रीतिकालीन कवियों का आचार्यत्व | Ritikalin kaviyon ka acharyatva

हिंदी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल को पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल के रूप में विभाजित किया गया है। आचार्य शुक्ल ने पूर्व मध्यकाल को ‘भक्तिकाल’ की संज्ञा दी है और उत्तर मध्यकाल को ‘रीतिकाल’ की।

निश्चय ही ‘रीतिकाल’ नामकरण इस बात का संकेत देता है कि इस दौर में रीति-निरूपण की प्रधानता थी। आचार्य शुक्ल ने इसके लिए संवत् 1700 से संवत् 1900 तक के कालखंड का निर्धारण किया है, लेकिन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे संशोधित करते हुए 17वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी के मध्य तक की काल सीमा रीतिकाल के लिए निर्धारित करते हैं।

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे ‘श्रृंगार काल’ की संज्ञा दी है और आचार्य शुक्ल को भी इस नाम में आपत्ति नहीं है। यह इस बात का संकेत है कि इस दौर में रीति-निरूपण के अलावा श्रृंगारिकता की प्रवृत्ति प्रधान थी।

लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि इस दौर में अन्य प्रवृत्तियाँ मिलती ही नहीं। यहाँ एक ओर भक्तिकालीन भक्ति की परंपरा का विस्तार दिखता है, तो दूसरी ओर आदिकालीन वीर-काव्य की परंपरा एक बार पुनः अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। साथ ही, नीति से संबंधित रचनाओं को स्वतंत्र रूप से लिखे जाने की प्रवृत्ति भी इस दौर में देखने को मिलती है।

‘रीति’ से आशय

‘रीति’ शब्द का उल्लेख प्रथमतः हमें संस्कृत काव्यशास्त्र में मिलता है। वहाँ छः काव्य संप्रदायों में रीति संप्रदाय भी शामिल था। इस संप्रदाय से जुड़े हुए आचार्य कविता की संवेदना के बजाय उसके बाह्य आकार को ही काव्य की आत्मा मानते थे। इसलिए उनका जोर रस, अलंकार, शब्द-शक्ति, शब्द सामर्थ्य, गुण-दोष, छंद आदि पर था। इस संप्रदाय का संबंध आचार्य वामन से जोड़ा जाता है। ‘रीति’ शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य वामन ने इसे विशिष्ट पद-रचना पद्धति बतलाया है। उनकी दृष्टि में शब्दों की सुंदर सजावट ही रीति है।

आचार्य वामन बतलाया कि “रचना का वह प्रकार जो दोषों से मुक्त हो, गुणों से अनिवार्यतः एवं अलंकारों से सामान्यतः संपन्न हो, वह रीति है।”

आगे चलकर आचार्य भोज ने रीति को कविता करने की विधि बतलाई। यही से रीति शब्द का आगमन हिंदी साहित्य में होता है।

हिंदी  साहित्य में रीति शब्द का पहला प्रयोग केशवदास के यहाँ देखने को मिलता है। उनके यहाँ रीति शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया गया है- विशेष प्रकार की परिपाटी के अर्थ में और काव्यशास्त्र के समानार्थी के रूप में। वे अलंकार-रीति, काव्य-रीति, रस-रीति आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं।

लेकिन, हिंदी  साहित्य जगत में ‘रीति’ शब्द को विशेष प्रकार के परिपाटी के अर्थ में ही स्वीकार किया गया है। यहाँ रीति शब्द को काव्यशास्त्र का समानार्थी नहीं माना गया है। कारण यह कि रीतिकालीन रीतिनिरूपक आचार्य सभी काव्यांगों में अपनी रूचि नहीं प्रदर्शित करते, उनका लगाव वैसे काव्यांगों से था जो उक्ति-वैचित्र्य और शब्द-चमत्कार में सहायक थे।

साथ ही, इनके यहाँ न केवल मौलिकता का अभाव है वरन् इनकी प्रतिबद्धता भी रीति-निरूपण के प्रति नहीं है। इनके यहाँ शास्त्रीय विवेचन पर जोर का अभाव है। प्रमाण है लक्षण और उदाहरण के बीच मौजूद असंगति। आशय यह कि इन्होंने जिन काव्यांगों का विवेचन भी किया है, उन काव्यांगों की परिभाषाओं और उदाहरणों में तालमेल का अभाव है। ये परिभाषा कुछ और देते है और उदाहरण कुछ और। इसीलिए हिंदी  साहित्य का ‘रीति’ शब्द न तो काव्यशास्त्र का समानार्थी है और न ही संस्कृत के रीति संप्रदाय से संबद्ध।

आचार्य शुक्ल ने आचार्य वामन से प्रेरणा लेते हुए रीति को दृष्टिकोण माना है। उन्होंने इसका प्रयोग परिपाटी के बंधे-बंधाए अर्थों में किया है। इसीलिए उनकी दृष्टि में रीतिवादी सिर्फ वही नहीं हैं जिसने काव्य शास्त्रीय ग्रंथ लिखा है वरन् वे उसे भी रीतिवादी मानते है जिनका काव्यशास्त्र के प्रति दृष्टिकोण बंधा हुआ है। इसी आधार पर आचार्यशुक्ल ने काव्यशास्त्रीय ग्रंथ न लिखने के बावजूद बिहारी को रीतिवादी माना है और उन्हें रीतिसिद्ध कवि घोषित किया है।

रीतिकालीन रचनाकारों का वर्गीकरण

रीति-निरूपण की पद्धति के आधार पर रीतिकालीन रचनाकारों का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया गया है: रीतिबद्ध कवि, रीतिसिद्ध कवि एंव रीतिमुक्त कवि।

