मुक्तिबोध, जिनका वास्तविक नाम गजानन माधव मुक्तिबोध था, एक प्रसिद्ध हिंदी कवि और आलोचक थे। उनकी आलोचना दृष्टि हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है, और उनके विचार आज भी प्रासंगिकहैं।
मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित थी। वे साहित्य को समाज के परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते थे। उनका मानना था कि साहित्य समाज की सच्चाई को प्रकट करने का एक महत्वपूर्ण साधन है।
मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि का एक महत्वपूर्ण पहलू यह था कि वे साहित्य को केवल एक कला के रूप में नहीं देखते थे, बल्कि एक सामाजिक और राजनीतिक हथियार के रूप में भी देखते थे। उनका मानना था कि साहित्य समाज को बदलने की शक्ति रखता है।
मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह था कि वे साहित्य को व्यक्तिगत अनुभवों से जोड़ते थे। उनका मानना था कि साहित्य व्यक्तिगत अनुभवों को व्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है।
मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ
1. मार्क्सवादी दृष्टिकोण: मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित थी। वे साहित्य को समाज के परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते थे।
2. सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य: मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से साहित्य का विश्लेषण करती थी।
3. व्यक्तिगत अनुभवों का महत्व: मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति व्यक्तिगत अनुभवों को महत्व देती थी। वे मानते थे कि साहित्य व्यक्तिगत अनुभवों को व्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है।
4. साहित्य का सामाजिक दायित्व: मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति साहित्य को समाज के प्रति एक दायित्व मानती थी। वे मानते थे कि साहित्य समाज को बदलने की शक्ति रखता
है।
5. आलोचना की वैज्ञानिक पद्धति: मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति वैज्ञानिक और तर्कसंगत थी। वे साहित्य का विश्लेषण करने के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों का उपयोग करते थे।
इन विशेषताओं के साथ, मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि
1. मुक्तिबोध एक प्रगतिवादी समीक्षक हैं। ‘कामायनीः एक पुनर्विचार’ (1961), ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ (1964), ‘एक साहित्यिक की डायरी’ (1964), ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध’ (1964), ‘नए साहित्य सौन्दर्यशास्त्र’ (1971) तथा ‘समीक्षा की समस्याएँ’ (1982) आदि उनकी प्रख्यात समीक्षा पु स्तकें हैं।
2. मुक्तिबोध अपने आलोचना-कर्म में विचारधारा के प्रति कोई अत्यधिक आग्रह नहीं रखते। अपने समस्त वैचारिक आग्रहों के साथ वे समूचे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में, अपने समय की रचनाशीलता को पहचानने का प्रयास करते हैं।
