प्रतीक किसी वस्तु विशेष या भाव समूहों का एक ऐसा संकेत है जो अगोचर एवं अतीन्द्रिय है, जिसका संपूर्ण रूप में मस्तिष्क में अनुभव किया जा सकता है। अर्थात प्रतीक ऐसा शब्द चिह्न है जो किसी वस्तु का बोध कराता है। वस्तुतः प्रतीक किसी सूक्ष्म भाव, विचार या अगोचर तत्व को साकार करने के लिए प्रयुक्त होता है।
उदाहरण
के लिए, किसी
देश का ध्वज उस देश की राष्ट्रीय भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने के कारण राष्ट्र के
सम्मान एवं गौरव का प्रतीक होता है। प्रतीक शब्द रूप में किसी अन्य अर्थ की
व्यंजना करता है, यथा :
काहे री
नलिनी तू कुम्हिलानी।
इस पंक्ति
में ‘नलिनी‘ जीवात्मा
का प्रतीक है। स्पष्ट ही ‘नलिनी‘ का शब्दार्थ न लेकर यहां प्रतीकार्थ ग्रहण किया गया
है।
काव्य
या साहित्य में प्रतीकों का प्रयोग प्रारम्भ से होता रहा है। हिन्दी में सिद्ध
साहित्य एवं कबीर आदि कवियों की रचनाओं में प्रतीकों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ
है। ‘मेलार्मे‘ के
अनुसार, “अर्थ
की स्पष्टता से काव्य का आनन्द कम हो जाता है, अतः रहस्यात्मक प्रतीकों में यदि बात कही जाए तो वह
अधिक प्रभावशाली हो जाती है।”
कबीर
ने ‘बूंद
को जीवात्मा का तथा ‘सागर‘ को
परमात्मा का प्रतीक माना है, यथा:
“बूंद समानी समुद में सो करा हेरी जाय”
प्रतीक का
स्वरूप-विस्तार एवं परिभाषा
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रतीक
के स्वरूप पर अपनी दृष्टि का परिचय ‘चिन्तामणि’ में इस प्रकार से दिया है- “किसी देवता का प्रतीक सामने
आने पर जिस प्रकार उसके स्वरूप और उसकी विभूति की भावना चट मन में आ जाती है, उसी प्रकार
काव्य में आई हुई वस्तुएँ विशेष मनोविकारों या भावनाओं को जाग्रत कर देती है। जैसे
“कमल” माधुर्य पूर्ण कोमल सौंदर्य की भावना जाग्रत करता है ।
सिग्मन्ड
फ्रायड ने अपनी मनो-विश्लेषणात्मक दृष्टि से प्रतीक को देखा और उसके महत्व का आकलन
करते हुए स्पष्ट किया है कि प्रतीक दमित वासनाओं और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करते
हैं यही दमन की इच्छाएँ संवेगात्मक रूप में वेष बदल कर प्रतीकों के रूप में अपने
को स्पष्ट करती हैं। मन में अचेतन ढंग से पड़ी हुई न जाने कितनी ही ऐसी अनेक बातें
हैं जो अपना अस्तित्व बनाये रखने में सक्षम होती हैं और इनका स्वरूप साहित्य में
उन्ही रसों या रस-संदर्भ प्रतीकों के माध्यम से कवि की वाणी में अभिव्यक्ति पाकर
साहित्यिक प्रतीकों का सृजन करती है।
प्रतीक की विशेषताएं
प्रतीक की चार विशेषताएं बताई गई हैं :
1. प्रतीक
अप्रस्तुत का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रस्तुत का नाम है।
2. वह
तुरन्त मन में किसी भावना को जाग्रत कर देता है।
3. उस पर युग, देश, संस्कृति तथा मान्यताओं की छाप रहती है।
4. कवियों
द्वारा प्रयुक्त प्रतीक प्रारम्भ में व्यक्तिगत होते हैं, पर धीरे-धीरे वे रूढ़ हो जाते हैं।
प्रतीकों
के भेद
प्रतीकों
के अनेक भेद विभिन्न आधारों पर बताए गए हैं जिनमें प्रमुख निम्न हैं: 1. भावोत्प्रेरक