रीतिबद्ध कवि  

रीतिबद्ध कवियों की श्रेणी में उन कवियों को रखा गया है। जिनकी रूचि सिर्फ रीति-कर्म में या रीति-कर्म के साथ-साथ कवि-कर्म में है। ऐसे रचनाकार लक्षण-उदाहरण शैली में रचना करते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में पहले विभिन्न काव्यांगों की परिभाषाएँ दी हैं, इसी क्रम में उसकी विशेषताएँ गिनाई हैं और फिर उदाहरण के जरिए उसे समझाने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए ये या तो खुद रचना करते हैं या फिर अन्य रचनाकारों की रचनाओं को उद्धृत करते हैं।

रीतिसिद्ध कवि

दूसरी श्रेणी रीतिसिद्ध कवियों की है जिसके अंतर्गत बिहारी आते हैं। ऐसे रचनाकारों को रीतिसिद्ध माना गया है जो लक्षण-ग्रंथों की रचना नहीं करते और जिनकी रूचि स्वतंत्र रूप से कवि-कर्म में है, लेकिन जिनकी रचनायें काव्यशास्त्र के प्रति इनके बँधे हुए दृष्टिकोण की सूचना देती है। इसीलिए इनकी रचनायें विभिन्न काव्यांगों के उदाहरण बनाने में समर्थ हैं।

रीतिमुक्त कवि

तीसरी श्रेणी रीतिमुक्त रचनाकारों की है। यद्यपि रीतिमुक्त कवि भी दरबारी संस्कृति से अछूते नहीं रहे, लेकिन इनकी स्वच्छंदवृति ने इन्हें दरबारों से बँधकर नहीं रहने दिया। इसीलिए ये दरबारों से मुक्त होकर स्वछंदतापूर्वक रचना करते हैं। ये न तो लक्षण-उदाहरण शैली में बँधकर काव्यशास्त्रीय ग्रंथों की रचना करते हैं और न ही अपनी रचना में काव्यशास्त्र के प्रति बँधे हुए दृष्टिकोण को लेकर उपस्थित होते हैं। ऐसे रचनाकारों की श्रेणी में घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर, द्विजदेव आदि को रखा जाता है।

 रीतिकालीन कवियों का आचार्यत्व

रीतिकाल के रीतिबद्ध काव्यधारा के कवियों ने कवि होने के साथ-साथ आचार्यत्व-धर्म का भी निर्वाह किया। रीतिबद्ध कवि वे हैं, जिन्होंने काव्यांगों का लक्षण देकर उनके उदाहरणस्वरूप काव्य की सर्जना कीं। उन्होंने अपनी काव्य-प्रतिभा के साथ-साथ अपने काव्यशास्त्र का ज्ञान भी प्रकट किया कि काव्यशास्त्र के ज्ञान के बिना कवि का कवित्व कुंठित हो जाता है। इनका उद्देश्य सामान्य पाठकों को काव्यशास्त्र का ज्ञान प्रदान करना भी था। कुछ रीतिग्रंथ आश्रयदाताओं की इच्छा से भी लिखे गये।

रीतिकालीन कवियों का आचार्यत्व-धर्म पूर्णरूपेण संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रंथों पर आधारित था। इन ग्रंथों में भरत का नाट्यशास्त्र, भामह का काव्यालंकर, दण्डी का काव्यादर्श, उद्भट का अलंकार-सार-संग्रह, केशव मिश्र का अलंकार शेखर, जयदेव का चंद्रालोक, अप्पय दीक्षित का कुवलयानंद, मम्मट का काव्यप्रकाश, आनंदवर्द्धन का ध्वन्यालोक, भानुदत्त का रसमंजरी, रसतरंगिणी, पं. विश्वनाथ का साहित्य दर्पण इत्यादि मुख्य है।

हिंदी का प्रथम रीतिशास्त्रीय ग्रंथ कृपाराम का ‘हिततरंगिणी’ (1541 ई.) है, जो भरत के नाट्यशास्त्र एवं भानुदत्त की रसमंजरी पर आधारित है। 5 तरंगों में विभक्त एवं दोहा छंद में रचित यह कृति रचनाकाल की दृष्टि से रीतिकाव्य-परंपरा का प्रथम ग्रंथ है। ब्रजभाषा में रचित हिंदी सतसई काव्य-परंपरा का भी यह प्रथम ग्रंथ माना जाता है।

1559 ई. में मोहनलाल मिश्र रचित ‘श्रृंगार-सागर’, (1561 ई.) में नायिका-भेद का विवरण मिलता है। अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि ‘नंददास’ की ‘रसमंजरी’ एवं ‘करनेस बंदीजन’ की रचनाएँ कर्णाभरण, श्रुतिभूषण और झपभूषण (तीनों अलंकार पर) केशवदास से पूर्व हिंदी के प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय ग्रंथ हैं।

भक्तिकाल में सूरदास की भी ‘साहित्य लहरी’ (1550 ई.) रचना मिलती है, जो नायिका-भेद से संबंधित है। केशव के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में कविप्रिया, रसिकप्रिया एवं छंदमाला उल्लेखनीय हैं। रीतिग्रंथों की परंपरा का सूत्रपात केशवदास से ही होता है।

रीति-ग्रंथों की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

रीतिकालीन आचार्यों में रीति-निरूपण की प्रवृत्ति सर्वोपरि रही है। रीतिकालीन आचार्य कवियों के रीति-ग्रंथों में 2 प्रकार की प्रवृत्तियाँ विशेष रूप से मिलती है, जो इस प्रकार हैं-

1. सर्वांग निरूपक : जिन्होंने काव्य के समस्त अंगों का विवेचन अपने लक्षण-ग्रंथों में किया।

