साहित्य का उद्देश्य | Sahitya ka Uddeshya | Sahitya ka Prayojan | साहित्य का प्रयोजन

साहित्य शब्द और अर्थ के समन्वित सौंदर्य से निर्मित ऐसी लोकमंगलकारी रचना है जो रचनाकार के भावोंविचारों और आदर्शों को पाठक या समाज तक सम्प्रेषित करती है।

 

साहित्य का उद्देश्य | Sahitya ka Uddeshya | Sahitya ka Prayojan | साहित्य का प्रयोजन

 

  


 

 

     विद्वानों
के अनुसार
साहित्यशब्द दो
शब्दों से मिलकर बना है = सहित + यत्
प्रत्यय । अर्थात
साहित्य का अर्थ है – साथ होने का भाव या सहभाव । इसका
अर्थ यह कि जहाँ शब्द और अर्थ एक साथ आते हैं
,वही साहित्य है। इसमें कल्याण का भाव समाहित होता है।

 

       कल्याण के इसी भाव को लक्षित करके आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा- निखिल विश्व के साथ एकत्व की साधना ही साहित्य है

       स्पष्ट है कि साहित्य हमारी संवेदना के तारों को
झकझोरता हुआ हमें संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठने की प्रेरणा देता है ताकि हम समूचे
विश्व के साथ एकत्व को महसूस करते हुए वैश्विक संवेदना के साथ जुड़ाव विकसित कर
सकें।

 

     आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल
ने हिंदी साहित्य का इतिहासकी भूमिका में लिखा है- जब कि
प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है
, तब यह
निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति में परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में
भी परिवर्तन होता चला जाता है ।…………. जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ
राजनीतिक
, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियों के
अनुसार होती है।

 

       स्पष्ट है कि
साहित्य का स्वरूप स्थिर न होकर गतिशील होता है और इस गतिशीलता का कारण है सामाजिक
गतिशीलता। जैसे-जैसे समाज की राजनीतिक
, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों में बदलाव आता है, उसी के अनुरूप
जनता की चित्तवृत्तियों में भी और तदनुरूप साहित्य के स्वरूप में भी बदलाव आता
जाता है।

 

      यही
कारण है कि
बाल कृष्ण भट्ट साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास हैकी मान्यता
को लेकर उपस्थित होते है तो
आचार्य हजारी
प्रसाद द्विवेदी
मनुष्य ही
साहित्य का लक्ष्य है
की मान्यता
के साथ।

 

साहित्य का उद्देश्य या साहित्य का प्रयोजन 

 

संसार की प्रत्येक रचना उद्देश्यपूर्ण है।
यहाँ कुछ भी प्रयोजन रहित नहीं होता। साहित्य का जीवन और जगत से घनिष्ठ संबंध है।
अतः उसका भी कुछ प्रयोजन या उद्देश्य होता है । साहित्य लेखन में लेखक का उद्देश्य
ही उसके प्रयोजन के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों
द्वारा साहित्य के प्रयोजनों पर गंभीरता से विचार किया गया है।

 

प्राचीन भारत में साहित्य संबंधी विवेचन
वास्तव में काव्य के विवेचन से प्रारंभ हुआ ।
साहित्य
शब्द का प्रचलन सातवीं-आठवीं शताब्दी में शुरू हुआ। इससे पहले संस्कृत में
साहित्य
के स्थान पर
काव्य
शब्द का प्रयोग मिलता है।

 

  आगे
चलकर
काव्य
का अर्थ संकुचित हो गया
, वह केवल कविता तक सीमित
रह गया
, जबकि साहित्य का प्रयोग
व्यापक रूप में कविता
,  उपन्यास, कहानी,
नाटक
, एकांकी,
रेखाचित्र
, संस्मरण,
यात्रा वृतांत
, रिपोतार्ज,
आलोचना
, समीक्षा इत्यादि के लिए
होने लगा ।

 

अब हम साहित्य तथा काव्य के उद्देश्य अथवा
प्रयोजन के संबंध में प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वानों
,
पाश्चात्य काव्यशास्त्र के प्रमुख विद्वानों
, हिंदी साहित्य के आधुनिक
भारतीय विद्वानों के साथ-साथ मनोविश्लेषणशास्त्रियों के विचारों का अध्ययन करेंगे
 

 

(क) संस्कृत आचार्यों अथवा
संस्कृत-काव्यशास्त्रियों द्वारा प्रतिपादित मत 

 

1. आचार्य भरतमुनि :

     पंचम
वेद के रूप में मान्य अपने
ग्रंथ नाट्यशास्त्रमें
भरतमुनि ने नाटक के संदर्भ में जिन प्रयोजनों की चर्चा की है
,
वे
काव्य के लिए भी लागू होते हैं
, क्योंकि उस समय तक काव्य
और नाटक में भेद नहीं किया जाता था। दोनों को ही काव्य माना जाता था। तभी तो
काव्येषु
नाटकं रम्यं
कहा जाता था।