3. मुक्तिबोध लेखक की रचना-प्रक्रिया के विश्लेषण पर विशेष बल देते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है तथा कवि की दृष्टि, प्रकृति और काव्य की अन्तर्वस्तु से प्रभावित होती है। कवि के प्रयोजन और संवेदना से भी वह अछूती नहीं रहती। कवि की रचना प्रक्रिया को वे वस्तुतः एक खोज और ग्रहण के रूप में स्वीकृति देते हैं। यह रचना प्रक्रिया ही वस्तुतः कवि का आत्म-संघर्ष है।
4. कविता में उनकी चिंता ‘संपूर्ण मनुष्य’ की स्थापना की चिंता थी और एक आलोचक के रूप में वे काव्य में ऐसे ही मनुष्य की खोज पर बल देते हैं। अपने समय की प्रगतिवादी आलोचना से उन्हें सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि वह बाह्य पक्ष के चित्रण को ही महत्त्व देती है तथा ‘व्यक्तिगत यथार्थ’ या ‘आंतरिक अनुभूति’ की उपेक्षा करती है।
5. मुक्तिबोध कविता को ‘व्यक्तिवादी’ तथा ‘सामाजिक’ जैसी दो परस्पर विरोधी धाराओं में बाँटकर देखे जाने वाली प्रवृत्ति का विरोध करते हैं। उनके अनुसार, “सच तो यह है कि स्वयं के मनोभावों की कविता प्रत्यक्षतः व्यक्ति की होने से जन-विरोधी नहीं हो जाती, बशर्ते कि वे मनोभाव समाज के बीच में रहकर स्वाभाविक हुए हों। जन-मन की सर्वसाधारण मनःस्थिति व्यक्ति की मनोदशाओं द्वारा प्रकट हो तो फिर क्या कहना।”
6. मुक्तिबोध को नई कविता से शिकायत थी कि उसमें मानसिक प्रतिक्रियाओं के खण्ड-चित्र ही अधिकता से दिखाई देते हैं। जीवन के श्रेष्ठतम उदात्त लक्ष्य और मूल्य या उनके लिए किया जाने वाला संघर्ष इस कविता में उस रूप और मात्रा में नहीं है जितना अपेक्षित है। ‘नयी कविता’ के दौर में उन्होंने बुद्धिजीवियों में विकसित होने वाले अवसरवाद को पहचाना और उसकी भर्त्सना की। साथ ही उन्होंने निम्नमध्यवर्ग में व्याप्त निराशा, घुटन, पराजय और उदासीनता को सामाजिक जीवन स्थितियों की उपज मानकर नयी कविता में उसकी अभिव्यक्ति को नैतिक समर्थन दिया।
7. मुक्तिबोध के फुटकर आलोचनात्मक निबंध समग्रतः सृजन कर्म से जुड़े बहुत से सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक सवालों पर एक जागरुक रचनाकार के प्रखर और संवेदनशील चिंतन को प्रस्तुत करते हैं। अपने इन निबंधों में मुक्तिबोध साहित्य के भिन्न दृष्टिकोणों काप्रश्न उठाते हुए साहित्य के अध्ययन को अंततः मानव सत्ता के अध्ययन के रूप में स्वीकृति देते हैं।
8. अपनी आलोचना में सकारात्मक पक्षों पर बल देना और समूचे सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अपने विषय की संभावनाओं की तलाश मुक्तिबोध की व्यवहारिक आलोचना का ऐसा पक्ष है जो उनकी आलोचना की विश्वसनीयता को बढ़ाता है तथा साथ ही उन्हें एकांगिता से बचाता है।
मुक्तिबोध की व्यवहारिक आलोचना में अपने संघर्ष से अर्जित सत्य और रचना के प्रति एक सदाशय आत्मीय दृष्टि का संयोग सर्वत्र देखा जा सकता है।
9. व्यावहारिक समीक्षा में मुक्तिबोध ने प्रसाद की ‘कामायनी’, त्रिलोचन की ‘धरती’, भारत भूषण अग्रवाल की ‘ओ प्रस्तुत मन’, धर्मवीर भारती की ‘अंधा युग’, दिनकर को ‘उर्वशी’ आदि कृतियों की समीक्षाएँ लिखीं। इसके अतिरिक्त प्रेमचंद, शमशेर, सुभद्रा कुमारी चौहान, हरिशंकर पर लिखे गए निबंधों के साथ ही विदेशी साहित्य पर की गई उनकी टिप्पणियों में ‘लुसून की कहानियों’ तथा ‘समकालीन रूसी उपन्यास’ आदि पर पर्याप्त सुविचारित अभिमतों का उल्लेख किया जा सकता है।