प्रतीक – जैसे कमल, चन्द्रमा, कुमुदिनी जिनमें भाव या राग की प्रधानता रहती है।
2.विचारोत्पादक प्रतीक —
जिनमें वैचारिकता प्रमुख होती है। जैसे:
विभीषण- घर का
भेदी का प्रतीक
गांधीजी – सत्य, ईमानदारी
के प्रतीक
3. वैयक्तिक
प्रतीक – कवि के निजी प्रतीक जो उसकी अनुभूति पर
आधृत होते हैं। जैसे कबीर द्वारा प्रयुक्त,
“नलिनी‘ ‘जीवात्मा‘ का प्रतीक है, तो ‘माली‘ ‘काल‘ का प्रतीक है।
4. परम्परागत
प्रतीक – वे प्रतीक जो परम्परा से चले आ रहे हैं, जैसे—‘हंसा‘ जीवात्मा
का प्रतीक है।
5. परम्परामुक्त
प्रतीक—ये प्रतीक नवीनता लिए हुए होते हैं। नई
कविता के प्रतीक इसी वर्ग के हैं। यथा
‘सांप‘ – ईर्ष्यालु
प्रवृत्ति का प्रतीक जिसमें दूसरे को विषदन्त चुभाने की प्रवृत्ति है।
6. भावपरक
प्रतीक – ये शब्दाश्रित न होकर भावाश्रित होते
हैं। छायावादी प्रतीक इसी कोटि के हैं।
7. व्याख्यात्मक
प्रतीक- इनका चयन गुणों एवं विशेषताओं के कारण
किया जाता है, यथा-‘सिंह‘ वीरता
का प्रतीक तथा ‘गीदड़‘ कायरता
का प्रतीक है।
8. प्रकृतिपरक
प्रतीक-प्राकृतिक उपादानों से लिए गए प्रतीक
कमल, चांदनी, आदि
इसी प्रकार के प्रतीक हैं।
‘प्रतीक‘ काव्य भाषा का तत्व है जो भाव की अभिव्यक्ति को सबल
बनाता है और भावों को मूर्त रूप प्रदान करता है।
डॉ.
नगेन्द्र की मान्यता है कि उपमान जब किसी पदार्थ विशेष के लिए रूढ़ हो जाता है तब
प्रतीक बन जाता है। ऐसे प्रतीकों को स्थिर प्रतीक कहते हैं। यथा :
“मधुमय वसन्त जीवन वसंत के”
इस पंक्ति में वसन्त ‘यौवन‘ का
प्रतीक है। जीवन को यदि एक उपवन मान लिया जाए तो ‘वसन्त‘ का अर्थ ‘यौवन‘ ही होगा । वसन्तु ऋतु आने पर जैसे उपवन खिल उठता है
उसी प्रकार यौवन आने पर जीवन में प्रफुल्लता, सुन्दरता एवं मधुरता का विकास अनायास हो उठता है।
साहित्य में प्रतीकों
का प्रयोग
साहित्य
में प्रतीकों का प्रयोग आदिकाल से लेकर आज तक अक्षुण्ण रूप से किया जा रहा है। कवि
की अनुभूति जब सान्द्र हो उठती है तब अनायास ही वह प्रतीकों के साम्राज्य में
विचरण करते पहुँच जाती है। अपनी संवेदना को विशिष्ट संदर्भ के साथ साकारता और
पूर्णता प्रदान करने के लिए कवि अपने ऐन्द्रिय अनुभवों के सहारे प्रतीकों की
सृष्टि करता है और धीरे-धीरे प्रतीक इतने रूढ़ हो जाते हैं कि इन्हें ग्रहण करने
में किसी भी प्रकार का आभास सामाजिक को नहीं करता पड़ता।
आदिकालीन
हिन्दी साहित्य में प्रतीकों का प्रयोग तो अवश्य किया गया किन्तु उसका स्वरूप
सीमित रहा क्योंकि आदिकालीन कविता का स्वर राजदरबारी और श्रृंगारी अधिक रहा। इस
कारण इस काल में अभिधापरक काव्य का सृजन अधिक हुआ।
अवश्य ही नायिका के सौंदर्य वर्णन में कवि ने
पारंपरिक प्रतीकों का प्रयोग किया, जैसे-नायिका की सुन्दरता के लिए चन्द्रमुखी, नेत्रों की
विशालता के लिए मृगनयनी आदि। परन्तु प्रतीकों का सशक्त रूप उस युग में नगण्य ही
माना जाएगा।
नाथों
और सिद्धों की वाणी, जिसे “सन्ध्या भाषा” भी कहते हैं, में प्रतीकों
का प्रयोग देखा जा सकता है। श्री नित्यानन्द शर्मा ने सिद्ध साहित्य के प्रतीकों