 

     आचार्य
भरत के द्वारा निर्दिष्ट काव्य प्रयोजन इस प्रकार हैं:

नाटक धर्म, यश,
आयु,
बुद्धि
बढ़ाने वाला
, हितसाधक तथा लोक उपदेशक
होता है।

 

2. आचार्य भामह :  भामह प्रथम आचार्य है
जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप में काव्य-प्रयोजनों पर विचार किया है।

 

     आचार्य
भामह ने धर्म
, अर्थ,
काम,
मोक्ष
(चारों पुरुषार्थ)
, कलानिपुणता,
कीर्ति
और प्रीति (आनंद) की प्राप्ति को काव्य-प्रयोजन के रूप में निर्दिष्ट किया है।

 

काव्य-प्रयोजन संबंधी चिंतन में भामह ने प्रीति
(आनंद की प्राप्ति)
को मुख्य प्रयोजन माना है जिससे परवर्ती
आचार्यों को विशेष प्ररेणा मिली।

 

3. आचार्य वामन:  आचार्य वामन ने काव्य के दो प्रयोजन बताएं
हैं – प्रीति (आनन्द) और कीर्ति ।  वे
काव्य-सृजन को यश (प्रसिद्धि) का सहज साधन मानते हैं। वामन के काव्य-प्रयोजन में
सर्जक (कवि) और भावक (सहृदय) दोनों को महत्व दिया है।

 

आचार्य वामन के अनुसार अच्छा काव्य कवि और सहृदय
(श्रोता-पाठक) दोनों को आनंद प्रदान है
, यह दृश्य प्रयोजन है तथा
कवि को जीवन काल एवं जीवनोत्तर काल में भी कीर्ति प्रदान करता है – यह अदृश्य
प्रयोजन है ।   

 

4. आचार्य कुंतक : काव्य
प्रयोजनों के विवेचन में आचार्य कुंतक में नवीनता और मौलिकता मिलती है। उन्होंने
लोकोत्तर चमत्कार के आनंद को धर्म
, अर्थ,
काम
और मोक्ष से बढ़कर माना है। उनकी दृष्टि में यह चारों पुरुषार्थों से बढ़कर है।

 

5.आचार्य  भोजराज : आचार्य भोजराज ने अपने
ग्रंथ
सरस्वती कंठाभरणमें कीर्ति और प्रीति
(आनंद) को काव्य प्रयोजन निरूपित किया है। इनके काव्य प्रयोजन वामन-निर्दिष्ट काव्य-प्रयोजनों
से साम्य रखते हैं।
 

 

6. आचार्य मम्मट : आचार्य मम्मट ने अपने
सुप्रसिद्ध ग्रंथ
काव्य प्रकाशमें काव्य-प्रयोजनों का
स्पष्ट विवेचन किया है। उनके काव्य-प्रयोजनों में पूर्व आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट
प्रयोजनों का समाहार भी लक्षित होता है। उन्होंने निम्नलिखित
छः
प्रयोजनों
का निर्देश किया है :

 

(क) यश की प्राप्ति () अर्थ
(धन) की प्राप्ति
() व्यवहार-ज्ञान
() अनिष्ट
का निवारण
() उत्कृष्ट
आनंद की शीघ्र प्राप्ति  
(च) कांता
सम्मित उपदेश

 

7. आचार्य हेमचंद्र: आचार्य हेमचंद्र द्वारा
दिए गए काव्य हेतुओं अर्थात् – आनंद
, यशप्राप्ति और कांतासम्मित
उपदेश में
आनन्द प्रमुख है; क्योंकि इसका
संबंध रचनाकार और सहृदय (पाठक या श्रोता) दोनों से है
, जबकि यश का संबंध केवल कवि
या सर्जक से तथा कांतासम्मित उपदेश का संबंध सहृदय से होता है।

 

8. आचार्य विश्वनाथ :  साहित्य
दर्पण
आचार्य
विश्वनाथ का सुप्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ है। उन्होंने अपने काव्य-प्रयोजनों में धर्म
,
अर्थ,
काम
और मोक्ष को महत्व दिया है। इनकी प्राप्ति काव्य के माध्यम से आनंदपूर्वक हो जाती
है।

 

9. पण्डितराज जगन्नाथ:  पंडितराज जगन्नाथ ने काव्य प्रयोजनों के
अंतर्गत कीर्ति
, परम आह्लाद,
देवताओं
की कृपा प्राप्ति आदि का उल्लेख किया है। उन्होंने परम आह्लाद को ब्रह्मानंद
स्वरूप स्वीकार किया है।
रसानुभूति को वे श्रेष्ठ काव्य
प्रयोजन मानते हैं।

 

     संस्कृत
काव्यशास्त्र में निरूपित काव्य-प्रयोजनों के समग्र अवलोकन से ज्ञात होता है कि
आनंद
की प्राप्ति
तथा विचारों का परिष्करण ही
काव्य के प्रमुख प्रयोजन हैं।
 