2. विशिष्टांग निरूपक :  जिन्होंने काव्य के 3 महत्त्वपूर्ण अंग रस, अलंकार, छंद में से एक, दो या तीनों का निरूपण अपने ग्रंथों में किया।

रीति-निरूपण की प्रमुख शैलियाँ

रीतिकालीन कवि आचार्यों की रीति-निरूपण की 3 शैलियाँ मिलती है-

(1) काव्यप्रकाश, साहित्य-दर्पण की शैली,

(2) चंद्रलोक, कुवलयानंद की संक्षिप्त-शैली और

(3) भानुदत्त की रसमंजरी-शैली।

रीतिकालीन ग्रंथों का श्रेणी-विभाजन

रीतिकालीन आचार्यों के संस्कृत के आधार पर रचे गए ग्रंथों का श्रेणी-विभाजन निम्नांकित रूपों में किया जा सकता है-

(क) ध्वनि-संबंधी ग्रंथ

 (ख) रस-संबंधी ग्रंथ

 (ग) अलंकार-संबंधी ग्रंथ

 (घ) छंद-संबंधी ग्रंथ और

 (ङ) नायक-नायिका भेद संबंधी ग्रंथ।

इनका विवेचन इस प्रकार है :

(क) रीतिकालीन ध्वनि-ग्रंथ

ध्वनि-संबंधी ग्रंथ सम्पूर्ण काव्यांगों का विवेचन करने वाले ध्वनि-निरूपक आचार्यों द्वारा लिखित हैं। इनमें निम्नलिखित ग्रंथ उल्लेखनीय हैं –

1. कुलपति-रस रहस्य (1670 ई.)  – हिंदी रीतिशास्त्र के अंतर्गत ध्वनि के सर्वप्रथम आचार्य कुलपति मिश्र है (केशव, चिंतामणि, भूषण, मतिराम, तोष इत्यादि ने रस और अलंकार का विवेचन किया, ध्वनि का नहीं)। ये बिहारीलाल के भांजे थे। कुलपति ने कूर्मवंशी जयसिंह के पुत्र रामसिंह के लिए 1670 ई. (1727 वि.) में मम्मट के मत का सार ‘रस रहस्य’ में प्रकट किया। इन्होंने महाभारत के द्रोणपर्व का पद्यबद्ध अनुवाद (द्रोणपर्व) किया। संग्राम सार, नखशिख, युक्ति तरंगिणी इनकी अन्य रचनाएँ हैं।

2. देव-काव्यरसायन (1743 ई.)  – कुलपति के उपरांत देव ने ‘काव्यरसायन’ ध्वनि-सिद्धांत निरूपण संबंधित ग्रंथ लिखा, यद्यपि इसमें रस का महत्त्व भी प्रतिपादित है। इसका आधार ‘ध्वन्यालोक’ ग्रंथ है। इन्होंने अभिधा और लक्षणा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा-’अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणालीन। अधम व्यंजना रस कुटिल, उलटी कहत नवीन।” (-काव्य रसायन)

3. सूरति मिश्र-काव्य सिद्धांत (18वीं सदी का उतरार्द्ध) – सूरतिमिश्र के ध्वनि संबंधित ‘काव्य-सिद्धांत’ ग्रंथ में मम्मट के काव्यप्रकाश का आधार ग्रहण किया गया है। इनका काव्य-संबंधी परिभाषा निजी एवं वैशिष्ट्यपूर्ण है-

बरनन मनरंजन जहाँ रीति अलौकिक होइ।

निपुन कर्म कवि कौ जु तिहि काव्य कहत सब होई ।।

अर्थात् कवि का निपुण कर्म, जिसमें अलौकिक रीति से वर्णन हो, काव्य है। इन्होंने रसिकप्रिया की 2 टीकाएँ (रस ग्राहक चंद्रिका, जोरावर प्रकाश) तथा सतसई की टीका (अमर चंद्रिका) लिखी। ‘बैताल पचीसी’ में 18वीं सदी के हिंदी गद्य का नमूना मिलता है। भगीरथ मिश्र इसे हिंदी का पहला उपन्यास मानते हैं।

4. कुमारमणि भट्ट रसिक रसाल (1719 ई.)  – कुमारमणि भट्ट (मिश्र) की ‘रसिक रसाल’ कांकरोली से प्रकाशित काव्यशास्त्र का एक श्रेष्ठ ग्रंथ है।

5. श्रीपति-काव्यसरोज (1720 ई.)  – यह आचार्य मम्मट के ‘काव्यप्रकाश’ पर आधारित काव्यशास्त्र का एक लोकप्रिय ग्रंथ है। कवि कुलकल्पद्रुम, रससागर, अनुप्रास विनोद, विक्रम विलास, सरोज लतिका, अलंकार गंगा इनकी अन्य रचनाएँ है।

6. सोमनाथ-रसपीयूषनिधि (1737 ई.)  – सोमनाथ ने भरतपुर के महाराज बदनसिंह हेतु ‘रसपीयूष निधि’ की रचना की थी। काव्यशास्त्र का यह एक पूर्ण बृहद् ग्रंथ है।

7. मिखारीदास-काव्यनिर्णय (1750 ई.) – आचार्य और कवि दोनों रूपों में उत्कृष्ट मिखारीदास विरचित ‘काव्यनिर्णय’ काव्यशास्त्र का सबसे प्रौढ़ और ख्याति प्राप्त रचना है, जिसमें 43 प्रकार की ध्वनियों का निरूपण हुआ है। रससारांश, छंदोर्णव पिंगल, काव्यनिर्णय, श्रृंगारनिर्णय इनके अन्य काव्यशास्त्रीय ग्रंथ हैं।