को श्रृंगारी, पारिभाषिक, उलटबासियों
से युक्त आध्यात्मिक संख्यामूलक विभागों में विभाजित किया है। नाथ पंथियों की
हठसाधना का मूलाधार हठयोग ही है। अपनी आध्यात्मिक अनुभूति को उन्होंने कूट
प्रतीकों द्वारा साकार किया है।
गोरखवाणी
में प्रतीकात्मक प्रयोग द्रष्टव्य है:
वसती न
सुन्यं, सुन्यं न
वसती अगम अगोचर जैसा,
गगन शिखर में
बालक बोलै ताका नांव घर जुगे जैसा।
यहाँ
पर गगन शिखर दशम द्वार या ब्रहम रंध्र का प्रतीक है। नाथ पंथियों ने इसी प्रकार से
इड़ा पिंगला नाड़ी के लिए गंगा-जमुना का प्रयोग किया है। इन्हें चन्द्र नाड़ी और
सूर्य नाड़ी भी कहा है । सुषुम्ना मार्ग के लिए खजूरी और कुण्डलनी के लिए मछली
शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार से अन्य प्रचलित प्रतीक हैं- गंग, ग्रह मण्डल, विमल जल, औंधा कुवा, चादर आदि ।
नाथ पंथियों के प्रतीक उनके अनुभव, लोक जीवन तथा घरेलू वातावरण से संबद्ध हैं।
भक्त
कवियों के काव्य में बेजोड़ प्रतीकों की सार्थक सृष्टि देखी जा सकती है। प्रतीकों
का वैविध्यपूर्ण प्रयोग भक्तिकाल में हुआ। जीव, जगत, ब्रहम ईश्वर, माया और इनसे रागात्मक संबंधों की रहस्यमय अभिव्यक्ति में
प्रतीकों की अपार संपदा का प्रयोग देखा जा सकता है। शब्द चयन में भी प्रतीकों की
छटा इस युग के काव्य में दर्शनीय है। जीवात्मा
परमात्मा के भेद एवं भेद विगलित रूप की स्थितियों को साकार करते हुए कबीर कहते हैं
:-
जल में कुम्भ कुम्भ
में जल हैं,
बहार भीतर पानी
फूटा कुम्भ जल जल
ही समाना,
यह तथ्य कथ्यौ
रियानी।
यहाँ
कुंभ अंतःकरण विशिष्ट जीव का और जल परमात्मा का प्रतीक है। आध्यात्मिक प्रतीक को
कबीर ने अपने लोकानुभव द्वारा प्रस्तुत किया। इसी प्रकार, सुहागिन जीवात्मा का, भरतार परमात्मा का दीया देह का एवं अंतःकरण का, मैमन्त मन का, माली काल का, कली जीव का, बूंद जीव का एवं समुद्र परमात्मा का प्रतीक है।
इसी
प्रकार प्रतीकों की समृद्ध परंपरा संपूर्ण भक्तिकालीन साहित्य में व्याप्त है। प्रतीकों का प्रयोग रीतिकाल में अत्यंत अल्प
है। इस काल में प्रयुक्त प्रतीक रूढ़ एवं काम ( श्रृंगार) विषयक है।
आधुनिक
साहित्य में नये-नये प्रतीकों की सृष्टि हुई। भारतेन्दु युग में प्रतीकों का
स्वरूप राष्ट्रीय एवं व्यंग्यपरक रहा। द्विवेदी काल में प्रतीकों का रूढ़ प्रयोग
अधिक देखने को मिला। यहाँ राष्ट्रीय तथा सांस्कृतिक प्रतीकों की झलक देखी जा सकती
है।
संसार की नश्वरता का बोध करवाते हुए मैथिलीशरण गुप्त “यशोधरा” में लिखते
हैं:-
धूम रहा है कैसा
चक्र
वह नवनीत कहाँ जाता है,
रह जाता है तक्र।
उक्त
काव्य पंक्तियों में नवनीत सार, आत्मा का और तक्र निस्सारता का प्रतीक है। प्राकृतिक
प्रतीकों की सृष्टि कभी इस युग में देखी जा सकती है।
छायावादी
काव्य-संसार में प्रतीकों की सतरंगी छाया देखी जा सकती है। प्रसाद से लेकर पंत, निराला और
महादेवी तथा अन्य छायावादी कवियों के काव्य जगत में प्रतीकों की नवीन सृष्टि हुई।
छायावाद