 

() पाश्चात्य
विद्वानों की दृष्टि में साहित्य अथवा काव्य का 
उद्देश्य या प्रयोजन

    

     साहित्य
अथवा काव्य के उद्देश्य या प्रयोजन के संबंध में पाश्चात्य कवियों और समीक्षकों ने
गंभीर चिंतन किया है। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रतिपादित काव्य-सिद्धांतों में
काव्य-प्रयोजनों की चर्चा मिलती है। इनके द्वारा धर्म
, नीति,
सौंदर्य,
कला
आनंद आदि के परिप्रेक्ष्य में काव्य प्रयोजनों पर विचार किया गया है।

 

1. प्लेटो:  प्लेटो की धारणा कवि और काव्य के प्रति
उदात्त नहीं है। उनके विचारों में एकांगीपन अधिक लक्षित होता है। वे मानते हैं कि
काव्य से मिथ्या (कल्पनाप्रसूत) अभिव्यक्ति तथा भावों का उत्तेजन होता है जिससे
आदर्श राज्य की व्यवस्था बिगड़ सकती है। प्लेटो उस काव्य को महत्व देते हैं जिसमें
नैतिक
उपदेश
हो और जो राज्य तथा मानव जीवन के लिए उपयोगी हो।
अर्थात् प्लेटो
लोकमंगल को काव्य का चरम लक्ष्य मानते
हैं ।

 

2. अरस्तू: अरस्तू के काव्य-प्रयोजन
संबंधी विचार प्लेटो से भिन्न है। वे प्लेटो के विचारों से सहमत नहीं है। उन्होंने
काव्य से
मनोवेगों के उत्तेजन
संबंधी प्लेटो के आरोप का अपने
विरेचन सिद्धांत
में समाधान भी प्रस्तुत किया है।

 

 अरस्तू
की दृष्टि में काव्य का उद्देश्य
विरेचन के माध्यम से मनोवेगों या मनोविकारों का शमन
एवं परिष्कार करना
है। इस प्रकार अरस्तू मुख्य रूप से आनंद
को काव्य-प्रयोजन
मानते हैं।

 

3. लोंजाइनस:  उदात्त तत्व को महत्व प्रदान करने वाले लोंजाइनस
की दृष्टि में
भव्यता और उदात्तता की अभिव्यक्ति काव्य
का मुख्य प्रयोजन है।

 

4. दांते:  इटली के सुप्रसिद्ध कवि एवं समीक्षक दांते काव्य
का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए स्वीकार करते हैं कि काव्य का उद्देश्य अंततः और
पूर्णतः व्यक्तियों को
दुःख की अवस्था से हटाकर सुख की स्थिति की ओर ले
जाना
है।

 

5. सर फिलिप सिडनी:  सर फिलिप सिडनी के
अनुसार
, मानवीय सद्गुणों की प्रेरणा
काव्य का प्रयोजन
है।

 

6. ड्राइडन:  ड्राइडन आह्लादमयी शिक्षा को
काव्य प्रयोजन मानते हैं। आह्लाद पर उन्होंने विशेष बल दिया है। उनके अनुसार
स्वान्त:
सुखाय
और परजन हिताय काव्य के प्रयोजन हैं ।

 

7. एस.टी.कॉलिरिज : स्वच्छंदतावादी समीक्षक
एस.टी.कॉलिरिज
सौंदर्यके माध्यम से आनंद सिद्धि
को काव्य का प्रयोजन मानते हैं।

 

8. मैथ्यू आर्नाल्ड : मैथ्यू आर्नाल्ड ने मनुष्य
के आत्मिक विकास
और सामाजिक मूल्यों को
अधिक महत्व दिया है। इनेक अनुसार
जीवन की व्याख्या करना ही साहित्य का प्रयोजन है ।

 

8. लियो टालस्टाय : लियो टालस्टाय सुप्रसिद्ध
रूसी साहित्यकार और विचारक हैं। उन्होंने काव्य के प्रयोजन के रूप में
नैतिकता,
प्रेमभाव और लोकहित
को मान्यता दी है।

 

     पाश्चात्य
विद्वानों में प्लेटो
, रस्किन,
टॉल्स्टाय इत्यादि विद्वानों के एक वर्ग ने
लोकमंगलको
काव्य का प्रयोजन माना है । 

 

9. विलियम वड्सवर्थ:  कविता
साहित्य की लोकप्रिय और पारंपरिक विधा है। कविता को परिभाषित करते हुए
विलियम वड्सवर्थ ने कहा है- Poetry is nothing, but spontaneous overflow of
emotions.
मतलब यह कि कविता और कुछ नहीं, भावों का अविरल प्रवाह है।

      

10. शेली: शेली भी कहते हैं-
Our Sweetest melody has been sung at the saddest moment. अर्थात जीवन के मधुरतम गीतों की रचना उदासी भरे क्षणों में
होती है।