भिखारीदास कृत ‘नामकोश’ (1738, कोशग्रंथ) अमरकोश (संस्कृत के अमरकोश का पद्यानुवाद) और शतरंजशतिका (शतरंज खेलने के तौर तरीकों का वर्णन) रचनाएँ भी काफी प्रसिद्ध हैं।

8. जगत सिंह – साहित्य सुधानिधि, (1801 ई.)  – भरत, भोज, मम्मट, जयदेव, विश्वनाथ, गोविन्दभट्ट, भानुदत्त, अप्पय दीक्षित इत्यादि का आधार लेकर यह ग्रंथ सृजित हुआ है।

9. रणधीर सिंह-काव्यरत्नाकर – ‘काव्यप्रकाश’ और ‘चंद्रलोक’ के आधार पर तथा कुलपति के ‘रस-रहस्य’ ग्रंथ का आदर्श ग्रहणकर ‘काव्यरत्नाकर’ की रचना हुई।

10. प्रताप साहि-व्यंग्यार्थ कौमुदी – यह व्यंग्यार्थ प्रकाशक ग्रंथ है, जिसमें ध्वनि की महत्ता प्रतिपादित हुई है। इनका ‘काव्यविकास’ शीर्षक एक अन्य ग्रंथ मम्मट के काव्यप्रकाश पर आधारित है।

11. रामदास-कविकल्पद्रुम, (1844 ई.) – रामदास ने ध्वनि विषयक ग्रंथ ‘कविकल्पद्रुम’ या ‘साहित्यसार’  लिखा। रामदास का वास्तविक नाम राजकुमार था।

12. लछिराम-रावणेश्वर कल्पतरु (1890) – रस और अलंकार पर अनेक ग्रंथ लिखने वाले लछिराम ने गिद्धौर नरेश महाराज रावणेश्वर प्रसाद सिंह के प्रसन्नार्थ 1890 ई. में ध्वनि विषयक ‘रावणेश्वर कल्पतरु’ लिखा।

13. कन्हैयालाल पोद्दार-रसमंजरी – ‘रस मंजरी’ वैसे तो ‘रस’ से संबंधित रचना है परन्तु इसका ढाँचा ‘ध्वनि’ पर निर्मित हुआ है। ‘काव्यप्रकाश’ पर रचित यह रचना गद्य में है किन्तु इसके उदाहरण कविता में हैं।

14. रामदहिन मिश्र–काव्यालोक – यह आधुनिक काल का एक प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है। ‘काव्यदर्पण’ इनकी एक अन्य रचना है।

15. जगन्नाथ प्रसाद भानु – काव्यप्रभाकर  (1910 ई).

(ख) रीतिकालीन रस-ग्रंथ एवं रसाचार्य

1. केशवदास-रसिकप्रिया – रसवादी प्रथम आचार्य केशव की ‘रसिकप्रिया’ एक प्रसिद्ध रस-ग्रंथ है। केशवदास के पूर्व कृपाराम की ‘हिततरंगिणी, नंददास की ‘रसमंजरी’ एवं रहीम की ‘बरवै नायिका भेद’ इत्यादि ग्रंथ विशेष शास्त्रीय ग्रंथ नहीं हैं।

2. सुंदर कवि-सुंदर श्रृंगार (1631 ई.) – शाहजहाँ के दरबारी कवि सुंदर ने श्रृंगार रस और नायिका-भेद का वर्णन इसमें किया है।

3. चिंतामणि-श्रृंगार मंजरी – हिंदी रीतिशास्त्र के उत्कृष्ट एवं महान् आचार्य चिंतामणि ने नायिका भेद पर आधारित ‘’श्रृंगार-मंजरी शाहिराज के पुत्र अकबर साहि (बड़े साहिब) के लिए लिखा था। नायिका भेद के ग्रंथों में ‘श्रृंगार-मंजरी’ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। ‘कविकुलकल्पतरु’ इनकी रसविषयक अन्य रचना है, जिसमें उन्होंने अपना उपनाम मनि (श्रीमनि) का प्रयोग 60 बार किया है।

4. तोष-सुधानिधि (1637 ई.) – रसवादी आचार्य तोष निधि ने 560 छंदों में रस का निरूपण (सुधानिधि 1637 ई.) सरस उदाहरणों के साथ किया है। नखशिख, विनयशतक इनकी अन्य रचनाएँ हैं।

5. मतिराम-रसराज – श्रृंगार का इसमें नायक-नायिका भेद रूप में बड़ा उत्कृष्ट वर्णन हुआ है।

सुखदेव मिश्र ने भी शृंगार और नायिका-भेद पर ‘रसार्णव’ ग्रंथ लिखा। यह रसराज कोटि का ग्रंथ है।

कुछ अन्य रचनाएँ, यथा-नायिका भेद (रामजी), रससागर (गोपालराम), रसविवेक (बलिराम), रसचंद (कल्यानदास) इसी कोटि की है।

6. देव-भावविलास, भवानी विलास, काव्यरसायन – देव कवि और आचार्य दोनों थे। 17वीं सदी के अंत और 18वीं सदी के आरंभ में रस के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण देन देव की है। इन्होंने कहा-नवरस नहीं वरन् श्रृंगार ही अकेला रस है, जो सबका मूल है। इन्होंने सुख का रस श्रृंगार को माना। इनके काव्य रसायन में 9 रसों का विवेचन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर हुआ है।

7. कुमारमणि भट्ट – रसिक रसाल (1719 ई.)

