ति
साठोत्तरी काव्य की सरल, सहज, जनभाषा में सूक्तियों का भी प्रचुर प्रयोग मिलता है।
लीलाधर जगूड़ी की प्रायः हर कविता सूक्तियों के अनमोल रत्नों का खजाना है।
उदाहरण
1. मैं उस रास्ते का मुसाफिर हूँ जिसमें
अपनी जगह खड़े रहकर आगे बढ़ा जाता है। (घबराये हुए शब्द-पेड़ की आजादी)
2. हिंदुस्तान के साहित्यकार टटपुंजिये
होते हैं। भारत माँ के साथ रात-दिन सोते हैं। (रात अब भी मौजूद है)
3. हमारे लिए जनता ही सबसे बड़ा रोग है। (रात अब भी मौजूद है)
(4) शब्द-चयन
धूमिल ने लिखा है कि – छायावाद के कवि शब्दों को तोलकर रखते हैं, प्रयोगवाद के कवि शब्दों को टटोलकर रखते हैं और नयी
कविता के कवि शब्दों को गोलकर रखते हैं तथा सन् साठ के बाद के नए कवि शब्दों को खोलकर रखते हैं।
साठोत्तरी कविता के शब्द-चयन का कैनवास अत्यधिक विस्तृत है। साठोत्तरी कविता के फलक में आम जीवन, राजनीति, लोकजीवन, यौन-संबंध एवं एवं अन्यानय शब्दों की भरमार है।
उदाहरण
राजनीति शब्दावली – संविधान, स्वतंत्रता, मतदान, जुलूस, लोकतंत्र, प्रजातंत्र इत्यादि। आत्मजीवन की शब्दावली- लिट्टी, नून इत्यादि।
आत्मजीवन की शब्दावली – लिट्टी, नून आदि।
लोकजीवन की शब्दावली – टेलीफून, डुगडुगी, कलछुल, बटलोही इत्यादि।
यौन-संबंध की शब्दावली – वीर्यपात, लिंग, योनि, गर्भपात, रजस्वला, मैथुन इत्यादि।
(5) प्रतीक
साठोत्तरी कविता में प्रतीकों का बहुत प्रयोग हुआ। साठोत्तरी कवियों ने महानगरीय जीवन की विषमताओं, स्त्री-पुरुष संबंधों, जीवन की
भयावह स्थितियों, राजनीतिज्ञों, पूँजीपतियों इत्यादि को अपने प्रतीकों का विषय बनाया है।
साठोत्तरी कवियों के प्रतीकों में नवीनता, ताजगी और शिष्ट-सौंदर्य की समृद्धि है।
अकविता के कवियों ने व्यक्ति की कुंठा के लिए सांप, बिच्छु, रीछ, चमगादड़, मकड़ी, छिपकली. बनविलाव इत्यादि का प्रतीकों के रूप में वर्णन किया है।
साठोत्तरी कविता में भाषिक प्रतीक के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
1. मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का/
सबसे बड़ा बौद्ध मठ
बारुद का सबसे बड़ा गोदाम है।
– धूमिल।
2. लैम्प – पोस्टों की पीली
रोशनी संक्रामक है,
गर्भवती हो गयी है अस्पताल की सारी नर्सें
– राजकमल चौधरी
3. पहले से और अधिक अंधकार गहरा
कहीं धरें पाँव यहाँ साँपों का पहरा है।
– लीलाधर जगूड़ी
धूमिल के काव्य में राजनीतिक प्रतीक सर्वाधिक हैं। धूमिल के उक्त उदाहरण में राजनीतिक प्रतीक की बड़ी सुंदर व्यंजना हुई है कि शांति और अहिंसा का संदेश देनेवाला चीन युद्ध के लिए बम का निर्माण करने लगा है।
राजकमल चौधरी ने रंगों का प्रयोग परंपरागत अर्थों से भिन्न रूप में किया है। नीला रंग उनकी कविता में मृत्यु, मुक्ति, नदी के प्रतीक रूप में व्यवहृत हुआ है तथा पीला रंग अनैतिक यौन व्यापार के प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
लीलाधर जगूड़ी की उक्त पंक्तियों में ‘सांप’ राजनीतिज्ञ, पूंजीपति एवं व्यवस्था के जिम्मेदार व्यक्तियों का प्रतीक है।
(6) बिंब-विधान
1960 के बाद कविता में बिंबात्मकता का मोह टूटने लगता है। लक्ष्मीकांत वर्मा ने बिंबों के मोट के टूटने संकेत करते हुए लिखा है कि –“भाषा और बिंबों की यह निरर्थकता ही हमें अब नंगे शब्दों की ओर ले जा रही है। ताजी कविता जिस भाषा की खोज में है, वह नंगी भाषा है- आवरणहीन, सज्जाहीन संस्कारहीन और इन सबसे अधिक ऐसा नंगापन जिसमें अभिजात्य जंगलीपन के ऊपर एक समय बोध की छाप लगा सके।”
साठोत्तरी कविता बिंब-विधान की दृष्टि से पूरी तरह से शून्य भी नहीं है। साठोत्तरी कविता में बिंबों के प्रमुख रूप ही प्रायः चित्रित हुए है, जिसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
1. राजनीति से संबंधित बिंब और 2. सेक्स से संबंधित बिंब।
साठोत्तरी कविता के बिंब-विधान के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :
दृश्य-बिंब
रोती हुई एक अबोध कन्या….
अथवा / कालीघाटी मंदिर के सामने पाँवों में चिथड़े लपेटकर
फैलाये हुए अपने दोनों नन्हें हाथ / अथवा प्रेमचंद बोराल स्ट्रीट में/
अपनी जाँघों का कच्चा मांस बेचती हुई /अथवा रोती हुई सो गई।
– राजकमल चौधरी
अर्मूत-बिंब
एक रंग होता है नीला /
और वह जो देह पर नीला होता है।
– रघुवीर सहाय
घ्राण-बिंब
खूशबू निकलती है या उसके प्राण/
या जितने तक उसके प्राण निकलते हैं।
खूशबू फैल जाती है।
– लीलाधर जगूड़ी
स्पर्श-बिंब
एक चीकट कंघी और देह के
अंदर की टूट।
– रघुवीर सहाय
निष्कर्ष
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि साठोत्तरी कविता ने शिल्प के धरातल पर जिस जनभाषा और व्यंग्पूर्ण तथा शिल्पगत अन्यान्य प्रयोग का विधान किया है, वह इसकी विशिष्ट उपलब्धि है।
साठोत्तरी कविता की भाषा की गद्योन्मुखता इसकी विशिष्ट पहचान है। छिनाल मौसम, बेरोजगार मौसम, बदमिजाज मौसम इत्यादि मानवीकरण का प्रयोग साठोत्तरी कविता की अभिव्यंजना-पद्धति में नवीन रंग भरते हैं।
साठोत्तरी काव्यभाषा अभिधात्मक होते हुए भी बड़ी प्रभावपूर्ण, मारक एवं चुटीली है। भाषा, प्रतीक, बिंब, उपमान, मुहावरे इत्यादि साठोत्तरी काव्य में उसके कथ्य के अनुकूल अभिव्यंजित हुए हैं।

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