 

 

() हिंदी-साहित्यकारों
की दृष्टि में साहित्य अथवा काव्य का उद्देश्य या प्रयोजन

 

1. तुलसीदास :
गोस्वामी
तुलसीदास ने स्वान्तः सुखायको साहित्य का उद्देश्य मानते हुए कहा है कि- स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।  भाषा निबन्धमति मंजुल मातनोति

 

      इसके
साथ-साथ तुलसीदास ने साहित्य का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए यह भी कहा है
:

 

कीरती भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई। 

 

  अर्थात् कीर्ति, कविता और संपत्ति वही
उत्तम है जिससे बिना किसी भी प्रकार के भेद-भाव के सबका कल्याण हो। जैसे देवनदी
गंगा अपने जल की शीतलता
, अपनी सहजता,
सरसता और औचित्यमता से सबका हित-साधन करती है ।

 

हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों और आधुनिक
आलोचकों ने काव्य-प्रयोजन के संबंध में चिंतन किया है। रीतिकालीन कवियों के
काव्य-प्रयोजन के निरूपण में संस्कृत आचार्यों के ग्रंथों का विशेष प्रभाव लक्षित
होता है।

 

हिंदी के
रीतिकालीन कवियों पर
मम्मट द्वारा
निर्दिष्ट काव्यप्रयोजन का सशक्त प्रभाव रहा।

 

2. आचार्य कुलपति मिश्र : आचार्य कुलपति मिश्र ने यश, धन, आनंद और व्यवहार-ज्ञान को काव्य का प्रयोजन बताया है ।

 

3. देवदत्त (देव)  : देव ने केवल यश को ही काव्य का सर्वोत्तम प्रयोजन माना है।

    

4. आचार्य सोमनाथ : आचार्य
सोमनाथ
का लक्षण ग्रंथ रस पीयूष निधिहै
जिसमें उन्होंने कीर्ति
, धन,
मनोरंजन,
मंगल
और उपदेश को काव्य प्रयोजन स्वीकार किया।

 

5. आचार्यभिखारीदास:  आचार्य भिखारीदास का प्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ काव्य
निर्णय
है। इस ग्रंथ में उन्होंने तपः सिद्धि,
संपत्ति
प्राप्ति
, यशः प्राप्ति,
आनंद
की उपलब्धि
, सहज रूप में शिक्षा की
प्राप्ति को काव्य प्रयोजन स्वीकार किया। 

 

      हिंदी
के आधुनिक युग के साहित्यकारों ने न तो संस्कृत काव्यशास्त्रियों का अंधानुक़रण
किया और न रीतिकालीन आचार्यों की परिपाटी का अनुगमन किया है बल्कि इन्होंने
अपने-अपने विवेक से साहित्य के उद्देश्य निर्धारित किये है।

 

6. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी:  आधुनिककाल में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
ने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर चिंतन किया है। वे लोक हित
,
आनंद
तथा नीति एवं सात्विक भावों के उन्नयन को काव्य का प्रयोजन मानते हैं।

 

      इस प्रकार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि में ज्ञान और मनोरंजन साहित्य के मुख्य प्रयोजन
हैं ।

 

7. आचार्य रामचंद्र शुक्ल:  आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार आनंद एवं
मंगल की सिद्धि काव्य का मूल एवं व्यापक प्रयोजन है
, जिसके दो रूप हैं (i)
साधनावस्था,
और
(
ii) सिद्धावस्था ।

     वे
सौंदर्य के माध्यम से आनंद और लोकमंगल के विधान को प्रयोजन निरूपित करते हैं।
शुक्लजी ने काव्य-प्रयोजनों का निरूपण प्रायः सामाजिक दृष्टि से किया है।

 

      चिंतामणि- भाग एकके निबंध कविता
क्या है
?’ में काव्य के प्रयोजन को व्यक्त करते हुए
उन्होंने लिखा है-
“कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ संबंधों के
संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक सामान्य भाव भूमि पर ले जाती है। कविता ही मनुष्य
को प्रकृतदशा में लाती है और जगत के बीच उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई मनुष्यता
की उच्चभूमि पर ले जाती है।”

 

     हिंदी
के सर्वाधिक समर्थ
आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल की मान्यता
है कि –
प्रायः सुनने में आता है कि कविता का
उद्देश्य मनोरंजन है पर मन को अनुरंजित करना
, उसे सुख या आनंद पहुँचाना ही यदि कविता का अंतिम लक्ष्य
माना जाये तो कविता भी एक विलास की सामग्री हुई।

 

       वस्तुतः, शुक्ल जी की
दृष्टि में काव्य एक दिव्य अनुभूति प्रदान करनेवाली शक्ति है। काव्य-वस्तु के साथ
सामाजिक का तादात्म्य अर्थात् मनुष्यता की शिक्षा ही काव्य का लक्ष्य है।
शुक्ल जी ने कविता को
हृदय की मुक्तावस्था कहकर आनंद को ही प्राथमिकता दी है।