8. रसलीन – रस प्रबोध 1798 सं. (1741 ई.) –  रसलीन का नाम सैयद गुलाब नबी था, जिनकी रसनिरूपण संबंधित रचना ‘रसप्रबोध’ (1115 दोहों में रस का वर्णन) है किन्तु यह रचना रसलीन की उतनी प्रसिद्ध नहीं हुई, जितनी अंगदर्पण’ (1734 ई.)। सूक्तियों के चमत्कार के लिए यह ग्रंथ काव्यरसिकों में आदरणीय है। रसलीन का यह दोहा, जिसे बिहारी का समझा जाता है, अंगदर्पण का ही है-

अमिय, हलाहल, मदभरे, सेत, स्याम रतनार ।

जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।

9. उदयनाथ कवीन्द्र-रसचंद्रोदय (विनोद चंदोद्रय दूसरा नाम)

10. दास – रस सारांश, श्रृंगार निर्णय

11. रूपसाहि – रूप विलास

12. समनेस-रसिक विलास (1770 ई.)

13. यशवंत सिंह-श्रृंगार शिरोमणि (1800 ई.)

14. रामसिंह-रसनिवास (1782 ई.)

15. पद्माकर-जगद्विनोद (जगतविनोद) – मतिराम के ‘रसराज’ की भाँति पद्माकर की रचना ‘जगद्विनोद’ काव्यरसिकों और अभ्यासियों के लिए कंठहार है।

पद्माकर की ‘पद्माभरण’ अलंकार ग्रंथ है। इसकी रचना इन्होंने महाराज प्रतापसिंह के पुत्र जगतसिंह के नाम पर की थी। जयपुर नरेश प्रतापसिंह ने इन्हें ‘कविराज शिरोमणि’ की उपाधि दी थी। प‌द्माकर के पिता व परिवारजन कविता किया करते थे, इसलिए इनके वंश का नाम ‘कवीश्वर’ पड़ा।

शुक्लजी ने जगद्विनोद को श्रृंगाररस का सार ग्रंथ कहा है। ‘गंगालहरी’ (जीवन के अंतिम समय पद्माकर गंगातट के विचार से कानपुर गये, वहीं इसकी रचना की थी), रामरसायन (वाल्मीकि रामायण पर आधारित) प‌द्माकर की अन्य रचनाएँ हैं।

प‌द्माकर के काव्य में होली, फाग, त्यौहारों इत्यादि लोकजीवन के बहुरंगी चित्रों की छटा मिलती है। पद्माकर रीतिकाल के अंतिम प्रतिभासंपन्न कवि थे।

16. रसिक गोविंद-रसिकगोविन्दानन्दघन – कृष्णभक्ति से संबंधित रसिक गोविंद के 9 ग्रंथ हैं जबकि काव्यशास्त्र विषयक इनका एकमात्र ग्रंथ है-रसिकगोविन्दानन्दघन।

17. बेनी प्रवीन-नवरस तरंग – श्रृंगारभूषण, नवरस तरंग, नानाराव प्रकाश-बेनी की 3 कृतियाँ हैं। इनका ‘नवरस तरंग’ सबसे प्रसिद्ध श्रृंगार-ग्रंथ है, जिसे शुक्ल ने मनोहर ग्रंथ कहा है। अवध के नवाब के अर्थमंत्री बालकृष्ण के भ्राता नवलकृष्ण हेतु बेनी ने ‘नवरस तरंग’ की रचना की थी तथा अंतिम पुस्तक बिठूर के प्रसिद्ध नानाराव के लिए लिखी थी।

इन्हें ‘प्रवीन’ की उपाधि बेनी बंदीजन (भड़ौवावाले) ने किसी वाद-विवाद पर प्रसन्न होकर दी थी। इनकी रचनाएँ मतिराम और पद्माकर के टक्कर की है।

18. ग्वाल-रसिकानंद, रसरंग – ग्वाल के ‘रसिकानंद’ और ‘रसरंग’ के अतिरिक्त ‘दूषणदर्पण’ और ‘अलंकार भ्रमभंजन’ कुल 4 रीतिशास्त्रीय ग्रंथ हैं। ‘रसरंग’ रचना (1847 ई.) ग्वाल के रस सबंधी विचारों का ग्रंथ है, जिसमें रस-रसांगों के लक्षण हैं।

इनकी अन्य रचनाओं में-यमुनालहरी, हम्मीरहठ, गोपीपच्चीसी, राधामाधवमिलन, राधा अष्टक एवं कविहृदयविनोद (काव्यसंग्रह) हैं।

शुक्लजी ने लिखा है कि “रीतिकाल की सनक इनमें इतनी अधिक थी कि इन्हें ‘यमुनालहरी’ नामक देवस्तुति में भी नवरस और षड्ऋतु सुझाई पड़ी है।

19. लछिराम-रावणेश्वर कल्पतरु, महेश्वरविलास – ‘रावणेश्वर कल्पतरु’ में ध्वनि-सिद्धांत के आधार पर रस का विवेचन है जबकि महेश्वरविलास नवरस और नायिका-भेद पर आधारित रचना है।

20. प्रतापनारायण सिंह-रसकुसुमाकर (1894 ई.) – अयोध्या के महाराज प्रतापनारायण सिंह की ‘रसकुसुमाकर’ में श्रृंगार रस का सुंदर विवेचन मिलता है।

21. अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध- रसकलस (1931 ई.)- ‘प्रियप्रवास’ के रचनाकार अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की ‘रसकलस’ रचना रीति-परंपरा पर रस-संबंधी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। हरिऔधजी ने अ‌द्भुत रस के अंतर्गत रहस्यवाद की गणना की है। यह इस ग्रंथ की नवीनता है।

(ग) अलंकार निरूपक आचार्य एवं रीतिकालीन अलंकार ग्रंथ

1. केशवदास-कविप्रिया और रसिकप्रिया – ये दोनों केशव के काव्यशास्त्रीय ग्रंथ हैं। ‘कविप्रिया’ में कविशिक्षा, अलंकारों का वर्गीकरण प्रमुख रूप से तथा ‘रसिकप्रिया’ में रसांगों, वृत्तियों और रस-दोषों का विवेचन है।