10. सुभद्रा कुमारी चौहान के काव्य को वे स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में देखकर उसकी शक्ति के मूल स्रोतों को उद्घाटित करते हैं। उसमें स्फूर्ति, प्रेम और देशभक्ति के आवेग को ही वे उनके काव्य की महती सफलता के रूप में रेखांकित करते हैं। इसके साथ ही मुक्तिबोध, सुभद्रा कुमारी चौहान को इसलिए भी महत्त्व देते हैं कि किसी भी आधुनिक कवि से भिन्न, उनके प्रणय गीतों में गार्हस्थिकता का संदर्भ और पारिवारिकता की भूमिका पूरी तरह सुरक्षित है।
11. कवि शमशेर से संबंधित अपनी कुछ बुनियादी प्रतिक्रियाओं को उन्होंने ‘शमशेरः मेरी दृष्टि’ शीर्षक आलेख में प्रस्तुत किया है। शिल्प की दृष्टि से वे शमशेर को हिंदी का एक अद्वितीय कवि स्वीकार करते हैं। उनके काव्य में रसमयता का अभाव नहीं है लेकिन उनकी काव्य आत्मा रसमय, स्वाभाविक और बिल्कुल खरी होने पर भी उलझी हुई है।
12. साहित्य में जनवादी दृष्टिकोण की आवश्यकता पर वे पर्याप्त बल देते हैं। इसी कारण वे जनवादी, सांस्कृतिक गोष्ठियों की रूपरेखा भी प्रस्तुत करते हैं। ‘समकालीन रूसी उपन्यास’ तथा ‘तुसून की कहानियाँ’ जैसी उनकी टिप्पणियाँ वस्तुतः इसी संदर्भ में पढ़े जाने की अपेक्षा रखती हैं।
13. दिनकर की ‘उर्वशी’ पर मुक्तिबोध के दो निबंध हैं। एक में ‘उर्वशी’ के मनोवैज्ञानिक आधार पर विचार किया गया है तथा
दूसरे में उसके काव्य और दर्शन पर। उर्वशी के मनोवैज्ञानिक आधार को वे ‘कामात्मक मनोविज्ञान’ कहकर उसकी आलोचना करते हैं क्योंकि वह स्वस्थ और स्वाभाविक शृंगार की श्रेणी से बाहर चला गया है। अपना असंतोष व्यक्त करते हुए
उन्होंने लिखा है, “उर्वशी में कोई रोमांटिक उन्मेष, शृंगार की ताजगी तथा स्फूर्ति नहीं है। इसके विपरीत उसमें बासी फूलों का सड़ापन है।” उनके अनुसार उर्वशी भाषा की दृष्टि से भी एक शिथिल और असफल रचना है।
14. मुक्तिबोध ने त्रिलोचन की ‘धरती’ की समीक्षा में गीतों के क्षेत्र की व्यापकता और काव्य सामर्थ्य के साथ जीवन के विस्तृत दायरे के विभिन्न भागों का काव्यात्मक आकलन करने की क्षमता के लिए त्रिलोचन की प्रशंसा की है। भाषा के सुपरिष्कृत रूप और स्व की गीतात्मकता की दृष्टि से वे त्रिलोचन को निराला से जोड़कर देखते हैं।
15. धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ की व्याख्या मुक्तिबोध ने फैंटेसी के आधार पर की है। देश की स्वाधीनता के बाद सामाजिक हास को मुक्तिबोध एक वास्तविकता मानते हैं। वे धर्मवीर भारती को इस बात का श्रेय देते हैं कि सभ्यता के इस संकट को उन्होंने महाभारत के कुछ पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। किन्तु वे धर्मवीर भारती से इस बात से असंतुष्ट भी हैं कि भारती, सभ्यता की आलोचना तो करते हैं, किन्तु समाजशास्त्रीय जिज्ञासा के अभाव के शिकार होकर। व्यक्ति-मानव की शुभेच्छात्मक संवेदनाओं के नैतिक दृष्टिकोण को त्याग न पाने के कारण अपने वैचारिक अंतरंग में यह प्रयास छायावादी है।
16. ‘कामायनीः एक पुनर्विचार’ में मुक्तिबोध ने प्रसाद की रचना ‘कामायनी’ का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया है। मुक्तिबोध ने ‘कामायनी’ की व्याख्या एक फैंटेसी के रूप में की है। उनके अनुसार “प्रसाद ने कामायनी की विशाल फैंटेसी का निर्माण किया। इस फैंटेसी के रूपाकार में सामंतवाद के ध्वंस से लगाकर नए व्यक्तिवाद के जन्म और पूँजीवाद के रुग्ण बालक के बाधाग्रस्त विकास की अस्वस्थताओं, चिंताओं, विषमताओं और विभेद तथा पूँजीवाद की संपूर्ण हासगत अवस्था तक को प्रतीकात्मक पद्धति से गूंथ दिया है। कामायनी भारतीय औपनिवेशिक रुग्णवाधाग्रस्त पूँजीवादी की कथा, उसके आक्रामक
