अमीर खुसरो की हिंदी कविता | Amir Khusro ki Hindi Kavita

अमीर खुसरो का वास्तविक नाम ‘अब्दुल हसन’ था और ये ‘निजामुद्दीन औलिया’ के शिष्य थे । अमीर खुसरो मुख्य रूप से फारसी के कवि थे।

 

अमीर खुसरो की हिंदी कविता | Amir Khusro ki Hindi Kavita
Amir Khusro ki Hindi Kavita

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अमीर खुसरो का समय 1255 से 1324 ई. तक है । 1283 ई. में अमीर खुसरो ने रचना आरंभ की ।

अमीर खुसरो खड़ी बोली हिंदी के प्रथम कवि माने जाते हैं।

उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली कस्बे में अमीर खुसरो का जन्म हुआ है। इन्होंने गुलामवंश का पतन, खिलजी वंश का उत्थान, तुगलक वंश का आरम्भ देखा था। इनके जीवनकाल में दिल्ली के शासन पर ग्यारह सुल्तान बैठे।

अमीर खुसरो एक सहृदय, उदार, स्वभाव से मिलनसार और विनोदी व्यक्ति थे। इनमें साम्प्रदायिक कट्टरता नहीं थी। ये फारसी के श्रेष्ठ कवि थे।

 डॉ. ईश्वरीप्रसाद के अनुसार “ये कवि, योद्धा और क्रियाशील मनुष्य थे।”

 इनके गुरु निजामुद्दीन औलिया थे, जिनकी मृत्यु संवत् 1324 में हुई, उसी वर्ष इनकी भी मृत्यु हुई।

   

 गुरु की मृत्यु पर अमीर खुसरो ने निम्न दोहा पढ़ा था :

 गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस ।

चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस ।

आदिकाल में सर्वाधिक रचनाओं के प्रणयन का श्रेय कदाचित् इन्हें ही प्राप्त है।

वे कलाकार, संगीतज्ञ, शायर और सैनिक भी थे। खुसरो का संपूर्ण जीवन राजाश्रय में बीता।  उन्होंने गुलाम, खिलजी और तुगलक आदि तीन अफगान राजवंशों और 11 सुलतानों को देखा।

“अमीर खुसरो बलबन के दरबारी कवि थे। ये बलबन के दरबार में उसके पुत्र मुहम्मद के काव्य-विनोद के लिए नौकर रखे गये थे फिर धीरे-धीरे बढ़कर राजकवि हो गये” (डॉ. रामकुमार वर्मा)

जलालुद्दीन खिलजी ने खुसरो को अमीर की उपाधि दी तो इसके हत्यारे भतीजे अलाउद्दीन ने राजकवि की उपाधि दी।

अमीर खुसरो की रचनाएँ :

खुसरो की अधिकांश रचनाएँ अलाउद्दीन के राज्यकाल की हैं । 1298 से 1301 ई. तक इन्होंने 5 रोमांटिक मसनबियाँ (जो पंचगंजनाम से प्रसिद्ध हैं ) लिखीं।

मुपेसिपहमसनबी में उन्होंने भारत की प्रशंसा की है और स्वयं को हिंदुस्तान का तूती कहा है ।

 ये मसनबियाँ उनके धर्मगुरु शेख निजामुद्दीन औलिया को समर्पित हैं।

खुसरो के 2 गद्य-ग्रंथ खजाइनुल फतह(अलाउद्दीन की विजयगाथा) और एजाजयेखुसरवी (अलंकार- ग्रंथ) भी प्रसिद्ध हैं।

खुसरो प्रथम ऐसे मुस्लिम कवि हुए, जिन्होंने हिंदी, हिंदवी और फारसी में एक साथ लिखा सर्वप्रथम हिंदवी शब्द के प्रयोक्ता (प्रयोग करने वाले) अमीर खुसरो ही थे।

अमीर खुसरो खड़ी बोली हिंदी के प्रथम कवि हैं ।  हिंदी में उन्होंने पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सखुने, ढकोसले और गजलें लिखीं।