‘कविप्रिया’ का उद्देश्य काव्य-संबंधी ज्ञान प्रदान करना था जबकि ‘रसिकप्रिया’ का उद्देश्य रसिकों की तृप्ति करना था। ‘रसिकप्रिया’ का महत्त्व ‘कविप्रिया’ से ज्यादा है।

अलंकारवादी कवि केशव ने अलंकार का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा था कि ‘भूषण बिनु न विराजई, कविता, बनिता मित्त।”

रामस्वरूप चतुर्वेदी ने केशव की ‘रामचंद्रिका’ को ‘छंदों का अजायबघर’ कहा है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘रामचंद्रिका’ को ‘फुटकल पद्यों का संग्रह’ कहा है जबकि पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने ‘फुटकर कवित्तों का संग्रह’ कहा है।

2. जसवंत सिंह-‘भाषाभूषण’ – यह अलंकार पर एक समय सबसे पठित ग्रंथ है। इसमें शुद्ध अलंकारों का लक्षण और उदाहरण 212 दोहों में वर्णित हुआ है।

 इन्होंने ‘प्रबोध चंद्रोदय’ (संस्कृत नाटक) का ब्रजभाषा में अनुवाद किया। अपरोक्ष सिद्धांत, अनुभव प्रकाश, आनंद विलास, सिद्धांत बोध,  सिद्धांत सार इत्यादि इनकी वेदान्त से संबंधित आध्यात्मिक रचनाएँ हैं।

 इनका रचनाकाल 18वीं सदी विक्रमीय का प्रारंभ है। ‘भाषाभूषण’ के प्रथम प्रकरण में रस का तथा द्वित्तीय प्रकरण में 108 अलंकारों (विशेष रूप से अर्थालंकारों) का वर्णन हुआ है। भाषाभूषण की शैली चंद्रालोक की शैली है। भाषाभूषण पर कई टीकायें निकलीं, जिनमें अलंकार रत्नाकर टीका (वंशीधर), अलंकार चंद्रिका (गुलाब कवि) और प्रतापसिंह की टीका प्रसिद्ध हैं।

3. मतिराम-अलंकार पंचाशिका (1690 ई.), ललितललाम – ये मतिराम के प्रसिद्ध आलंकारिक ग्रंथ हैं। ‘अलंकार पंचाशिका’ कुमायूँ नरेश’ उदोतचंद्र के पुत्र ज्ञानचंद्र के लिए लिखी गई थी जबकि ‘ललितललाम’ बूँदी नरेश भावसिंह की प्रशंसा में सं. 1716 से 1745 के बीच लिखा गया। मतिराम ने इसमें अर्थालंकारों का ही वर्णन किया, जिसके क्रम व लक्षण को ‘शिवराज भूषण’ में अक्षरशः अपनाया गया है।

4. भूषण – भूषण का काव्य वीररस पूर्ण है किन्तु भूषण आलंकारिक ही कहे जाते हैं। इसके पीछे ‘शिवराज भूषण’ (1653 ई.) रचना है, जो आलंकारिक है।

शुक्लजी ने भूषण के विषय में कहा है कि “भूषण के वीर रस के उद्‌गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए। ….. शिवाजी और छत्रसाल की वी रता के वर्णन को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता।”

5. गोप-रामालंकार, रामचंद्रभूषण, रामचंद्राभरण (1716 ई. के आसपास) – गोप विरचित तीनों रचनाएँ चंद्रालोक की पद्धति पर रचित हैं।

6. रसिक सुमति – अलंकार चंद्रोदय (1729 ई. रचनाकाल) –  ‘कुवलयानंद’ की प्रेरणा और ‘कुवलयानंद’ के आधार पर रचित यह अलंकार का अच्छा ग्रंथ माना जाता है।

7. गोबिन्द-कर्णाभरण (1740 ई. रचनाकाल) –‘कर्णाभरण’ की रचना ‘भाषाभूषण’ की शैली पर की गई है।

8. दूलह-कविकुलकण्ठाभरण – 1750-1775 ई. तक दूलह का काल है। ‘कविकुलकण्ठाभरण’ ‘चंद्रालोक’ एवं ‘कुवलयानंद’ के आधार पर सृजित है।

9. बैरीसाल-भाषाभरण (रचनाकाल 1768 ई.) – अलंकारों के इस श्रेष्ठ ग्रंथ का आधार ‘कुवलयानंद’ है एवं इसकी वर्णन पद्धति ‘भाषाभूषण’ के समान है।

रीतिकाल/227

10. गोकुलनाथ-चेतचंद्रिका (रचनाकाल शुक्लजी के अनुसार सं. 1840-1870) – इसकी रचना काशीराज बरिबंड के पुत्र महाराज चेतसिंह के लिए की गई थी।

11. प‌द्माकर-प‌द्मामरण – रीतिकाल के अंतिम आलंकारिक कवि पद्माकर द्वारा रचित ‘पद्माभरण’ के आधार ‘चंद्रालोक’, ‘भाषाभूषण’, ‘कविकुलकंठाभरण’ और ‘भाषाभूषण’ इत्यादि रचनाएँ हैं।

12. अन्य ग्रंथ – रीतिकाल में इनके अतिरिक्त अलंकार गंगा (श्रीपति) कंठाभूषण (भूपति), अलंकार रत्नाकर (बंशीधर), अलंकार दीपक (शंभुनाथ) अलंकार दर्पण (गुमान मिश्र, हरिनाथ रतन, रामसिंह), अलंकार मणिमंजरी (ऋषिनाथ), काव्याभरण (चंदन), नरेंद्र भूषण (भाण), फतेहभूषण (रतन), अलंकार चिंतामणि (प्रतापसाहि) अलंकार आमा (चतुर्भुज), अलंकार प्रकाश (जगदीश) इत्यादि अनेक अलंकार-ग्रंथ लिखे गये।