उग्र अहंग्रस्त व्यक्तिवाद का प्रतीकात्मक चित्र है।”
आलोचक के रूप में मुक्तिबोध का महत्व
- 1. साहित्य का सामाजिक दायित्व: मुक्तिबोध ने साहित्य को समाज के प्रति एक दायित्व माना, जो कि आज
भी प्रासंगिक है। - 2. मार्क्सवादी दृष्टिकोण: मुक्तिबोध का मार्क्सवादी दृष्टिकोण साहित्य के अध्ययन को एक नई दिशा देता है।
- 3. व्यक्तिगत अनुभवों का महत्व: मुक्तिबोध ने व्यक्तिगत अनुभवों को साहित्य के अध्ययन में महत्व दिया, जो कि आज भी एक महत्वपूर्ण पहलू है।
- 4. आलोचना की वैज्ञानिक पद्धति: मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति वैज्ञानिक और तर्कसंगत थी, जो कि आज
भी एक महत्वपूर्ण पहलू है। - 5. हिंदी साहित्य में योगदान: मुक्तिबोध का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है, जो कि आज भी प्रासंगिक है।
- 6. साहित्य का विश्लेषण: मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति साहित्य का विश्लेषण करने के लिए एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करती है।
- 7. सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य: मुक्तिबोध की आलोचना पद्धति सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से साहित्य का विश्लेषण करती है, जो कि आज भी एक महत्वपूर्ण पहलू है।
इन सभी पहलुओं के साथ, मुक्तिबोध आलोचक के रूप में हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं ।
निष्कर्ष
मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं और साहित्य के अध्ययन के लिए एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रदान करते हैं। उनकी आलोचना दृष्टि साहित्य को समाज के परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानती है और साहित्य को व्यक्तिगत अनुभवों से जोड़ती है। मुक्तिबोध ने ‘छायावादी काव्य’ की प्रगतिशील भूमिका का समर्थन किया ।
मुक्तिबोध की समीक्षा-यात्रा उनकी काव्य-यात्रा का प्रतिरूप है । अपने भोगे हुए यथार्थ से सीख लेनेवाले, अपनी संवेदनाओं से समाज की संवेदनाओं की सिहरन महसूस करनेवाले मुक्तिबोध का आलोचकीय व्यक्तित्व काफी ईमानदार है । उनकी आलोचना संभावनाओं से पूर्ण है । उन्होंने जो मानदंड निर्धारित किए हैं, वे जीवन पर आधारित हैं।
इसके बावजूद उनकी कुछ सीमाएं भी हैं, जैसे कामायनी के मूल्यांकन को लेकर । कामायनी का मूल्यांकन उन्होंने जिस धार पर किया और जो निष्कर्ष दिए हैं उस पर डॉ. रामस्वरुप चतुर्वेदी व डॉ. रामविलास शर्मा दोनों ने आपत्ति उठाई। किन्तु यह निर्विवाद सत्य है और यही मुक्तिबोध की सबसे बड़ी देन है कि वे जीवनपर्यंत संघर्षरत रहे । अभिव्यक्ति का संकट उन्हें खतरनाक होने के बावजूद आकर्षित करता रहा।
नई कविता के पुरोधा आलोचक होने के नाते उसे स्थापित और मूल्यांकित करने में मुक्तिबोध का अतुलनीय योगदान है ।
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