 

       इसी बात को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने चिंतामणि भाग-एकके कविता क्या है नामक निबंध में इस प्रकार कहा है- शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और
निर्वाह ही कविता है।
वे इसकी
व्याख्या करते हुए कहते हैं कि कविता हमें
स्वके संकीर्ण दायरे से बाहर निकालकर लोकहृदय में लीन होने की
दशा में ले जाती है।

 

8. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी:  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार मनुष्य
ही साहित्य का लक्ष्य है। द्विवेदी जी की काव्य-प्रयोजन संबंधी धारणा मुख्यतः
मानवतावादी है। उन्होंने एक निबंध भी लिखा है जिसका शीर्षक है-  “मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है।” इस निबंध में
वे लिखते हैं
, मैं साहित्य को मनुष्य की
दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ।

 

     आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी वस्तुतः काव्य या कला का प्रयोजन जीवन के लिए मानते हैं।
उनका दृष्टिकोण मानवतावादी है। इस संदर्भ में उनका कथन द्रष्टव्य है-
“साहित्य
के उत्कर्ष या अपकर्ष के निकष की एकमात्र कसौटी यही हो सकती है कि वह मनुष्य का
हित साधन करता है या नहीं। जिस बात के कहने से मनुष्य पशु-सामान्य धरातल के ऊपर
नहीं उठता
, वह त्याज्य है।”

 

     आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी
साहित्य का लक्ष्य मनुष्य जाति का हित मानते
हैं। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि –
मैं साहित्य
को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य की दुर्गति
, हीनता और
परमुखापेक्षिता से बचा न सके
, उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, जो उसके हृदय
को परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके
, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।

 

9. आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी : आचार्य
नन्द दुलारे वाजपेयी के काव्य-प्रयोजन संबंधी चिंतन में भारतीय एवं पाश्चात्य विचारों
का समन्वय है। उनके अनुसार साहित्य का उद्देश्य है जीवन के किसी मार्मिक स्वरूप या
स्थिति का ज्ञान कराना।

 

       उनकी मान्यता है कि हास्य या मनोरंजन के लिए
रचित साहित्य में युग का प्रतिनिधित्व नहीं होता। उनकी दृष्टि में साहित्य
राष्ट्रीय जीवन के लिए उपयोगी है। निष्कर्षतः वाजपेयी जी की दृष्टि
में आत्मानुभूति काव्य का प्रयोजन है।

 

10. डॉ. नगेन्द्र : डॉ. नगेन्द्र के
काव्य-प्रयोजन संबंधी विचार मनोवैज्ञानिक तथ्यों से युक्त हैं। वे
आत्माभिव्यक्ति
को साहित्य का मूलतत्व मानते हैं।
आत्माभिव्यक्ति से कवि या लेखक को
सृजन-सुख की प्राप्ति होती है।

 

     डॉ. नगेन्द्र की दृष्टि
में काव्य के मूलतः दो प्रयोजन हैं- आनंद और लोकमंगल
, जिनमें सापेक्षिक मूल्य आनंद का ही अधिक महत्त्व है। आनंद
की व्यापक परिधि में हित की भावना अंतर्भूत है और हित की परिणति भी आनंद ही है।

 

11. डॉ. भगीरथ मिश्र : डॉ. भगीरथ मिश्र के
काव्य-प्रयोजन संबंधी विचारों में भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्रीय चिंतन का
समन्वय हैं। उन्होंने काव्य-प्रयोजनों को
सात रूपों में विवेचित
किया है-

 

(i) कला कला के लिए (ii) कला जीवन के लिए (iii)
कला
जीवन से पलायन के लिए (
iv) कला मनोरंजन अथवा आनंद के
लिए (
v) कला सेवा के लिए (v)
कला
आत्मसाक्षात्कार के लिए (
vii) एक सृजनात्मक आवश्यकता की
पूर्ति के लिए 

 

     डॉ.
मिश्र की मूल मान्यता है कि काव्य एक सृजनात्मक आवश्यकता है।

 

12. मैथिलीशरण गुप्त :  राष्ट्रकवि
एवं द्विवेदी-युग के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि
मैथिलीशरण गुप्त ने मनोरंजन और उपदेश को काव्य का प्रयोजन माना है-

केवल मनोरंजन
न कवि का कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित
उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।

 

13. अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध : अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध के मत में ज्ञान और आनंदकाव्य के प्रयोजन हैं।

      

14. छायावादी कवियों की दृष्टि में काव्य प्रयोजन
:
छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद मनोरंजन और शिक्षा एवं प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत स्वान्तः सुख
और
लोकहितको काव्य का प्रयोजन मानते हैं।

 