का संबंध प्रकृति से अभिन्नतः जुड़ा हुआ है प्राकृतिक प्रतीक का एक उदाहरण
द्रष्टव्य है:
निशा को धो देता
राकेश,
चांदनी में जब पलकें खोल
कली से कहता था मधुमास,
बता दो मधु मदिरा
का मोल।।
नई
कविता में तो नये-नये प्रतीक गढ़े गये और उनका विविध मुखी प्रयोग हुआ। कहना होगा
कि आज तो प्रतीक कवि की विवशता बन चुका है। क्योंकि ज्यों-ज्यों कवि की अनुभूति विविध आयामी
बनकर विकल होगी त्यों-त्यों वह प्रतीकों के अनन्त साम्राज्य में अपनी भावना का
मार्ग खोजेगा। कवि की संवेदनाओं का रूप
अनन्त है और प्रतीकों की दुनिया भी अनन्त । अतः कहा जा सकता है कि प्रतीक कवि की
एक प्रिय विवशता है।
निष्कर्ष
साहित्य
में प्रतीक-विधान का महत्व अनुभूति को व्यवस्थित करने और भाव प्रसार में सहयोग
देने का है। सामान्यतः प्रतीक अप्रस्तुत कथन की एक महत्वपूर्ण सांकेतिक पद्धति है।
व्यंजनाश्रित होने के कारण यह भाव गोपन एवं भाव-प्रकाशन का समर्थ माध्यम है। इसीलिए कार्लाइल की धारणा थी कि प्रतीक में
भाव गोपन के साथ भाव- प्रकाशन भी रहता है।
प्रतीक
का प्रयोग अनादि काल से ही संप्रेषण साधन के रूप में किया जाता है। देखा जाये तो
प्रतीक अपने आप में ही प्रतीक है। गागर में सागर का अर्थात् प्रतीक आकर्षक एवं
चमत्कारपूर्ण पद्धति से सूक्ष्म, अमूर्त एवं व्यापक सौंदर्य को अपने में समाविष्ट कर लेता
है। प्रतीक अनुभूति एवं अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से साहित्य में महत्वपूर्ण
स्थान रखता है।
प्रतीक भाषा को संपन्न, समृद्ध एवं साहित्यिक बनाते हैं। उनमें लक्षणा और व्यंजना
शक्ति का वह चमत्कार है जिससे भाषा की लाक्षणिकता और व्यंजनात्मकता का विकास होता
है। इसीलिए साहित्य में प्रतीक निर्माण की आवश्यकता तथा महता का उल्लेख करते हुए अज्ञेय ने “आत्मनेपद” में यह
स्पष्ट किया है कि कोई भी स्वस्थ काव्य साहित्य नये प्रतीकों की सृष्टि करता है और
जब वैसा करना बन्द कर देता है तब वह जड़ हो जाता है।
आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल ने भारतीय काव्यशास्त्र में प्रतीक को उपलक्षण के अत्यंत
निकट माना है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रतीक का काव्योत्कर्ष में प्रमुख योग
होने के साथ-साथ साहित्यिक अभिव्यक्ति में चमत्कार विधायक होने के कारण मानव की
अभिव्यंजना शक्ति से घनिष्ठ संबंध है।

नमस्कार ! मेरा नाम भूपेन्द्र पाण्डेय है । मेरी यह वेबसाइट शिक्षा जगत के लिए समर्पित है। हिंदी भाषा, हिंदी साहित्य और अनुवाद विज्ञान से संबंधित उच्च स्तरीय पाठ्य सामग्री उपलब्ध करवाना मेरा मुख्य उद्देश्य है । मैं पिछले 20 वर्षों से इस क्षेत्र में काम कर रहा हूँ ।
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मेरी शैक्षिक योग्यता इस प्रकार है : बीएससी, एमए (अंग्रेजी) , एमए (हिंदी) , एमफिल (हिंदी), बीएड, पीजी डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन (गोल्ड मेडल), यूजीसी नेट (हिंदी), सेट (हिंदी)
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