उनका अरबी-फारसी-हिंदी शब्दकोश खालिकबारीभी अत्यन्त प्रसिद्ध है। खुसरो ने खालिकबारीलिखकर अरबी, फारसी और हिंदी की त्रिवेणी को जन्म दिया।

 आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि- “खुसरो की हिंदी रचनाओं में दो प्रकार की भाषा पायी जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल पहेलियाँ, मुकरियों और दो सखुनों में ही मिलती है – यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रजभाषा की झलक है । पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुख-प्रचलित काव्यभाषा ही है ।”

खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरंजन करना था ।

खड़ी बोली में खुसरो की पहेलियों के उदाहरण निम्नलिखित हैं:

पहेलियाँ

1.एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा गिरा।

 चारों ओर वह थाली फिरे । मोती उससे एक न गिरे।। (आकाश)

2.एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया।

जो जो साँप ताल को खाए। सूखे ताल साँप मर जाए।  (दिया बत्ती)

3. एक नार दो को ले बैठी । टेढ़ी होके बिल में पैठी ।

जिसके बैठे उसे सुहाय । खुसरो उसके बल बल जाय।  (पायजामा)

4. अरथ तो इसका बूझेगा। मुँह देखो तो सूझेगा । (दर्पण)

दो-सखुने

पान क्यों सड़ा ?

घोड़ा क्यों अड़ा ?
फेरा न था ।

मुकरियाँ

नित मेरे घर
आवत है रात गए फिर जावत है।।

फँसत अमावस
गोरि के फंदा
, ऐ सखि साजन, ना सखि चंदा ।।

 भाव की दृष्टि से खुसरो का महत्त्व भले ही न हो, परन्तु भाषा (खड़ी बोली के प्रथम कवि) की दृष्टि से उनका योगदान अविस्मरणीय है।

  खुसरो को अमीर की उपाधि जलालुद्दीन खिलजी ने राजकवि की उपाधि अलाउद्दीन खिलजी एवं बुलबुले हजार दास्तान की उपाधि बुगरा खान ने दे दी थी।

अमीर खुसरो के नाम पर सौ पुस्तकें लिखी बताई जाती हैं जिनमें कई लाख शेर थे। अब केवल 20-21 ग्रंथ प्राप्त हैं। उनकी फारसी रचनायें तो मिलती हैं पर खड़ी बोली की रचनाएँ अधिकांशतः नष्ट हो गयी हैं। कुछ लोगों का कहना है कि स्वयं खुसरों ने खड़ी बोली की रचनाओं को महत्त्व नहीं दिया, मित्रों में बाँट दिया- “जुज्बेचन्द नज्में हिन्दवी नस्ते दोस्ताँ कर्रा शुद।”

 इनकी रचनाओं में (1) किस्सा चाह दरवेश (2) खलिकबारी विशेष उल्लेखनीय है।

 इनका तुर्की, अरबी, फारसी और हिंदी का पर्यायकोश नामक ग्रंथ भी बड़ा प्रसिद्ध है।

इसके अलावा पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने, गजल आदि भी विशेष लोकप्रिय हैं। इन्होंने कई शेर लिखे जिनकी संख्या लाखों बताई जाती है।

अमीर खुसरो की भाषा 

अमीर खुसरो खड़ी बोली हिंदी को काव्य की भाषा बनाने वाले पहले कवि हैं। अमीर खुसरो के साहित्य से भाषाशास्त्र में प्रचलित एक मजेदार भ्रम का निवारण हो जाता है कि हिंदी का जन्म उर्दू से नहीं बल्कि उर्दू हिंदी की एक शैली मात्र है। उन्होंने फारसी भाषा में भी ग्रंथ लिखे।