      सुमित्रानंदन
पंत
ने भावना और कविता के अंतर्संबंधों को उद्घाटित करते हुए
कहा है-

वियोगी होगा
पहला कवि
,

आह से उपजा
होगा गान
;

उमड़ कर
आँखों से चुपचाप
,

बही होगी
कविता अनजान।

    

      वेदना, दुःख एवं करुणा की छायावादी कवयित्री महादेवी
वर्मा
की दृष्टि में साहित्य का उद्देश्य समाज के अनुशासन के बाहर
स्वच्छन्द मानव-स्वभाव में उसकी मुक्ति को अक्षुण्ण रखते हुए समाज के लिए अनुकूलता
उत्पन्न करना है।

 

15. डॉ. गुलाबराय :  डॉ. गुलाबराय के मत में रसानन्द ही सबका जीवन रस है और इसी
से लोकहित का मान है।

 

16. डॉ. श्यामसुंदर
दास
: डॉ. श्यामसुंदर दास की दृष्टि में – साहित्य का
उद्देश्य केवल मनुष्य के मस्तिष्क को संतुष्ट करना नहीं है
, वह तो मनुष्य
जीवन को अधिक सुखी और सुंदर बनाने की चेष्टा करता है। साहित्य के सहारे मनुष्य
जीवन के दुःख और संकट को क्षणभर के लिए भूल सकता है
, वह आपदाओं से भरे हुए वास्तविक संसार को छोड़कर कल्पना और
भावना के सुंदर लोक में भ्रमण कर सकता है। वास्तव में साहित्य की सीमा के अंतर्गत
उन्हीं पुस्तकों की गणना हो सकती है जो इस महान् उद्देश्य की पूर्ति करती हैं या
इस पूर्ति के आदर्श को सामने रखकर लिखी गई हैं।

 

17. मुंशी प्रेमचंद :

 

साहित्य के
उद्देश्य
के संबंध में
यदि
मुंशी प्रेमचंद के विचारों
की चर्चा न की जाये तो बात अधूरी होगी। उन्होंने
1936 ई. प्रगतिशील लेखक संघ लखनऊ के पहले अधिवेशन में सभापति के
रूप में  
साहित्य के उद्देश्यपर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा था कि-

 

1. साहित्य का
उद्देश्य हमारी अनुभूति की तीव्रता को बढ़ाना है। साहित्य केवल मन बहलाव की चीज
नहीं है।

 

2. साहित्य का
साधन सौंदर्य-प्रेम है। साहित्य मनुष्य में सौंदर्य-प्रेम को जगाने का यत्न करता
है। ऐसा कोई मनुष्य नहीं
, जिसमें सौंदर्य की अनुभूति न हो।… जहाँ प्रेम की विस्तृति
है
, वहाँ कमजोरियान
कहाँ रह सकती हैं
? प्रेम ही तो
आध्यात्मिक भोजन है और सारी कमजोरियाँ इसी भोजन के न मिलने अथवा दूषित भोजन से
पैदा होती हैं। साहित्य हममें सौंदर्य की अनुभूति उत्पन्न करता है और प्रेम की
उष्णता ।

 

3. साहित्य के
बदौलत मन का संस्कार होता है। यही उसका मुख्य उद्देश्य है।

 

4. साहित्यकार
का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। वह देशभक्ति और
राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने
वाली सच्चाई है।

 

5. जब तक
साहित्य का काम केवल मनबहलाव का सामान जुटाना
, केवल लोरियाँ गा-गा कर सुलाना, केवल आँसू बहाकर जी हल्का करना था, तब तक उसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। ………..मगर हम
साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही
साहित्य खरा उतरेगा
, जिसमें उच्च
चिंतन हो
, स्वाधीनता का
भाव हो
, सौंदर्य का
सार हो
, सृजन की
आत्मा हो
, जीवन की
सच्चाइयों का प्रकाश हो-जो हममें गति
, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाये नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।

 

(घ) साहित्य के उद्देश्य या प्रयोजन के संबंध में
मनोविश्लेषणशास्त्रियों के मत

 

     फ्रायड, एडलर, जुंग इत्यादि मनोविश्लेषणशास्त्रियों ने भी साहित्य के
प्रयोजन पर विचार किया है
, जिन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है –

 

1. फ्रायड : मानव
की सभी क्रियाओं के मूल में कामवासना रहती है । साहित्य
, कला-सृजन की मूल प्रेरणा सर्जक की दमित कमवासना है । 

 

 2.
एडलर :
इनके अनुसार हीनता की
क्षतिपूर्ति साहित्य-सृजन की मूल प्रेरणा है।

     जीवन में किसी-न-किसी अभाव के कारण मानव-मन
में हीनता की ग्रंथि (
Inferiority Complex) बन
जाती है। अतः वह अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलने के लिए साहित्य
, कला-सृजन में
प्रवृत्त होता है ।

 