13. अलंकार और रस दोनों के लक्षण और उदाहरण लेकर रीतिकाल में ‘रसभूषण’ ग्रंथ (याकूबखाँ का रसभूषण (1718 ई.) एवं शिवप्रसाद का रसभूषण (1822 ई.) एक चमत्कारपूर्ण प्रयास के द्योतक है।

14. रीतिकाल में आचार्य कुलपति ‘ध्वनि’ तथा सुखदेव और देव ‘रससिद्धांत’ के आचार्य हैं किन्तु अलंकारों का इन्होंने खंडन नहीं किया है। देव का ‘काव्यरसायन’ ग्रंथ एक प्रसिद्ध आलंकारिक ग्रंथ है।

15. आधुनिक युग के आलंकारिक ग्रंथ

1. रामचंद्र भूषण (1890 ई.) – लछिराम

2. जसोभूषण/जसवंत भूषण (1950 ई.) – कविराजा मुरारिदान (जोधपुर नरेश जसवंत के आश्रय में)

3. काव्य प्रभाकर-कुवलयानंद

4. भारती भूषण-अर्जुनदास केडिया

5. अलंकार मंजरी/ मंजूषा-कन्हैयालाल पोद्दार (इनकी रसमंजरी भी विद्वत्तापूर्ण रचना है।)

6. साहित्य परिजात (1940) – पं. शुकदेव बिहारी मिश्र और भतीजे प्रतापनारायण मिश्र द्वारा रचित

7. काव्यदर्पण – रामदहिन मिश्र (पाश्चात्य अलंकारों मानवीकरण, ध्वन्यर्थ-व्यंजना, विशेषण-विपर्यय को स्वीकार किया।)

(घ) छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ

छंद-संबंधी विविध पक्षों का निरूपण करने वाले शास्त्र को ‘छंदशास्त्र या पिंगलशास्त्र’ कहते हैं। ‘छंद’ का सर्वप्रथम प्रयोग ‘ऋग्वेद’ में मिलता है। ‘छंदशास्त्र’ की व्यवस्थित परंपरा का सूत्रपात छंदशास्त्र के प्रवर्तक पिंगलाचार्य के ‘छंदःसूत्र (ई.पू. 200 के लगभग) से माना जाता है।

अग्निपुराण’ में प्राप्त ‘आग्नेय छन्दःसार’ पिंगल के छंदःसूत्र पर आधारित परवर्ती रचना है। प्राकृत पैंगलम्’ और ‘वृत्त रत्नाकर’ का आधार लेकर रीतिकालीन छंदशास्त्रीय ग्रंथ प्रायः लिखे गये हैं। ‘सवैया छंद’ का विकास रीतिकाल में विशेष रूप से हुआ।

हिंदी में छंदशास्त्र का सर्वाधिक विस्तृत विवेचन भिखारीदास के ‘छंदोर्णव’ में हुआ है। रामसहाय छंद के सबसे प्रौढ़ आचार्य हुए। इनकी ‘वृत्त तरंगिणी’ रचना हिंदी का सर्वश्रेष्ठ पिंगल ग्रंथ है।

सुखदेव मिश्र के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का मत है कि ‘छंदशास्त्र पर इनका सा विशद् निरूपण और किसी कवि ने नहीं किया है। राजसिंह गौड़ द्वारा कविराज की उपाधि से सम्मानित सुखदेव मिश्र की रचनाओं में वृत्त विचार (1671 ई.), छंद विचार, फाजिल अली प्रकाश, रसार्णव, श्रृंगार लता, अध्यात्म प्रकाश (1698 ई.) दशरथ राय इत्यादि हैं। छंदशास्त्र को छठा वेद कहा गया है। छंद का विरोध करनेवाले प्रथम कवि निराला हुए जिन्हें मुक्त छंद का प्रवर्तक कहा जाता है।”

संस्कृत के छंदशास्त्रीय ग्रंथ

1. श्रुतबोध (5वीं शती ई. के लगभग) – कालिदास

2. छन्दःशास्त्र – हुलायुधकृत

3. छंदोरत्नाकर (10वीं श.ई.) – शांतिपाकृत

4. सुवृत्ततिलक (11वीं श.) – क्षेमेन्द्र

5. छंदोमंजरी (12-13वीं, श.ई. के बीच) – गंगादास

6. वृत्तरत्नाकर (14वीं श. ई. के लगभग) – केदारभट्ट

7. वाणीभूषण (14वीं श.ई. उत्तरार्द्ध) – दामोदर मिश्र

8. प्राकृतपैंगलम् (14वीं श.ई.)