खुसरो द्वारा दिए गए ऐतिहासिक तथ्य

खुसरो ने अपने ग्रंथ में जो ऐतिहासिक विवरण दिया है, वे अपेक्षाकृत विश्वसनीय हैं। उन्होंने केवल ऐतिहासिक घटनाओं का ही परम्परागत ब्यौरा नहीं दिया बल्कि तत्कालीन सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी सजीव अंकन किया है, तत्कालीन सुलतानों का इतिहास भी इनके साहित्य में सुरक्षित है। उनकी फारसी भाषा में निबद्ध मसनवी, खिज्रनामा इस दिशा में अत्यन्त विश्वसनीय है।

खुसरो का गवैया रूप

अमीर खुसरो प्रसिद्ध गवैये भी थे। ध्रुपद के स्थान पर कौल या कव्वाली बनाकर इन्होंने बहुत से नये राग निकाले थे। कहा जाता है कि बीन के तारों को घटाकर इन्होंने ही सितार बनाया था।

अमीर खुसरो के संबंध में विद्वानों के विचार

 अमीर खुसरो के सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है, “खुसरो के समय में बोलचाल की स्वाभाविक भाषा घिस कर बहुत कुछ उसी रूप में आ गई थी जिस रूप में खुसरो में मिलती है। कबीर की अपेक्षा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक रहा है। खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरंजन था पर कबीर धर्मोपदेशक थे। अतः बानी पोथियों की भाषा का सहारा कुछ न कुछ खुसरो की अपेक्षा अधिक लिये हुए हैं।  (हिंदी साहित्य का इतिहास)

 खुसरो के सम्बन्ध में डॉ. रामकुमार वर्मा का मत- “उसमें न तो हृदय की परिस्थितियों का चित्रण है और न कोई संदेश ही, यह केवल मनोरंजन की सामग्री है। जीवन की गम्भीरता से ऊबकर कोई भी व्यक्ति उससे विनोद पा सकता है। पहेलियों, मुकरियों और सखुनों के द्वारा उन्होंने कौतूहल और विनोद की सृष्टि की है। कहीं-कहीं तो उस विनोद में अश्लीलता भी आ गई है। उन्होंने दरबारी वातावरण में रहकर चलती हुई बोली से हास्य की सृष्टि करते हुए हमारे हृदय को प्रसन्न करने की चेष्टा की है। खुसरो की कविता का उद्देश्य यहीं समाप्त हो जाता है।” (हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास)

खुसरो के सम्बन्ध में डॉ. रामकुमार वर्मा का मत -“चारणकालीन रक्तरंजित इतिहास में जब पश्चिम के चारणों की डिंगल कविता उद्द्धृत स्वरों में गूँज रही थी और उसकी प्रतिध्वनि और भी उग्र थी, पूर्व में गोरखनाथ की गम्भीर धार्मिक प्रवृत्ति आत्मानुशासन की शिक्षा दे रही थी, उस काल में अमीर खुसरो की विनोदपूर्ण प्रकृति हिंदी साहित्य के इतिहास की एक महान् निधि है। मनोरंजन और रसिकता का अवतार यह कवि अमीर खुसरो अपनी मौलिकता के कारण सदैव स्मरणीय रहेगा।” (हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास)

 खुसरो को हिंदी पर गर्व था। उनका कहना था -“मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ, अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो जिसमें कि मैं कुछ अद्भुत बातें बता सकूँ।”

कहा जाता है कि वे बड़े विनोदी और सहृदय व्यक्ति थे। जनजीवन के साथ घुलमिल कर काव्यरचना करने वाले कवियों में खुसरो का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने जनता के मनोरंजन के लिए पहेलियां और मुकरियां लिखी थीं।

आदिकाल में खड़ी बोली को काव्य की भाषा बनाने वाले वे पहले कवि हैं। उनके द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या सौ बतायी जाती है, जिनमें अब बीस-इक्कीस ही उपलब्ध हैं।