3. जुंग : जुंग
ने कामवासना के साथ-साथ प्रभुत्व-कामना को काव्य की प्रेरक शक्ति बताते हुए कहा कि
आत्मरति और प्रभुत्व-कामना दो ऐसी सशक्त प्रवृत्तियाँ हैं
, जो मानव के सभी क्रिया-कलापों की प्रेरक शक्ति होती है ।  

 

साहित्य और समाज का अंतर्संबंध

 

     साहित्य
को समाज का दर्पण माना जाता है। इसीलिए हर युग के साहित्य में उस युग का समाज और
उसके मूल्य प्रतिबिंबित होते हैं। लेकिन यह साहित्य और समाज के अंतर्संबंध की
एकाँगी व्याख्या होगी।

 

     साहित्य
और समाज का अंतसंबंध एकाँगी नहीं
, पारस्परिक है। इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण भर नहीं
माना गया है। उसे दर्पण के साथ-साथ दीपक भी माना गया है।

 

     मुंशी
प्रेमचंद
ने भी 1936 में लखनऊ में आयोजित प्रगतिशील, लेखक संघ की अध्यक्षता करते हुए साहित्य के उद्देश्य पर
विस्तार से प्रकाश डाला। इसे
साहित्य का उद्देश्य नामक निबंध के रूप में प्रस्तुत किया गया। इस
निबंध में वे लिखते हैं-
साहित्यकार
का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है। उसका दरजा इतना न
गिराइए। वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं
, बल्कि उनके
आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।

 

साहित्य की प्रासंगिकता

 

     साहित्य
वह लोक-मंगलकारी रचना है जिसमें शब्द और अर्थ साथ-साथ आकर रचनाकार के भावों
, विचारों और
आदशों को समाज और पाठकों तक पहुँचाने का काम करते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में
साहित्य और समाज के अंतर्संबंध को परिभाषित करते हुए यह कहा गया है कि साहित्य न
केवल समाज का दर्पण है वरन् दीपक है। साहित्य के जरिये न केवल हमें उस युग
, समय और समाज
को जानने का अवसर मिलता है जिसमें उस साहित्य की रचना हुई है वरन् इस बात की
जानकारी भी मिलती है कि साहित्यकारों की वह पीढ़ी किस प्रकार के समाज का निर्माण
करना चाहती थी।

 

     यही
वह पृष्ठभूमि है जिसमें साहित्य कई बार देश और काल की सीमाओं को अतिक्रमित करता
हुआ वर्तमान संदर्भ में भी अपनी प्रासंगिकता का अहसास दिलाता है। उदाहरण के रूप
में तुलसीदास के रामचरितमानस को ले सकते हैं जो अपनी रचना के लगभग 450 वर्षों के बाद
भी आज प्रासंगिक है।

 

     लेकिन, हमारे लिए
साहित्य की उपयोगिता यहीं तक सीमित नहीं है। यह हमारे व्यक्तित्व और रुचियों के
परिष्कार और संस्कार में भी सहायक है। एक ओर यह आत्माभिव्यक्ति का जरिया है
, तो दूसरी ओर
इसके जरिये हमें अपनी संस्कृति और परंपरा को जानने का अवसर भी मिलता है। यह उन
मूल्यों
, विचारों और
आदर्शों की विरासत को हमें सौंपता है जो पूर्व की पीढ़ियों के द्वारा छोड़े गये
थे।

 

      स्पष्ट है कि साहित्य हमारे व्यक्तित्व निर्माण
में भी सहायक है। इसी दिशा में संकेत
रामवृक्ष
बेनीपुरी
के द्वारा गेहूँ और गुलाबमें दिया गया है। इसमें वे लिखते हैं कि जहाँ गेहूँ हमारी भौतिक भूख को शांत करता है वहीं गुलाब
हमारी सौंदर्य चेतना का परिष्कार करता हुआ हमारी आत्मिक भूख को शांत करता है।

 

     आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने मनुष्य को
साहित्य का लक्ष्य घोषित करते हुए कहा कि-
निखिल विश्व
के साथ एकत्व की साधना ही साहित्य की साधना है।

 

     इसी दिशा में आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल
कविता क्या हैनिबंध में संकेत करते हैं-
शेष सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक
संबंधों की रक्षा और निर्वाह का नाम ही कविता है

 

     स्पष्ट
है कि आचार्य हजारी द्विवेदी और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल दोनों का संकेत लोकमंगल की
ओर है। वे ऐसे साहित्य की अपेक्षा करते हैं जो हमारे संकीर्ण स्वार्थों को
परिष्कृत करते हुए मानव और मानवता के कल्याण के मार्ग को प्रशस्त कर सके। इसमें
सहायक है संवेदना जिससे साहित्य गहरे स्तर पर जुड़ा हुआ है।

    

निष्कर्ष

 

     काव्य
या साहित्य के संदर्भ में प्रयोजन अथवा उद्देश्य का उल्लेखनीय महत्व आदि आचार्य
भरत से पंडितराज जगन्नाथ तथा बाद के आचार्यों द्वारा निरूपित किया गया है।