9. छंदोनुशासनम् (12वीं श.ई.) – हेमचंद्र (छंदशास्त्र में सर्वोपरि स्थान)

हिंदी के छंदशास्त्रीय ग्रंथ

1. छंदमाला – केशवदास (हिंदी में छंदशास्त्र की प्रथम रचना)

2. वृत्तकौमुदी/छंदसार (पिंगल-संग्रह) – मतिराम

3. छंदविचार (17वीं श.ई. पूर्वा.) चिंतामणि

4. वृत्तविचार (1671 ई.) – सुखदेव

5. छंदविलास या श्रीनाग पिंगल (1703 ई.) – माखन

6. छंदसार (1772 ई.) – नारायणदास

7. छंदोर्णव (1742 ई.) – भिखारीदास

8. वृत्तविचार (1799 ई.) – दशरथ

9. वृत्ततरंगिणी (1816 ई.)- रामसहाय

10. वृत्तचंद्रिका (1801 ई.) – कलानिधि

11. छंदसारमंजरी (1801 ई.) – पद्माकर

12. पिंगलप्रकाश (1801 ई.) – नंदकिशोर

13. छंदोमंजरी (1883 ई.) – गदाधर भट्ट

14. छंदप्रभाकर (1922 ई.) – जगन्नाथ प्रसाद भानु

15. रसपीयूषनिधि (1737 ई.) – सोमनाथ

16. शब्दरसायन – देव

17. फजल अली प्रकाश –  फजल (सोमनाथ, देव, फजल के रीतिग्रंथों में भी छंद का समावेश हुआ है।)

आधुनिक युग के छंदशास्त्रीय ग्रंथ

18. पिंगलसार – नारायण प्रसाद

19. पद्म रचना – रामनरेश त्रिपाठी

20. नवीन पिंगल – अवध उपाध्याय

21. छंदशिक्षा – परमेश्वरानंद

22. पिंगल पीयूष – परमानंद शास्त्री

23. हिंदी छंद प्रकाश – रघुनंदन शास्त्री

(ङ) नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ

1. हिततरंगिनी (1541 ई.) – कृपाराम

2. साहित्यलहरी (1550 ई.) – सूरदास

3. रसमंजरी (1591 ई.) – नंददास

4. रसिकप्रिया (1591 ई.) – केशवदास

5. बरवै नायिका भेद (1600 ई.) – रहीम

6. सुंदर श्रृंगार निर्णय (1631 ई.) – सुंदर

7. सुधानिधि (1634 ई.) – तोष

8. कविकुलकल्पतरु (1650 ई.) – चिंतामणि

9. भाषाभूषण (1656 ई.) – जसवन्त सिंह

10. रसराज (1710 ई.) – मतिराम

11. रसिकरसाल (1719 ई.) – कुमारमणि शास्त्री

12. भावविलास, रसविलास, भवानीविलास एवं सुखसागर तरंग (18वीं शती का उत्तरार्द्ध) – देव

13. ‘रसप्रबोध (1742 ई.) – रसलीन

14. श्रृंगारनिर्णय (1750 ई.) – भिखारीदास

15. दीपप्रकाश (1808 ई.) – ब्रह्मदत्त

16. जगत्विनोद (1810 ई.) – पद्माकर

17. नवरसतरंग (1821 ई.) – बेनी प्रवीन

18. व्यंग्यार्थकौमुदी (1825 ई.) – प्रतापसाहि

19. रसिकविनोद (1846 ई.) – चन्द्रशेखर वाजपेयी

20. रसमोदकहजारा (1848 ई.) – स्कन्दगिरि

21. श्रृंगारदर्पण (1872 ई.) – नन्दराम

22. महेश्वरविलास (1879 ई.) – लछिराम

23. रसकुसुमाकर (1872 ई) – प्रतापनारायण सिंह

24. रसमौर (1897 ई.)  – दौलतराम

25. रसवाटिका (1903 ई.) – गंगाप्रसाद अग्निहोत्री

26. भानु काव्य प्रभाकर (1910 ई.) – जगन्नाथप्रसाद

27. हिंदी काव्य में नवरस (1926 ई.)- बाबूराम बित्थरियाका

28. रूपक रहस्य (1931 ई.) – श्यामसुंदरदास

29. रसकलश (1931 ई.) – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

30. नवरस (1934 ई.) – गुलाबराय

31. साहित्यसागर (1937 ई.) – बिहारीलाल भट्ट

32. काव्यकल्पद्रुम (1941 ई.) – कन्हैयालाल पोद्दार

33. ‘ब्रजभाषा साहित्य नायिका-भेद’ (1948 ई.) – प्रभुदयाल मीतल

निष्कर्ष

रीति निरूपक आचार्य कवि-शिक्षक-आचार्य के दायित्व का निर्वाह कर रहे थे और इन्होंने लक्षण-उदाहरण शैली में संस्कृत के काव्यशास्त्र को सहज व सरल बनाकर कवियों की आने वाली पीढ़ी को न केवल काव्यशास्त्र का ज्ञान दिया बल्कि उन्हें काव्य करने की विधि भी बतलाई।

 लेकिन, इन रीतिनिरूपक आचार्यों की सीमा यह रही कि इन्होंने काव्यांग-विवेचन के संदर्भ में भेद-विस्तार के माध्यम से मौलिकता का विकास करने का प्रयास किया, जिस दिशा में संस्कृत काव्यशास्त्र की ओर से काफी प्रयास हो चुके थे । इसने इसके काव्य शास्त्रीय विवेचन में अव्यवस्था को जन्म दिया ।

अर्थोपार्जन इनकी पहली प्राथमिकता थी और इसीलिए रीति-निरूपण के प्रति ये अपनी प्रतिबद्धता को नहीं बनाकर रख सके जिसके कारण एक ओर इनके काव्यशास्त्रीय विवेचन में मौलिकता का अभाव है, तो दोसारी ओर लक्षणों और उदाहरणों के बीच तारतम्यता का भी ।

तीसरी बात यह है कि दरबारी संस्कृति के दबाव के कारण ये सभी काव्यांगों के विवेचन के बजाय रस, अलंकार और ध्वनि को ही प्राथमिकता देते हैं, इनमें भी इन्होंने उन्हीं रसों एवं अलंकारों को विवेचन के योग्य माना है जो शब्द-चमत्कार, उक्ति-वैचित्र्य और वाणी में विलक्षणता लाने में सहायक है। फिर भी, इन सबके योगदान और महत्व को कम करके आँका नहीं जा सकता ।   

error: Content is protected !!