खालिकबारी’, ‘पहेलियां’, ‘मुकरियां’, ‘दो सुखने, ‘ग़ज़लआदि उनमें अधिक प्रसिद्ध हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि अमीर खुसरो नामक कई व्यक्ति हुए हैं, अतः इन सब रचनाओं को पहेलीकार अमीर खुसरो की रचनाएं मानना एक भ्रम है।

 कुछ भी हो, आदिकाल में जो अमीर खुसरो हुए थे, उनकी पहेलियां और मुकरियां ही प्रसिद्ध हैं, जिनमें मनोरंजन और जीवन पर गहरे व्यंग्य एक साथ देखने को मिलते हैं।

अमीर खुसरो को भाव की गहराई की दृष्टि से भले ही महत्त्व न दिया जाये, किंतु भाषा की दृष्टि से उनकी पहेलियां साहित्य के इतिहास का सदा एक महत्त्वपूर्ण अंग रहेंगी।

 वस्तुतः उनके काव्य में खड़ी बोली काव्यभाषा बनने का सफल प्रयास कर रही थी। उनकी भाषा के ऐतिहासिक महत्त्व को समझने के लिए एक पहेली यहाँ प्रस्तुत है :

 

तरवर से इक तिरिया उतरी,
उनने बहुत रिझाया।

 बाप का उसने नाम जो पूछा,
आधा नाम बताया ॥

 

आधा नाम पिता पर प्यारा,
बूझ पहेली गोरी ।

अमीर खुसरो यों कहे,
अपने नाम न बोली- निबोरी

पहेली रचना की इस शैली का हिंदी काव्य में आगे विस्तार नहीं हुआ, किंतु रहस्य प्रवृत्ति के विकास पर उसका प्रभाव अवश्य पड़ा। चमत्कार और कुतूहल की प्रवृत्तियां भी खुसरो की प्रेरणा से हिंदी काव्य में विशेष स्थान पाने लगीं। फलतः रीतिकाल में कुतूहल- काव्यों की एक लंबी परंपरा चली, जिसका अभी तक किसी ने अध्ययन नहीं किया है।

निष्कर्ष

अमीर खुसरो को जिस ढंग के दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में प्रचलित मिलीं उसी ढंग के पद्य, पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उक्तिवैचित्र्य की प्रधानता थी, यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।

 खुसरो की हिंदी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पायी जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल, पहेलियों, मुकरियों और दो सखुनों में ही मिलती है यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रजभाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुख-प्रचलित काव्यभाषा ही है। यही ब्रजभाषा देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रो. आजाद को यह भ्रम हुआ कि ब्रजभाषा से खड़ी बोली (अर्थात् उसका अरबी-फारसी ग्रस्त रूप उर्दू निकल पड़ी।

खुसरो के नाम पर संगृहीत पहेलियों में कुछ प्रक्षिप्त और पीछे की जोड़ी पहेलियाँ भी मिल गयी हैं, इसमें संदेह नहीं।

कबीर की अपेक्षा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक था। खुसरो का मुख्यलक्ष्य जनता का मनोरंजन था। 

 

*****

 

नीचे खुसरो की कुछ पहेलियाँ, दोहे और गीत दिए गए हैं- (परीक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण)

 

एक थाल मोती से भरा । सबके सिर पर औंधा धरा ।।

चारों ओर वह थाली फिरे। मोती उससे एक न गिरे।। (आकाश)

 एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया ।।

जों-जों साँप ताल को खाए। सूखे ताल साँप मर जाए।। (दिया-बत्ती)

एक नार दो को ले बैठी। टेढ़ी होके बिल में पैठी ।।

जिसके बैठे उसे सुहाय । खुसरो उसके बल-बल जाय।। (पायजामा)

 

अरथ तो इसका बूझेगा। मुँह देखो तो सूझेगा ।। (दर्पण)

 

ग़ज़ल

जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।

कि ताबे हिज्राँ न दारम, ऐ जाँ ! न लेहु काहें लगाय छतियाँ।
शबाने हिज्राँ दराज चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ
उम्र कोतह । सखी! पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ।। 

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