 

      भरत,
भामह
आदि आरंभिक आचार्यों के प्रयोजन निरूपण में चारों पुरुषार्थों-  धर्म
, अर्थ,
काम
और मोक्ष का महत्व स्वीकार किया गया किंतु परवर्ती आचार्यों ने यश
,
धन
प्राप्ति और आनन्द को विशेष महत्व दिया।

 

     आचार्य
कुंतक ने लोकोत्तर चमत्कार-आनन्द की अनुभूति को काव्य का प्रयोजन सिद्ध किया है।

 

      आचार्य मम्मट ने काव्य के छः
प्रयोजन
माने – यश प्राप्ति, अर्थ लाभ,
व्यवहार
ज्ञान
, अशिव (अमंगल) का नाश,
शीघ्र
उत्कृष्ट आनंद की प्राप्ति तथा कांता सम्मित उपदेश। मम्मट के प्रयोजनों के अंतर्गत
लौकिक-अलौलिक
, वैयक्तिक-सामाजिक,
आंतरिक
और बाह्य सभी का सामंजस्य है।

 

      हिंदी के रीतिकालीन कवियों द्वारा बताया गया
काव्य-प्रयोजन संस्कृत के आचार्यों द्वारा निरूपित काव्य-प्रयोजनों पर आधारित है।
आचार्य सोमनाथ
, भिखारीदास,
कुलपति
आदि ने काव्य-प्रयोजन पर विचार किया है।

 

     आधुनिक
काल में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
, हजारी प्रसाद द्विवेदी,
नंददुलारे
वाजपेयी
, भगीरथ मिश्र आदि ने
काव्य-प्रयोजनों पर चिंतन किया है। पाश्चात्य विचारकों ने भी अपने प्रतिपादित
सिद्धांतों के अंतर्गत काव्य-प्रयोजनों पर विचार किया है। इसी प्रकार पाश्चात्य
मनोविश्लेषणशास्त्रियों ने भी काव्य-प्रयोजन के संबंध में अपने-अपने विचार व्यक्त
किए हैं ।

 

     इसी
प्रकार मनोविश्लेषणवादियों में फ्रायड
, एडलर, जुंग ने साहित्य के उद्देश्य पर विचार किया है।

 

     इसके
अलावा पाश्चात्य विद्वानों में सुकरात
, प्लेटो, अरस्तू, हीगेल, क्रोचे, रस्किन, टॉलस्टाय, शिलर, शेली, ड्राइडन, मैथ्यू आर्नाल्ड, फ्लावर्त, वाल्टर पेटर, आस्कर वाइल्ड, ब्रैडले, स्पिंनर्ग इत्यादि ने भी साहित्य के उद्देश्य पर प्रकाश
डाला है।

 

     हिंदी
में भक्तिकालीन कवि तुलसीदास
, रीतिकालीन कवि कुलपति मिश्र, देव, सोमनाथ इत्यादि एवं आधुनिक युग के मूर्द्धन्य हस्ताक्षर
मैथिलीशरण गुप्त
, आचार्य महावीर
प्रसाद द्विवेदी
, जयशंकर
प्रसाद
, सुमित्रानंदन
पंत
, महादेवी
वर्मा
, डॉ. नगेन्द्र, बाबू
गुलाबराय
, आचार्य
रामचंद्र शुक्ल
, मुंशी
प्रेमचंद इत्यादि ने साहित्य के उद्देश्य के संबंध में अपनी-अपनी मान्यताएँ
, अपने मत, अपने अमूल्य
विचार प्रतिपादित किये हैं।

 

     उपर्युक्त
विविध विद्वानों के मंतव्यों से स्पष्ट है कि साहित्य का महात्म्य
, साहित्य के
उद्देश्य अथवा प्रयोजन अनंत हैं। अंततः कहा जा सकता है कि स्वान्तःसुखाय
, आत्माभिव्यक्ति, धर्म, अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति, अलौकिक आनंद
की प्राप्ति
, मनोरंजन, सौंदर्य, मनोविकारों
का परिष्कार इत्यादि साहित्य के मुख्य उद्देश्य हैं।

 

     यह
साहित्य की सामाजिक सोद्देश्यता है जो उसे अंनत काल तक प्रासंगिक बनाये रखने में
सक्षम करती है । 

 

     इतना
ही नहीं
, साहित्य उस
समय
, समाज, संस्कृति और
परंपरा तक हमारी पहुँच को भी सुनिश्चित करता है जहाँ तक हमारी भौतिक पहुँच संभव
नहीं रह जाती है। इसका संकेत
जहाँ न पहुँचे
रवि वहाँ पहुँचे कवि
के जरिये दिया गया है। आशय यह है कि जहाँ तक सूर्य की
किरणें नहीं पहुँच पाती
, वहाँ तक कवि की कल्पना-शक्ति की पहुँच होती है ।

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